जब से सुना था इस फिल्म के बारे में तब से ही काफी ज्यादा उत्सुकता थी. राकेश ओमप्रकाश मेहरा मेरे सबसे प्रिय डायरेक्टर में से हैं. उनकी तीनों फ़िल्में मुझे बेहद पसंद आई थी, और गुलज़ार साहब तो हर दिल अजीज हैं. उनके लिए तो जितना कहूँ उतना कम लगता है. जब से सुना था कि गुलज़ार साहब सत्रह साल बाद किसी फिल्म की कहानी लिख रहे हैं, बहुत सी उम्मीदें बंध गयी थी. फिल्म देखने के बाद मेरी पहली प्रतिक्रिया यही थी कि इस फिल्म को आप “विसुअल ब्रिलियंस” और “पोएटिक” कह सकते हैं, लेकिन कहानी और पटकथा उतनी मजबूत नहीं थी. गुलज़ार साहब की कमाल की नज्में पूरे फिल्म में चलती रही थी. मिर्ज्या पंजाब की सबसे मशहूर कहानियों में से एक “मिर्ज़ा-साहिबां” की प्रेम कहानी पर आधारित है. पंजाब को कि प्रेम-कहानियों के लिए मशहूर है और जहाँ से हमें हीर-रांझा और लैला-मजनू की कहानियाँ मिली वहीँ मिर्ज़ा-साहिबां की प्रेम कहानी एक ऐसी कहानी है जिसमें कहा जाता है कि नायिका ने बेवफाई की.
फिल्म पर कुछ भी कहने से पहले, संक्षिप्त में मिर्ज़ा-साहिबा की कहानी दोहरा लें –
पंजाब के खेवा नाम के एक गाँव में मिर्ज़ा और साहिबां का जन्म हुआ और वहीं पले-बढ़े. मिर्ज़ा की माँ फ़तेह बीवी थी और साहिबां खेवा खान की बेटी थी. खेवा खान फ़तेह बीवी के दूध के रिश्ते के भाई थे और उन्होंने मिर्ज़ा को उनके पास ही पढ़ने को छोड़ दिया. खेवा खान के घरवाले के सभी लोग सिवाए खेवा खान के मिर्ज़ा से नफरत करने लगे थे. वो नहीं चाहते थे कि कोई दुसरे परिवार का लड़का उनके साथ रहे. लेकिन खेवा खान ने फिर भी मिर्ज़ा को घर में रखकर पढ़ाया. साहिबा और मिर्ज़ा साथ साथ पढ़ते थे और साथ ही साथ बड़े हुए. वो अच्छे दोस्त बन गए और धीरे धीरे ये दोस्ती उनकी प्यार में तब्दील हो गयी.
धीरे धीरे समय बढ़ता गया. एक तरफ जहाँ साहिबां की खूबसूरती की चर्चा हो रही थी, कि उसके जैसी सुंदरी दूर दूर तक कोई नहीं है वहीं मिर्ज़ा की बहादुरी के चर्चे भी खूब ज़ोरों पर थी. मिर्ज़ा एक जबरदस्त धनुर्धर थे. कहते हैं वो तीर चलाने में इतने माहिर थे कि वो जहाँ चाहते थे वहां निशाना लगा सकते थे. उनके पास हमेशा तीर और धनुष रहते थे.
साहिबां के घरवालों को दोनों के प्यार की खबर लगी और जैसा की होता आया है, साहिबा के घरवालों ने इस प्यार का विरोध करना शुरू कर दिया. गुस्से में आकर उन्होंने मिर्ज़ा को घर से निकाल दिया और दोनों को अलग कर दिया. साहिबां का रिश्ता भी उन्होंने किसी दुसरे जगह तय कर दिया. साहिबां ने अपने शादी की खबर मिर्ज़ा तक पहुँचाई. मिर्ज़ा साहिबा को लेंने घर से निकल पड़े. घर से निकलते समय मिर्ज़ा के पिता ने मिर्ज़ा को आदेश दिया कि तुम जा रहे हो तो साहिबां को साथ लेकर ही घर लौटना वरना घर न आना. मिर्ज़ा अपने घोड़े पर सवार साहिबा को लेने चल दिए.
शादी वाले दिन ही मिर्ज़ा साहिबां को उसके घरवालों से दूर भगा के ले गए. जैसे ही उन दोनों के भागने की भनक साहिबा के पिता और भाई को लगी, वो सब भी उनका पीछा करने निकल पड़े. मिर्ज़ा बहुत दूर तक जब आ गए तब वो एक पेड़ के नीछे सुस्ताने के लिए रुके. साहिबां ने हालाँकि मिर्ज़ा से कहा की वो चलते रहे लेकिन मिर्ज़ा अपनी ताकत जानते थे, कि अगर वो आराम कर के थोड़ी देर बाद भी निकले तब भी उनको कोई पकड़ नहीं सकता था. वो दोनों वहीँ पेड़ के नीचे आराम करने लगे. साहिबा को डर था कि कहीं उसके भाई पीछा करते हुए यहाँ तक न आ जाएँ. वो ये जानती थी की मिर्ज़ा एक शूरवीर हैं और अगर उसके भाई ने उनपर हमला किया तो मिर्ज़ा उसके भाइयों को और उसके पिता को अपने तीरों से मार डालेंगे. जब मिर्ज़ा सोये हुए थे तब अपने भाइयों की रक्षा के लिए सहीबा ने मिर्ज़ा के सभी तीरों को एक एक कर के तोड़ दिया बस एक तीर को उसने रहने दिया. साहिबां ने उम्मीद की थी कि उसके भाई मिर्ज़ा को माफ़ कर देंगे, लेकिन जैसे ही उसके भाइयों ने मिर्ज़ा को देखा उन्होंने मिर्ज़ा के गले में तीर चला कर उसे वहीँ मार डाला. साहिबां-मिर्ज़ा पंजाब की शायद आखिरी वैसी प्रेम कहानी है जो काफी प्रचलित है.
मिर्ज्या फिल्म के डायरेक्टर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने साहिबां-मिर्ज़ा की कहानी करीब पैतीस साल पहले किसी प्ले के दौरान पहली बार जाना था. तब से ही ये कहानी उनके ज़हन में बस कर रह गयी थी. वो कहते हैं कि एक सवाल जो उनके मन में बहुत पहले से रह गयी थी वो ये कि साहिबां अगर मिर्ज़ा को इतना चाहती थी तो उसने तीरों को क्यों तोड़ा और अपने परिवार की रक्षा के लिए मिर्ज़ा की कुर्बानी क्यों दी? वो कहते हैं कि यही सवाल लेकर मैं गुलज़ार साहब के पास पहुँचा. गुलज़ार साहब का जवाब था – “बच्चे, मैं नहीं जानता. तुम साहिबां से ही क्यों नहीं पूछते”. और फिर गुलज़ार साहब ने कहा कि चलो मिलकर इस सवाल का जवाब ढूँढते हैं.
मैं ये तो नहीं कहूँगा की वे दोनों इस सवाल के जवाब ढूँढने में कामयाब हो गए हैं क्यूंकि फिल्म में कहीं कहीं बहुत बातें फिर भी स्पष्ट नहीं लग रही थी और कहीं भी इस सवाल का जवाब नहीं मिला. मिर्ज्या की कहानी थोड़ी कमज़ोर है लेकिन मिर्ज्या एक विश़ूअल और पोएटिक मास्टरपीस है. गुलज़ार साहब ने इस फिल्म की कहानी को कहने के लिए अलग अलग नेरैशन का इस्तेमाल किया है,चाहे वो विसुअल नेरैशन हो या दलेर मेहँदी की आवाज़ में नज्में या लोक-गीतों के जरिये नेरैशन करने की कोशिश हो. कुछ कुछ सीन इस फिल्म में कमाल के बने हैं. बहुत कम ऐसे दृश्य हिन्दी फिल्मों में देखने को मिलते है. इस फिल्म में दो कहानियाँ पैरेलल चल रही हैं. एक मिर्ज़ा-साहिबा की पुरानी प्रेम कहानी और उसी कहानी का एक नया रूप मुनीश और सुचित्रा की प्रेम कहानी. दोनों कहानियाँ अलग अलग समय में कही गयी है और दोनों पैरेलल चल रही है. राकेश ओमप्रकाश मेहरा दो अलग अलग टाइमफ्रेम की कहानी को पैरेलल चलाने में माहिर हैं, फिर चाहे वो रंग दे बसंती हो या भाग मिल्खा भाग.
फिल्म में जो मिर्ज़ा-साहिबा की पुरानी कहानी दिखाई गयी है उसे पोलिश सिनेमेटोग्राफर पावेल डायलस ने बेहद खूबसूरती से दिखाया है. मिर्ज़ा सहीबा की कहानी को विसुअली नेरैट करने की कोशिश की गयी है. ये विसुअल नैरेसन भी खूबसूरत दिख रहा है. मिर्ज़ा-साहिबां की जो पुरानी कहानी है उसके सीन कमाल के हैं. वहीँ मिर्ज़ा-साहिबा की प्रेम कहानी जो मुनीश-सुचित्रा की कहानी के रूप में दिखाया गया है उसे गुलज़ार साहब की नज्में नैरेट करने की कोशिश करती है. हाँ फिल्म की कहानी और पटकथा थोड़ी कमज़ोर जरूर है, लेकिन विसुअल और पोएटिक पक्ष बेहद मजबूत. पहले हाफ में फिल्म की गति काफी धीमे है, दुसरे हाफ में फिल्म अपनी रफ़्तार पकड़ लेती है. फिल्म का निर्देशन थोड़ा कमज़ोर है. आम तौर पर जैसी फिल्मों के लिए राकेश ओमप्रकाश मेहरा जाने जाते हैं वैसा निर्देशन नहीं है. फिल्म संगीत लेकिन कमाल का है. एक तरह से कहा जाए तो इस फिल्म में संगीत कहानी को आगे ले जाने का काम भी करती है. जिस तरह का हर गाने का फिल्मांकन किया गया वो बेहद ही खूबसूरत. अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर ने अच्छा अभिनय किया है, वहीँ नायिका के रूप में सायमी खेर थोड़ी कमज़ोर दिखीं.
नज्में –
फिल्म का ये सबसे खूबसूरत और मजबूत पक्ष है. गुलज़ार साहब ने चुन चुन कर इस फिल्म में नज्में डाली हैं. गाने भी फिल्म के सभी शानदार हैं. राजस्थानी और पंजाबी फोक गीतों का भरपूर रस मिलेगा इस फिल्म में आपको. फिल्म शुरू होती है इस खूबसूरत नज़म से जिसे बेहद खूबसूरती से फिल्माया भी गया है –
लोहारों की गली है ये
गली है लोहारों की
हमेशा दहका करती है
यहाँ पर गर्म लोहा जब पिघलता है
तब सुनहरी आग बहती है
कभी चिंगारियाँ उठती हैं भट्टी से
कि जैसे वक़्त मुट्ठी खोल कर
वक्त मुट्ठी खोल कर लम्हे उड़ाता है.
सवारी मिर्जा की मुड़ कर यहीं पर लौट आती है.
लोहारों की गली फिर किस्सा साहिबां का सुनाती है.
सुना है दास्ताँ उनकी गुजरती एक गली से
तो हमेशा टापों की आवाजें आती हैं
ये वादियाँ दूधियाँ कोहरे की
इनमे सदियाँ बहती हैं
मरता नहीं इश्क-ओ-मिर्ज़ा
सदियाँ साहिबां रहती हैं.
और फिर दलेर मेहँदी की आवाज़ में शुरू होता है ये खूबसूरत गीत
औरा दे हत्थी बर्चियाँ
मिर्जे दे तीर कमान
ओह देखो किंवे औंदा
मेरा मिर्ज़ा शेर जवान
फिल्म में हर जगह नज्में हैं और गीतों के माध्यम से इसे और खूबसूरत बनाया गया है. जैसे जब मुनीश-सुचित्रा की कहानी में मोड़ आता है तो ये खूबसूरत नज़्म सुनने को मिलता है –
होता है अक्सर
इश्क में अक्सर होता है
चोट कहीं लगती है जाकर
ज़ख्म कहीं पर होता है
सूरज से जलता है फलक
और दाग ज़मीन पर होता है
इश्क में.
फिल्म का एक एक गीत सुन्दर है और अपने आप में नायब. “एक नदी” गीत जिसमें आज के दौर के साहिबां यानी सुचित्रा को दो प्रेमियों के बीच कशमकश में दिखाया गया है, बेहद ख़ूबसूरती से लिखा और फिल्माया गया है.
एक नदी थी दो किनारे
थाम के बहती थी
एक नदी थी.
कोई किनारा छोड़ न सकती थी
एक नदी थी..
तोड़ती तो सैलाब आ जाता
करवट ले तो सारी ज़मीन बह जाती
जहाँ नज्में इस फिल्म का सबसे मजबूत पक्ष हैं वहीँ गाने भी बेहद ख़ूबसूरती से लिखे गए हैं. आज के दौर के मिर्ज़ा यानी मुनीश जब सुचित्रा को भगा ले जाता है, मिर्ज़ा की तरह घोड़े पर नहीं बल्कि अपननी मोटरसाइकिल से तब ये खूबसूरत गाना सुनने को मिलता है
आकाश के पार अब कुछ नहीं
आकाश ते तू और मैं
तीन गवाह हैं इश्क के
एक रब है, एक तू और एक मैं.
आखिर में जब मिर्ज़ा-साहिबां की कहानी का अंत होता है, यानी जब मिर्ज़ा जब नींद से उठते हैं और अपने तीरों को टूटा पाते हैं, उसी समय साहिबां के भाई मिर्ज़ा पर तीरों की बरसात कर देते हैं, ये नज़्म सब कुछ बयां करती है –
फा पाए ना इश्क दा
ऐ रस्सी लम्मी मिर्जया
हो साहिबान ते ना लभनी
हो साहिबान ते ना लभनी
तू फेर ना जम्मी मिर्जया
हो मिर्जया
तू फेर ना जम्मी मिर्जया
ओ लहू-लुहान ज़मीन हुई
और ताम्बा हुआ आकाश
सर से बहता रहा लहू
और हलके हुवे हवास
मुनीश-सुचित्रा की कहानी भी वैसे ही अंत होती है जैसे मिर्ज़ा-साहिबां की कहानी का अंत होता है, हाँ यहाँ पर कहानी को थोड़ी अलग ले जाने की कोशिश की गयी है. यहाँ भी मुनीश-सुचित्रा की कहानी का अंत के बाद ऊपर वाली नज़्म फिर से दोहराई जाती है.
फिल्म में जितनी भी नज्में गाई गयीं हैं वो सभी दलेर मेहँदी की आवाज़ में है, और एक दो खुद गुलज़ार साहब की आवाज़ में. फिल्म खत्म होती है एक खूबसूरत नज़्म से –
ये वादियाँ दूधियाँ कोहरे की
इनमे सदियाँ बहती हैं
मरता नहीं इश्क-ओ-मिर्ज़ा
सदियाँ साहिबां रहती हैं.
मैं ये तो नहीं कहूँगा कि मिर्ज्या एक बेहतरीन फिल्म है. गुलज़ार साहब और राकेश ओमप्रकाश मेहरा की बाकी फिल्मों की तुलना में मिर्ज्या बेहद कमज़ोर है लेकिन एक बहुत अच्छी और कुछ अलग करने की कोशिश जरूर की गयी है फिल्म में. बहुत से लोग ये भी शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें फिल्म समझ में नहीं आई. वो शायद इसलिए कि वो मिर्ज़ा-साहिबां की कहानी से अनजान हैं और मिर्ज़ा-साहिबां की जो पुराने समय की कहानी फिल्म में चल रही है उसमें एक भी संवाद नहीं है सिर्फ विसुअल नैरेसन है. लेकिन अगर आप नज्मों का शौक रखते हैं, कवितायें पसंद हैं और कुछ अलग हट कर फिल्म देखना चाहते हैं तो ये फिल्म आपके लिए है. हम जैसे गुलज़ार साहब के चाहने वाले तो इसी बात से खुश हैं कि उन्होंने इस फिल्म के जरिये फिर से वापसी की है.
देखा नहीं… देखना है… गुलज़ार साहब की नज्मों की ख़ातिर..!
कहानी नहीं जम रही हमें तो। गुलज़ार साहब की नज़्में ऑडियो में सुन लेंगे।
कहानी नहीं जम रही हमें तो। गुलज़ार साहब की नज़्में ऑडियो में सुन लेंगे।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "पहचान तो थी – पहचाना नहीं: सन्डे की ब्लॉग-बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
देखना तो पड़ेगा ही.
अलग सी लग रही है प्रेम कहानी, तीर तोडने की बात जमी नही कुछ.
Dekhna Abhi Baki hai