फिर एक रात जो बहुत दिनों बाद आई

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कभी-कभी सुख के पल उस वक्त आ धमकते हैं जब आप उसकी उम्मीद बिलकुल भी नहीं कर रहे होते हैं। पिछले कुछ दिनों से अपने ‘द फेमस मूड स्विंग’ का विक्टिम बना हुआ हूँ। कभी-कभी बड़ी अजीब सी उदासी घेर ले रही है तो कभी-कभी दिल बड़ा हल्का और अच्छा मालूम पड़ता है। कभी-कभी जब मन बहुत दुखी रह रहा होता है तो ठीक उसी समय किसी तरह का एक सपोर्ट सिस्टम आकार मुझे उदासी से खींच ला रहा है। आज रात वह सपोर्ट सिस्टम के रूप में सामने आया मेरा पुराना एक दोस्त: ‘नितिन’।

सुबह से अजीब सी उदासी ने घेरे रखा था। किसी भी काम में दिल लग ही नहीं रहा था। बड़ी बोरिंग सी सुबह थी और यह भी तय था कि दिन भी कुछ खास अच्छा गुजरने वाला नहीं है। हुआ भी ठीक वैसे ही… कुछ एकदम बनी बात एकदम से बिगड़ गई, जिससे मूड और खराब हो गया। वहीं एक खबर, जो पिछले कई समय से टलती आ रही थी (लेकिन जिसका होना तय था), एकदम से सामने आ खड़ी हुई। शाम तक मूड बद से बदतर होता चला गया। फिर भी शाम को पूरे इरादे से बाहर घूमने निकला कि आज तो इस बुरे मूड से लड़कर रहूँगा। देखूँ मैं भी कि कब तक यह मुझे पकड़े रहता है। लेकिन कुछ बात नहीं बनी। मूड खराब का खराब ही रहा।

जब भी मैं इस तरह के खतरनाक मूड में रहता हूँ, तो आमतौर पर मेरे ‘सपोर्ट सिस्टम’ के रूप में सामने आते हैं मेरे गिने-चुने कुछ दोस्त, जैसे अकरम।

मैंने अकरम को फोन मिलाया। अब बेचारा अकरम… परसों शाम ही वह मुझे सवा घंटे से भी ज्यादा देर झेल चुका था, और मैंने आज उसे फिर से फोन कर दिया था (Sorry Bro :P)। अक्सर फोन पर ज्यादा बोलने वाला मैं ही होता हूँ और वह सुनने वाला। लेकिन आज मैं चुप था। उसने ही बहुत सारी बातें कीं और आज भी बातों का सिलसिला एक घंटे से ऊपर चला। दिल-दिमाग बहुत हद तक हल्का हुआ। अकरम से बात करने के बाद मैंने सोचा कि रुचिका से भी बात कर लूँ। काफी दिन हो गए थे उससे बात किए हुए, और वह मुझे हमेशा याद करती रहती है। रुचिका से भी बहुत देर फोन पर बात हुई।

अब वह बेचारी ठहरी अच्छी और सीधी बच्ची, मुझसे छोटी भी है… तो खुलकर तो वह नहीं कह सकती न कि: “भईया, आप बड़ा पका रहे हैं… चलिए फोन रखिए।” उसने भी बहुत देर झेला मुझे। मेरी बेकार की फिलॉसफी को पता नहीं कैसे उसने बर्दाश्त भी कर लिया (एक ऑस्कर तो वह इसके लिए डिजर्व करती ही है)। रुचिका से बात करते-करते शायद नौ बज चुके थे, और मैं पूरी तरह अपने बुरे मूड से बाहर भी निकल आया था (जिसका क्रेडिट सिर्फ रुचिका और अकरम को जाता है)।

रुचिका से बात करके फोन रखा ही था कि मेरे एक दोस्त, नितिन का एक शैतानी एसएमएस आ गया: “कॉल मी… इट्स अर्जेंट।”

यह एसएमएस मेरे एक कंजूस दोस्त नितिन का था। फोन करने पर मालूम चला कि साहब आज बेंगलुरु पधारने वाले हैं और वे आज मेरे रूम पर ही रुकेंगे। ऊपर से इन्होंने हुक्म भी दे दिया कि इनके खाने-पीने का भी इंतजाम मैं अच्छे से करके रखूँ। यह नितिन मेरे पटना के कुछ अच्छे दोस्तों में से है, बड़ा बुद्धिमान लड़का है। NIT से पढ़ा हुआ है और फिलहाल BHEL में कार्यरत है। काम के सिलसिले में उसका बेंगलुरु आना-जाना लगा रहता है।

एक बार तो मेरा दिल किया कि कह दूँ, “मैं अपने रूम पर हूँ ही नहीं। कोई दूसरा ठिकाना देख ले या फिर कोई होटल ले ले।” लेकिन फिर ख्याल आया कि कुछ दिन पहले जब मैं दिल्ली से बेंगलुरु आ रहा था, तो इसी बेवकूफ ने यशवंतपुर स्टेशन पर मेरा दो घंटे इंतजार किया था। तो मैंने भी सोचा, ठीक ही है, आ रहा है तो आने देता हूँ। एक दिन के लिए तो इसे बर्दाश्त कर ही सकता हूँ।

नितिन को पिक करके रूम पहुँचा ही था कि इस शैतान ने पीछे से आवाज लगाई—”अबे चल, आज ’16 दिसंबर’ फिल्म देखते हैं… चल जल्दी से डाउनलोड मार।” मुझे उसकी इस बात पर किसी भी किस्म की आपत्ति नहीं हुई और मैं तुरत राजी हो गया। फिल्म की एक घिसी-पिटी सीडी थी, तो मुझे फिल्म डाउनलोड करने की जरूरत नहीं पड़ी। इस फिल्म के लिए राजी होने की एक वजह भी थी मेरे पास। 2002 में, जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तो हमने और नितिन ने इस फिल्म को साथ-साथ ही देखा था।

एक दिन की बात है, मेरे घर से सारे लोग नानी के यहाँ गए हुए थे। जाड़ों के दिन थे वो… और न्यू ईयर की छुट्टियाँ भी थीं। वीसीपी मेरे घर पर रखा हुआ था, और नितिन और शेखर घर आ धमके। नितिन वीडियो लाइब्रेरी से आ रहा था और उसी दिन इस फिल्म की वीडियो कैसेट रिलीज हुई थी। घर पर भी कोई नहीं था, बस हम तीन दोस्तों के अलावा। इससे अच्छा मौका क्या मिलता… उसी दिन हमने यह फिल्म देखी थी।

इस फिल्म से जुड़ी एक मजेदार बात भी है… जब इस फिल्म के प्रोमो आने शुरू हुए, तब हमने इस बात पर काफी सोचा कि आखिर इस फिल्म का नाम 16 दिसंबर क्यों रखा गया है? दिल में ख्याल आया कि पिछले वर्ष संसद में जो हमला हुआ था, कहीं उस पर तो यह फिल्म नहीं है? लेकिन संसद पर हमला तो 13 दिसंबर को हुआ था, तो नाम 16 दिसंबर क्यों? नितिन का कहना था कि हो न हो यह उसी अटैक से संबंधित है, बस कुछ नया ट्विस्ट एंड टर्न रहेगा फिल्म में।

हमने तय किया कि फिल्म निकलने से पहले इसके बारे में पता करना होगा। बुक स्टॉल भी गए, एक-दो मैगज़ीन भी खंगालीं, कुछ हाथ नहीं आया। तो हमने तय किया कि अब इस बारे में “इंटरनेट” पर जानकारी खोजते हैं, शायद कुछ हाथ लगे। इंटरनेट ने हमें निराश नहीं किया। हाँ, कुछ वक्त ज़रूर लगा, लेकिन पता चल गया कि इसी दिन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध का अंत हुआ था, और पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण किया था।

महफ़िल

खैर… तो रात के डिनर के बाद हमने इसी फिल्म को देखा। फिल्म की सीडी जबरदस्त घिसी हुई थी। कई बार पानी से इसे धोना पड़ा, साफ कपड़े से रगड़ना पड़ा, ठोकना-पीटना भी पड़ा, लेकिन पूरी फिल्म हमने देख ही ली।

फिल्म देखने के बाद सोने का ही प्लान था कि शैतान ने फिर से पीछे से आवाज लगाई, “अबे यार, तू इतना शायरी-वगैरह करता है… कुछ एक-दो शेर सुना न।” मैंने पूछा कि कौन से शायर का शेर सुनना चाहेगा? नितिन ने कहा, “किसी का भी सुना दे।”

सामने टेबल पर फ़राज़ साहब की एक किताब रखी हुई थी, तो नितिन ने कहा कि फ़राज़ का ही कोई शेर सुनाओ। मैंने तो सोचा था कि यह बस यूं ही बोल रहा है शेर सुनाने को, तो तीन-चार शेर सुना देता हूँ, बात खत्म हो जाएगी। जो चार-पाँच शेर उस वक्त दिमाग में आए, मैंने उसे सुना दिए। कुछ शेर सुनकर तो नितिन बाबू एकदम उछल पड़े और उन्हें फिर से सुनाने की फरमाइश करने लगे। कुछ शेर जिन पर नितिन बाबू उछले थे:

” इन बारिशों से दोस्ती अच्छी नहीं फ़राज़,
कच्चा तेरा मकान है कुछ तो ख्याल कर”

“दिल भी बुझा हो, शाम की परछाइयाँ भी हो
मर जाईये जो ऐसे में तन्हाइयां भी हों..”

“अब मिलेंगे उसे तो खूब रुलायेंगे ‘फराज़’
सुना है उन्हें रोते हुए लिपट जाने की आदत है “

“मेरी खुशी के लम्हे मुख़्तसर हैं इस कदर ‘फराज़’
गुजर जाते हैं मेरे मुस्कुराने से पहले”

“सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं”

“सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं”

‘फराज़ अपने सिवा है कौन तेरा
तुझे तुझसे जुदा देखा न जाए”

“कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा बुझा
कुछ शहर के चिराग भी मद्धम हैं दोस्तों”

“सौ बार मरना चाहा निगाहों में डूब कर
वो निगाहें झुका लेती है, हमें मरने नहीं देती”

फराज़ साहब के इतने शेर सुनने के बाद भी नितिन बाबू को चैन नहीं मिला और फराज़ साहब की किताब में से कुछ और नज़्म सुनाना पड़ा मुझे। नितिन साहेब अब फुल मूड में आ चुके थे। करीब एक घंटा फराज़ साहब को सुनने के बाद नितिन साहेब ने कहा कि, “तू बड़ा गुलज़ार के नज्मों को फेसबुक पर चिपकाते रहता है, चल कुछ उनमें से सुना अब।” गुलज़ार साहब के नज्मों की कोई भी किताब मेरे पास नहीं है। उनकी नज्में मेरी डायरी में लिखी हुई हैं, तो गुलज़ार साहब के नज्मों और त्रिवेणियों का दौर भी खूब चला। नितिन बाबू को तो वैसे सभी त्रिवेणियाँ बहुत पसंद आईं, लेकिन सबसे ज्यादा जो पसंद आईं, वो थीं:

“आपकी ख़ातिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़के
चाँद चुभ जायेगा उँगली में तो खून आ जायेगा।”

“इतनी लंबी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा
चाँद बराबर छाला पड़ा है उंगली पर।”

जब मैंने देखा कि शेरो-शायरी में नितिन बाबू को मज़ा आने लगा और वो गहरे ख्यालों में डूबने लगे हैं, तो मुझे शक हुआ कि कहीं ये भी इश्क के गिरफ्त में नहीं आ गए न। नितिन बाबू ने लेकिन इस सवाल का जवाब नहीं दिया, उल्टा मुझे गरियाते हुए शायरी पर ध्यान देने का आदेश दिया। गुलज़ार साहब की कुछ नज्मों के बाद इनका दिल किसी दूसरे शायर को सुनने का करने लगा। जब मैंने पूछा, “कौन से शायर को सुनना चाहोगे?” तो उन्होंने चचा ग़ालिब का नाम लिया।

लेकिन ग़ालिब के एक शेर से ही नितिन बाबू तौबा-तौबा करने लगे। चचा ग़ालिब की शायरी में जो कठिन उर्दू शब्द थे, उन्हें नितिन बाबू समझ नहीं पा रहे थे, और मेरे समझाने पर भी बाकी की शायरी को समझने के लिए नितिन बाबू को काफी मशक्कत करनी पड़ रही थी। ग़ालिब चचा ज़्यादा देर टिक नहीं पाए और नितिन साहब का हुक्म हुआ कि किसी दूसरे शायर की शायरी को सुनाया जाए। हालांकि ग़ालिब का यह शेर नितिन को बहुत पसंद आया, वजह थी कि इसमें उर्दू के कठिन शब्द नहीं थे। वह शेर कुछ इस तरह था:

“नज़र में खटके है बिन तेरे घर की आबादी
हमेशा रोते हैं हम देख कर दरों-दीवार।”

ग़ालिब के बाद कुछ और शायरों और कवियों की किताब निकलीं। लेकिन फराज़ और गुलज़ार साहब के बाद जिस शायर की शायरी से नितिन बाबू खुश हुए, वो थे कैफ़ी आज़मी और बशीर बद्र साहब। कैफ़ी आज़मी साहब की यह नज़्म नितिन बाबू को बहुत पसंद आई:

“तू खुर्शीद है, बादलों में न छुप
तू महताब है, जगमगाना न छोड़
तू शोखी है शोखी, रियायत न कर
तू बिजली है बिजली, जलाना न छोड़
अभी इश्क ने हार मानी नहीं
अभी इश्क को आज़माना न छोड़।”

बशीर बद्र के भी कुछ शेरों पर तो नितिन साहेब की जबरदस्त वाह मिली। कुछ पर तो वो उछले भी और कागज़ में उन्हें नोट भी किया। जैसे ये शेर:

“मुझे लगता है दिल खींचकर चला आता है हाथों पर
तुझे लिखूँ तो मेरी उँगलियाँ ऐसी धड़कती हैं।”

“कभी सात रंगों का फूल हूँ, कभी धूप हूँ, कभी धूल हूँ
मैं तमाम कपड़े बदल चुका, तेरे मौसमों की बारात में।”

“उन्हीं रास्तों ने, जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे
मुझे रोक-रोक पूछा, तेरा हमसफ़र कहाँ है।”

“ख़्वाबों के काफिले भी कहीं ज़ुल्फों में खो गए
आँखों में आज नींद का कोसों पता नहीं।”

फिलहाल सुबह के साढ़े पाँच बज गए हैं और हम दोनों अभी तक जागे हुए हैं। शायरी, नज़्मों और त्रिवेणियों में पूरी रात कट गई। नितिन साहेब के सामने बैठ रैंडमली यह पोस्ट लिख रहा हूँ, और इस पोस्ट को लिखने का क्रेडिट भी जाता है नितिन को ही। 2010 में लिखी गई एक पोस्ट के शीर्षक को ही री-यूज कर रहा हूँ क्योंकि दोनों पोस्ट लगभग एक सी ही हैं… या सिम्पली इसे उस पोस्ट का सेकंड पार्ट कहिए :P।

अभी इसे ब्लॉग पर पब्लिश करने के बाद, फेसबुक और गूगल प्लस पर चिपकाने के बाद, दोनों सुबह-सुबह की चाय का आनंद लेने निकलेंगे।

तो आप टिपियाइए, हम चले चाय पीने!! 😊

Meri Baatein
Meri Baateinhttps://meribaatein.in
Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. दोस्तों का यूँ ही मदमाया साथ बना रहे।

  2. bhai tu vo to likhna bhul hi gaya jo tune mujhe sunaya tha…gulzar ka wo gana…yaad hai pancham…wo bhi likh yaar….:P
    by the way apni photo bhi yahan chipka dete na…wo table pe sone waali 😀 mujhe tereko dekh dekh ke hansi aa rahi thi 😀

    but likha zordar hai tune :):)

  3. "शाम तक मूड बद से बद्दतर होते चला गया.फिर भी शाम को पुरे इरादे से बाहर घूमने निकला, की आज तो इस बुरे मूड से लड़ के रहूँगा..देखूं मैं भी की कब तक ये मुझे पकडे रहता है."

    I wish to inculcate such wisdom and attitude in me too…
    "आज तो इस बुरे मूड से लड़ के रहूँगा.."
    salute to this indomitable spirit!!:)

  4. Nitin ji ke pasandida shero-shaayri ko post mein include karne se aapka yah post sangrahniy ban pada hai…:)

  5. अभिषेक बाबू, जो फ्री फ्लो में लिख मारी पोस्ट, उसमे बस मजा आ गया, और शेरों, नज्मों और त्रिवेणियों का एक जादू बिखेर दिया गुरु| कई कई बार पढ़ लिए| एसी महफ़िल कभी कभी जमती हैं पर जब जमती हैं, माशा-अल्लाह खुदा का नूर बरस पड़ता है| एक "मैसूर पाक" हमारी तरफ से "जय-वीरू" टाइप के दोस्तों को . चीयर्स!!!!!

  6. वत्स!! रात का डिनर खाने के बाद (सुबह का डिनर खाने के बाद क्या करते हो यह बताना अगली पोस्ट में) जो मुशायरा हुआ, उससे मुझे जलन होने लगी है.. सिर्फ दोस्तों को ही "पढकर" सुनाते हो, कभी हमें भी पोडकास्ट बनाकर सुनाओ!!
    तुम्हारे ब्लॉग का नाम "मेरी बातें" नहीं "मेरे दिल से निकली बातें" होना चाहिए!!

  7. रात, दोस्त और शायरी क्या खतरनाक टाइप का कॉम्बिनेशन है.
    तुम जैसा दोस्त भगवान सबको दे.

  8. रात, दोस्त और शायरी क्या खतरनाक टाइप का कॉम्बिनेशन है.
    तुम जैसा दोस्त भगवान सबको दे.

  9. Mera mood off ho toh mere pass bhi ek list hai, doston ki, humesha unhi ko call karti hu.

    chahe hafta baar baat na ho par mushkil main rhugi toh unse he baat karti hu!

  10. Mera mood off ho toh mere pass bhi ek list hai, doston ki, humesha unhi ko call karti hu.

    chahe hafta baar baat na ho par mushkil main rhugi toh unse he baat karti hu!

  11. रे तुम बहुत खतरनाक आदमी है…. सब बडका बडका सायर सबका गद्दी हिला दोगे भाई….. अबे हमको तो लग रहा है चच्चा गालिब घुसिया गये है तोहरे अन्दर…..

    खतरनाक लिख डाले रे बच्चा….. 🙂 शब्बाश….

  12. क्या रात गुजरी है…

    बस दोस्त ऐसे ही धमकते रहें…महफ़िलें सजती रहें…और हमें शेरो-शायरी से लैस इतनी आत्मीयता भरी पोस्ट पढ़ने को मिलती रहे…

  13. ऐसी महफ़िल की बात सुन कर कुछ nostalgic टाइप फीलिंग आ रही…:)

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