अनसुलझा सा कुछ

- Advertisement -

दिन के बारह बज चुके हैं और आसमान जैसे ये फैसला नहीं कर पा रहा है कि आज धूप के दर्शन होंगे या बादलों के। ठीक कुछ इसी तरह शायद मैं भी अभी तक ये फैसला नहीं कर पा रहा हूँ कि आज किस तरफ निकलूँ? शनिवार का दिन और लगभग कुछ काम नहीं। अकेले बैठे भी रहे कमरे में तो कब तक। किताबों का सहारा है लेकिन एक समय के बाद अकेले बैठे बैठे थोड़ी उकताहट होने लगती है। अभी छुट्टियों के दिन चल रहे हैं। मतलब ये कि जो पुराने काम थे, उसे फिलहाल छोड़ा हुआ हूँ। सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में वापस कदम रखने के लिए एक ट्रेनिंग कर रहा हूँ जो कि लगभग हर रोज़ तीन घंटे का होता है। ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट ज्यादा दूर नहीं इसलिए जाने आने में ना तो ज्यादा वक्त लगता है, ना ही कुछ परेशानी होती है। इस तीन घंटे के अलावा लगभग दिन का पूरा समय अपना है। ना कोई दखल देने वाला और ना ही कोई साथ घूमने वाला। पूरे दिन फुर्सत ही फुर्सत रहती है। शायद बड़े दिनों के बाद ऐसे दिन लौटे हैं या कहूँ पहली बार ऐसे दिन आए हैं।

घर से वापस आ रहा था तो ठीक दो दिन पहले हमारे लैपटॉप महाराज नाराज हो गए। बहुत मनाया उन्हें लेकिन कोई फायदा नहीं। वो जो एक बार सोये तो उठने का नाम नहीं ले रहे थे। थक हार के उसी दिन सर्विस सेंटर में ले गया, ये पता लगाने की आखिर इनके नाराज़ होने की क्या ऐसी बात हो गई? पता चला कि महाराज को एक बड़ी बीमारी ने जकड़ा हुआ है और इन्हें स्वस्थ होने में समय लग सकता है। मायूस मैं, सोचा चलो अब तो यहाँ वक्त भी कम है। वापस जाकर इसे ठीक करवा दूँगा। सर्विस सेंटर से वापस घर तक ड्राइविंग करते करते मन में कैलकुलेशन कर रहा था..बैंगलोर पहुँचते ही इसे दे आऊँगा बनने, एक दिन बीमारी का पता चलने में लगेगा, दो-तीन दिन बीमारी के इलाज में..हद से हद पांच दिनों में फिर से महाराज स्वस्थ हो जाएंगे और मेरे पास आ जाएंगे। लेकिन बैंगलोर पहुँच के जो पता चला उससे मैं निराश हो गया। महाराज के एक चिप और एक आई.सी में खराबी आई है, जो कि बहुत कम मिलती है। तीन दिन बाद महाराज के डॉक्टरों ने कहा कि इस शहर में ये कॉम्पोनेंट उपलब्ध नहीं हैं और इसे चेन्नई से ऑर्डर दे के मांगना पड़ रहा है जिसके कारण कुछ एक हफ्ते का वक्त और लग सकता है। सुनते ही पहला ख्याल आया कि और एक हफ्ते, मतलब महाराज को पूरी तरह स्वस्थ होने में अभी सात-आठ दिन और हैं, क्या करूँगा मैं इतने दिन? काम, इंटरव्यू सब कुछ छोड़ चुका हूँ..मैं तो हद बोर हो जाऊँगा। ठीक है, कि एक कोर्स कर रहा हूँ, लेकिन फिर भी पूरे दिन का वक्त मेरे पास रहेगा, और काम कुछ नहीं।

घूमा फिर के इस शहर में एक ही दोस्त है, निशांत। जो कि अब इसी शहर के किसी दूसरे इलाके में शिफ्ट हो गया है। वो वैसे तो मेरे से बहुत छोटा है, लेकिन दोस्ती उम्र को देख के तो की जाती नहीं। कॉलेज के सहपाठी, जान पहचान के लोग हैं तो बहुत लेकिन सब अपनी अपनी दुनिया में मस्त। जब कोई व्यक्ति अकेला होता है तो वो बोरियत को दूर भगाने के लिए मनोरंजन के साधन खोज लेता है। चाहे वो लैपटॉप हो, इंटरनेट, टी.वी, एफ.एम, गाने या फिर मोबाइल ही क्यों न हो। मेरे पास थे ये लैपटॉप महाराज। महाराज जी का उपयोग मैं मुख्यतः गाने/फिल्मों/गजलों/विडियो/इंटरनेट/ब्लॉग के लिए करता हूँ। वैसे इसके अलावा काम भी करता हूँ, लेकिन वो तो सेकेंडरी चीज़ है..प्राइमरी चीज़ वही हैं..गाने…फिल्म…इंटरनेट।

बैंगलोर में महाराज के बिना पहला दिन पहाड़ जैसा कटा। बोरियत से भरपूर। किसी भी इंसान(या चीज़) की सबसे ज्यादा अहमियत हमें उस समय मालूम होती है जब वो हमसे दूर हो। पहला दिन तो मेरी बोरियत का कहर रूम में पड़े उस दिन के अखबार और एक मैगजीन को झेलना पड़ा, जिसे मैंने झाड़-पोछ के अच्छी तरह चाट डाला था। एकाएक मेरी नजर किताबों के शेल्फ पे गई, फिर वो वाक्य याद आया -“किताबें इंसान की सबसे अच्छी दोस्त होती हैं”। बस फिर क्या था। अगला दिन शनिवार का था, निकल गया पास के एक बुकस्टोर में किताबें खरीदने। दो तीन किताबें उठा लाया अच्छी अच्छी सी। लगभग अभी तक पांच किताबें पढ़ चुका हूँ और इन सब में से जिस किताब का असर सबसे ज्यादा हुआ है वो है गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)। इस किताब के तीन किरदार किताब पढ़ने के बाद भी दिमाग में घूमते रहे। किताबों के अलावा रेडियो को भी अपना साथी बनाया। रेडियो से मेरा मतलब आज के एफ.एम चैनल्स नहीं हैं। विविध भारती है। ये भी अचानक ही हुआ। मेरे मोबाइल में रेडियो का ऑप्शन है, मैं कभी मोबाइल पे रेडियो सुनता नहीं, लेकिन महाराज के जाने के बाद एक दिन यूँही रेडियो सुनना चाहा तो देखा कि विविध भारती की फ्रीक्वेंसी पहले से सेट है, कभी मैंने ही किया होगा। अब तो हर रात विविध भारती सुनना सुकून देता है..दिल को भी, दिमाग को भी।

पिछले पूरे हफ्तों में खुद को समझने का अच्छा वक्त मिला, कुछ लोगों के असली व्यक्तित्व से परिचय भी हुआ। कुछ बातों पर निर्णय भी लेना था, उसका भी पूरा वक्त मिला। कुछ बातों को लेकर उदासी भी आती जाती रही। कुछ-एक विषयों पे न चाहते हुए भी सोचने लगा। ऐसा नहीं कि इस मानसिक द्वंद से पहले नहीं गुजरा, लेकिन दिल दिमाग बहलाने के लिए फिल्मों, और इंटरनेट का सहारा था। फिर लगा कि अच्छा ही हुआ ये सहारा कुछ दिनों के लिए हटा तो सही..खुद ही इस द्वंद से लड़ने की क्षमता तो विकसित हुई। संघर्ष तो चल ही रहा है..वैसे मैं अपने इस वक्त को संघर्ष का नाम दूँ या नहीं, ये नहीं जानता। क्योंकि संघर्ष की जो परिभाषा मैं जानता हूँ वो कहीं और बड़ी है। वैसा संघर्ष जो करते हैं, वो आगे चल के महान कहलाते हैं। हाँ, मैं अपने जिंदगी के इस दौर को कुछ परेशानियों वाला वक्त जरूर कहूँगा..फिर जैसे चचा जी(सलिल वर्मा) ने एक बार फेसबुक पे कहा – “सभी टॉप के फिल्मस्टार, बुलंदियों पर पहुँचकर भी स्ट्रगल के दिन याद करते हैं.. भगवान तुम्हें बुलंदी बख्शे!! आमीन!” याद रहेगा मुझे।

हाँ, मैं अपने अभी के इस वक्त को नहीं भूल पाऊंगा, बहुत सी बातों के टूटने-जुड़ने का गवाह है ये वक्त। ये एक ऐसा वक्त है, ये ऐसे दिन हैं जो याद रहेंगे..शायद हमेशा।

बहुत कुछ लिखा भी है इधर, जिसमें ज्यादातर खुद के लिए लिखा है। अच्छी कविताएँ न लिख पाने के बावजूद भी एक छोटी कविता को यहाँ पोस्ट करने की जुर्रत कर रहा हूँ। अगला पोस्ट शायद लैपटॉप आने के बाद लिखूं, लेकिन जब भी लिखूंगा वो कुछ अलग सा होगा।

वो कुछ अलग लोग थे
जो समझते थे तुम्हे
प्यार करते थे तुम्हे
वो जो हमेशा
खुश देखना चाहते थे तुम्हे.
वो तुम्हारे शहर के लोग थे
दोस्त थे तुम्हारे.
वो अब किसी दुसरे शहर में हैं.
तुमसे दूर
बेवजह ही तुम उन जैसा दोस्त
खोजते फिरते हो
यहाँ उन लोगों जैसा कोई भी नहीं.

  1. पूरी पोस्ट का सार इस कविता में है जो काफी अच्छी लगी मुझे तो.सब वक्त एक सा हो जाये तो वक्त की कीमत ही क्या रहेगी.
    सलिल जी कि लाइन ले रही हूँ .खुदा तुम्हें बुलंदी बक्शे.आमीन.

  2. दोस्त थे तुम्हारे.
    वो अब किसी दुसरे शहर में हैं.
    तुमसे दूर
    बेवजह ही तुम उन जैसा दोस्त
    खोजते फिरते हो
    यहाँ उन लोगों जैसा कोई भी नहीं.

    बहुत भावपूर्ण पोस्ट है….. और कविता की यह पंक्तियाँ तो सब कह रही हैं……

  3. हाँ, मैं अपने अभी क इस वक़्त को नहीं भूल पाऊंगा, बहुत सी बातों के टूटने-जुड़ने का गवाह है ये वक़्त.ये एक ऐसा वक़्त है, ये ऐसे दिन हैं जो याद रहेंगे..शायद हमेशा.

    भावपूर्ण अभिव्यक्ति

  4. वैसे इसके अलावा काम भी करता हूँ, लेकिन वो तो सेकन्डेरी चीज़ है..प्राइमरी चीज़ वही हैं..गाने…फिल्म…इन्टरनेट.
    सही है…प्राइमरी चीज़ तो यही है…:)
    खुद से मिलने का वक़्त कम मिलता है..तुम्हे अनायास ही मिल गया है…भरपुर फायदा उठाओ इसका…
    कविता कुछ उदास कर गयी.

  5. मेरे लिए भी कुछ् अनसुलझा सा है दोस्ती के लिए मेरे तुम्हारे उसके शहर…इन सीमाओं को तोड़ा नही जा सकता क्या ???

  6. देर से आया तो देखा शिखा जे पहले ही प्रोक्सी लगा चुकी हैं मेरी.. धन्यवाद शिखा जी!
    "तुम बिन जाऊं कहाँ" (यह लैपटॉप के लिए कहा है) वाली हालत मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है. कोइ बात नहीं, थोड़े दिन की बात है.
    रही बात कैरियर की तो मैं तो हमेशा बच्चों के लिए दुष्यंत कुमार जी की लाइन कहता हूँ.. जा तेरे स्वप्न बड़े हों!

  7. बेवजह ही तुम उन जैसा दोस्त
    खोजते फिरते हो
    यहाँ उन लोगों जैसा कोई भी नहीं.

    बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति है…..

  8. दोस्त थे तुम्हारे.
    वो अब किसी दुसरे शहर में हैं.
    तुमसे दूर
    बेवजह ही तुम उन जैसा दोस्त
    खोजते फिरते हो
    यहाँ उन लोगों जैसा कोई भी नहीं.
    aapne to dost yaad dila die….
    bahut hi acchi post

  9. अपने को इतना भी कम न आंको…इतनी खूबसूरत पोस्ट में चार चाँद लगाती इतनी बेहतरीन कविता लिखे हो और कहते हो कि कविता नहीं लिख पाता…:)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Latest Posts