मोरा गोरा रंग लई ले – मेकिंग ऑफ़ अ सोंग(३)

nutun bandiniमोरा गोरा रंग लई ले इस गीत का जन्म वहाँ से शुरू हुआ जब विमल-दा (बिमल राय) और सचिन-दा (एस.डी.बर्मन) ने ‘सिचुएशन’ समझाई.कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन विकास (अशोक कुमार) को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर गुनगुनाती हुई बाहर निकल आई.
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“ऐसा ‘करेक्टर’ घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता”, बिमल-दा ने वहीं रोक दिया.
“बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी ?”  सचिन-दा ने पूछा.
बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती ?” बिमल-दा ने दलील दी।
“यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है.”

तो कविता लिखो. वह कविता गाएगी.””गाना घर में घुट जाएगा.”
“तो आँगन में ले जाओ. लेकिन बाहर नहीं गाएगी.””बाहर नहीं गाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा”, सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी.
कुछ इस तरह से ‘सिचुएशन’ समझाई गई मुझे. मैंने पूरी कहानी सुनी, देबू से. देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंस थे. सरन से वैष्णव कविताएँ सुनीं जो कल्याणी बाप से सुना करती थी. बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक़्त है, बाहर जाते डरती है, चाँदनी रात है कोई देख न ले. आँगन से आगे नहीं जा पाती.
सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया : चाँदनी रात में डरती है, कोई देख न ले. बाहर तो चली आई, लेकिन मुड़-मुड़के आँगन के तरफ़ देखती है.
दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है.
सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई :
ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहल बोल यही थे. पंचम ने थोड़ा से संशोधन किया :
ददद दा ददा दा
सचिन-दा ने पिर गुनगुनाकर ठीक किया :
ललल ला ददा दा लला ला
गीत की पहली सूरत समझ में आई. कुछ ललल ला और कुछ ददद दा- मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा. जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूँ :
तता ता ततता तता तासचिन-दा कुछ देर हारमोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की. टूटे-टूटे शब्द आने लगे :
दो-चार…दो-चार…दुई-चार पग पे आँगना-
दुई-चार पग….बैरी कंगना छनक ना-
ग़लत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए :
बैरी कगना छनक ना
मोहे कोसो दूर लागे
दुई-चार पग पे अँगना-
सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूँ धुन की बहर हाथ में आ गई.
चला आया. गुनगुनाता रहा. कल्याणी के मूड को सोचता रहा. कल्याणी के खयाल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हाँ, एक बात ज़िक्र के काबिल है. एक ख़याल आया, चाँद से मिन्नत करके कहेगी :

मैं पिया को देख आऊँ
जरा मुँह फराई ले चंदा

फौरन ख़याल आया, शैलेन्द्र यही ख़याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :

दम-भर के जो मुँह फेरे-ओचंदा—
मैं उन से प्यार कर लूँगी
बातें हजार कर लूँगी

कल्याणी अभी तक चाँद को देख रही थी. चाँद बार-बार बदली हटाकर झाँक रहा था, मुस्करा रहा था. जैसे कह रहा हो, कहाँ जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूँगा. सब देख लेंगे. कल्याणी चिढ़ गई. चिढ़के गाली दे दी :

तोहे राहू लागे बैरी
मुसकाई जी जलाई के

चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई. सोचा, वापस लौट जाऊँ. लेकिन मोह, बाँह से पकड़कर खींच रहा था. और लाज, पाँव पकड़कर रोक रही थी. कुछ समझ में नहीं आया, क्या करे ? किधर जाए ? अपने ही आप से पूछने लगी :

कहाँ ले चला है मनवा
मोहे बावरी बनाई के

गुमसुम कल्याणी बैठी रही. बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती. इतनी चाँदनी न होती. या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चाँदनी में छलक-छलक जाती. अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढँकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती. लौट आयी बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई. यही गुनगुनाते :

मोरा गोरा रंग लई ले

मोहे श्याम रंग दई दे

आज उनके जन्मदिन के मौके पर उनकी इस साल की कैलेंडर नज्में आप सब के साथ साझा कर रहा हूँ, हालांकि अब साल आधा गुज़र चूका है, फिर भी. २०१० की कैलेंडर नज्में आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं.इस कैलेण्डर को आप अगर चाहें तो यहाँ या यहाँ जाकर डाउनलोड भी कर सकते हैं.
जनवरी:
खबर तो आई थी की होंट लाल थे उनके 
‘बनारसी’ था कोई दांतों में चबाया गया! 
फरवरी :
खबर तो सब को थी की चूड़ियाँ थी बाहों में 
न जाने क्या हुआ कुछ रात ही को टूट गई!
मार्च :
वो वादा था कोई भूखा नहीं रहेगा कहीं 
वो वादा देखा है अखबार में लपेटा हुआ!
अप्रैल :
असली रोकिट थे, बारूद भरा था उनमे 
ये तो बस ख़बरें हैं और अखबारें हैं!
मई :
फली फूलीं रहे जेबें तेरी, और तेरे बटवे 
इन्ही उम्मीद की ख़बरों से हम भरते रहेंगे!
जून :
खबर थी वोट में कुछ नोट भी चले आये 
सफ़ेद कपड़ों में सुनते हैं, ‘ब्लैक मनी; भी थी
जुलाई : 
ख़ुफ़िया मीटिंग की हवा भी न निकलती बाहर 
एक अखबार ने झाँका तो खबर आई है!
अगस्त :
इसी महीने में आज़ादी आई थी पढ़ कर 
कई किताबों ने अखबार ही लपेट लिये!
सितम्बर :
हवा से चलती है लेकिन हवा नहीं देती 
खबर के उड़ने से पहले भी ये खबर थी हमें!
अक्टूबर : 
धुप में रखी थी मर्तबान के अन्दर 
आचार से ज्यादा चटपटी खबर मिली!
नवम्बर :
कुछ दिन भी सर्दियों के थे और बर्फ पड़ी थी 
ऐसे में इक खबर मिली तो आग लग गई !
दिसम्बर :
जैसी भी गुजरी मगर साल गया. यार गया
‘बीच’ पर, उड़ता हुआ, कल का वो अखबार गया!
और अब एक ‘रेअर’ गाना, गुलज़ार साहब का लिखा और संगीत पंचम दा का, फिल्म भरोसा से…
कैसे देखूं मेरी आँखों के बहुत पास हो तुम 
तुमको महसूस ही करता हूँ की अहसास हो तुम 
महके रहते हो मेरी जिस्म में, देखूं कैसे 
कोई उम्मीद हो जैसे कोई विश्वास हो तुम 
कैसे देखूं मेरी आँखों के बहुत पास हो तुम…
तुमको छूने से घनी छाँव का मस्स मिलता है 
और होटों से कटे चाँद का रस मिलता है..
ढूँढ़ते रहने से मिलता नहीं कोई तुमसा
तुमसा मिल जाए तो किस्मत ही से बस मिलता है.. 
महके रहते हो मेरी जिस्म में, देखूं कैसे..
गूंजती रहती हो तुम साँसों में खुशबु की तरह 
और आँखों से हंसीं चेहरा पढ़ा करते हैं 
हमने तो आँखों से अब सुनने की आदत कर ली 
और होटों से तेरे साँस गिना करते हैं..
महके रहते हो मेरी जिस्म में देखूं कैसे..
कोई उम्मीद हो जैसे कोई विश्वास हो तुम 
कैसे देखूं मेरी आँखों के बहुत पास हो तुम 
तुमको महसूस ही करता हूँ की अहसास हो तुम 
Meri Baatein
Meri Baateinhttps://meribaatein.in
Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. मंजिल जितनी खूबसूरत होती है, उससे कहीं ज्यादा सुन्दर होती है राह!
    गीत तक का सुन्दर सफ़र साझा किया, आभार!

    गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर बेहद सुन्दर प्रस्तुति!

  2. ये हुआ न सही सेलीब्रेशन…………….
    शुक्रिया अभि………………दिल से शुक्रिया!!!

    सस्नेह
    अनु

  3. पता था कुछ ख़ास ज़रूर मिलेगा आज यहाँ… आ के निराश नहीं हुई 🙂
    शुक्रिया अभि इस खूबसूरत गाने के पीछे की इतनी इंटरेस्टिंग कहानी साझा करने के लिये… गुलज़ार यूँ ही गुलज़ार रहें सदा !

  4. बहुत सुन्दर, सार्थक एवं रोचक लेखन .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (19.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .

  5. मैं जब ये पोस्ट कर रहा था, तो मैंने सोचा ही था की आपतक इसका लिंक पहुंचाऊंगा! लेकिन आपने तो खुद ही पढ़ लिया! 🙂

  6. आज तो यादें का पिटारा ही खोल दिया … गुलज़ार साहब से जुडी लाजवाब …. यादगार बातें … आभार इतना कुछ साझा करने के लिए…

  7. गुलजा़र जी के गीतों का उनके अनूठे प्रयोगों का कोई सानी नही है । यह गीत पहली बार सुना है । गुलजार जी लताजी और बर्मन दा की त्रिवेणी तो अद्भुत होती है । आँधी के गीतों को कौन भूल सकता है ।

  8. गुलज़ार के पास पहुँच कर शब्द अपने आप को व्यक्त करने के लिये व्यग्र होने लगते हैं।

  9. आपकी इस पोस्ट को आज के शुभ दिन ब्लॉग बुलेटिन के साथ गुलज़ार से गुल्ज़ारियत तक पर शामिल किया गया है….

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