छत की बातें

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मैं सबसे ज़्यादा बैंगलोर में जो मिस करता हूँ, वो है घर की छत पर बीती शाम। अब बैंगलोर में जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ वैसी कोई जगह नहीं है जहाँ छत का आनंद लिया जा सके। हमारे एक सीनियर दोस्त ने कुछ दिन पहले अपना घर चेंज किया। तो इस संडे, उन्हीं के घर पर शाम बिताई। जब पता चला कि ऊपर छत भी अपनी ही है, यानी कोई रोक-टोक नहीं है छत पर जाने की, तो मन मचल उठा छत पर जाने के लिए।

संडे का दिन था। तय ये हुआ था कि शाम को कहीं बाहर घूमने जाएंगे। लेकिन जब छत की बात पता चली, तो फिर कहाँ घूमने का दिल करेगा। मैंने भी अपने दोस्त से कहा, “चलिए सर, छत पर ही आज की शाम बिताई जाए। घूमना-फिरना तो होता रहेगा। इसी बहाने बीते दिनों की कुछ यादें भी ताज़ा हो जाएंगी।”

पटना में नानी के घर पर छत का मज़ा आता था। गर्मी के दिनों में, जब लाइट अक्सर शाम में कटी रहती थी, तो पूरा परिवार या तो छत पर होता था या फिर बाहर बरामदे में। हम बच्चे छत पर ही क्रिकेट और कित-कित खेलते रहते थे। (हँसिए मत ये सुनकर कि मैं भी कित-कित खेलता था। वैसे तो ये लड़कियों वाला खेल है, लेकिन मैं भी खूब खेलता था :P)। उस समय न तो केबल चैनल का किसी को शौक था और न ही ज़िंदगी में उस दर्जे की व्यस्तता थी।

शाम का नाश्ता से लेकर चाय-पानी तक छत पर ही होता था। फिर अगर रात में लाइट चली गई तो सोना भी छत पर ही होता था। गर्मी के दिनों में छत पर सोने से अच्छा अनुभव कुछ और नहीं। ठंडी हवा चलती रहती थी और नींद भी मस्त आती थी। सुबह नींद भी जल्दी टूट जाती थी और बड़ा फ्रेश-फ्रेश महसूस होता था। 🙂

सर्दियों के दिनों में तो छत की अहमियत और बढ़ जाती थी। सुबह जैसे ही धूप निकलती, सभी छत पर मौजूद हो जाते। बड़े-बुजुर्ग अख़बार पढ़ने में व्यस्त रहते और छोटे बच्चे खेलने में। सुबह का नाश्ता, चाय, यहाँ तक कि दोपहर का खाना भी छत पर ही होता था।

एक तरह से देखा जाए तो पहले दिल बहलाने का एक ज़रिया भी हुआ करता था छत। शाम को अगर दिल नहीं लग रहा तो छत का चक्कर मारकर आइए। मन बिलकुल फ्रेश हो जाता था।

जब इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए मुझे पटना से बाहर आना पड़ा, तो सोच रहा था कि पता नहीं कैसा हॉस्टल मिलेगा, कैसे लोग होंगे, आदि। हमारा जो इंजीनियरिंग हॉस्टल था, वह कॉलेज हॉस्टल ही था लेकिन कॉलेज से दूर। हॉस्टल जैसा कम और प्राइवेट होम जैसा ज़्यादा लगता था।

सुकून यह मिला कि उस हॉस्टल में भी छत थी, जहाँ हम सारे दोस्तों ने कमाल का वक्त बिताया। पूरे इंजीनियरिंग में हमने तीन घर बदले। और खुशी की बात यह थी कि तीनों घरों में छत थी।

हमारे एक करीबी मित्र हैं आशीष। वह मेरे साथ अक्सर छत पर घूमा करते थे। एक और मित्र हैं संकल्प जी। हम तीनों कभी-कभी रात-रातभर छत पर बैठे गप्पें मारते रहते थे। ऐसा कुछ लगाव हो गया था छत से कि हर रात खाना खाने के बाद एक घंटा अगर छत पर बिताता नहीं, तो कुछ खाली-खाली सा महसूस होता था।

बैंगलोर आए मुझे तीन साल हो गए, लेकिन अब भी कभी-कभी यह ख्याल आ ही जाता है कि अगर कोई छत होती तो कितना अच्छा वक्त बीतता। ऐसे में बैंगलोर में एक छत मिल जाना बहुत अच्छी बात हुई।

संडे की शाम तो अच्छी बीती ही, लेकिन उससे भी अच्छा रहा सोमवार का दिन। सोमवार को ऑफिस नहीं गया था, तो उन्हीं सीनियर के घर चला गया। वहाँ दोपहर का खाना बन ही रहा था कि लाइट चली गई। अब उनका घर ऐसा है कि अगर अच्छी-खासी रौशनी न हो तो अंधेरा-अंधेरा सा दिखता है। तो हमने तय किया कि चलो, छत पर खाना खाया जाए।

बैंगलोर के मौसम ने भी हमारा भरपूर साथ दिया। धूप तो थी ही नहीं, बारिश का सीन बन रहा था, तो बादल कुछ छाए हुए थे। ऐसे में डर भी लग रहा था कि अगर खाना खाते-खाते पानी आ गया तो क्या होगा। लेकिन हमने जब मूड बना लिया, तो वह कहाँ बदलने वाला था।

खाना लेकर छत पर पहुँच गए। खाना खाने का आनंद तो आया ही, लेकिन सबसे ज़्यादा आनंद आया खाना छत पर खाने का। खुली हवा में छत पर आराम से नीचे बैठकर खाना खाने का स्वाद बिलकुल अलग था।

अब समय के साथ-साथ छत के भी अर्थ बदल रहे हैं। लेकिन हमें तो पुराने ज़माने का वो सुकून ही ज़्यादा भाता है, जब घर के सभी लोग एक साथ छत पर शाम बिताते थे।

सच में, छत पर बिताए हर पल अनमोल होते हैं। 🙂

  1. ओह, तो तुम भी सोमवार को दफ्तर नहीं गए थे.. मैं भी नहीं गया..

  2. आजकल त छत कहीं देखने को नहीं मिलता है, छत के जगह छतरी (टाटा स्काई, डिश टीवी) देखाईदेता है , हम त पटना में भी एंजॉय करते हैं अऊर नोएडा में भी… हमरा लड़िकाई इयाद दिला दिए…हमहूँ कित कित अऊर एक्खट दुक्खट बहुत खेले हैं… लेकिन आज तुमरा संडे मंडे का चर्या सुनकर त गुरुजी का गाना इयाद आ गया, तुमको भी अगाना चाहिए थाः
    या गर्मियों की रात जो
    पुरवाइयाँ चलें
    ठण्डी सफेद चादरों पे
    जागे देर तक.
    तारों को देखते रहे
    छत पर पड़े हुए… दिल ढूँढता है, फिर वोही, फ़ुर्सत के रात दिन.

  3. छत का किस्सा तुमने खूब सुनाया दोस्त! मुझे भी अपनी छत से बहुत लगाव था.. उसपर टहलते हुए किताबे पढना… कहानिया गुथना.. और नज़्मो को कहना.. एक एकान्त सा होता था और खुद से ढेर सारी बाते होती थी..
    बाद मे शायद उतने मन से मै कभी इसलिये भी नही पढ पाया क्यूकि कही छत नही मिली 🙂 और अन्धेरे मे छत पर कैन्डिल लिट डिनर.. वो स्ट्रगल के दिन थे.. मुझे याद है हम तीन दोस्त थे.. खाने के नाम पर खिचडी बनायी थी लेकिन बगल वाली लडकियो के सामने स्टैन्डर्ड न डाउन हो इसलिये हम कहते रहते थे कि अबे मशरूम बडे अच्छे बनाये आज.. 🙂 जब सब कुछ खा पीकर सोये थे तो हम तीनो एक ही गाना गा रहे थे..

    ना उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बन्धन
    जब प्यार करे कोई तो देखे केवल …

    तीनो के मुह से तीन अलग शब्द निकले थे.. तन.. मन.. धन.. मैने ’मन’ ही बोला था 😉

  4. aapne to ara ki yaad dila di…jab garmi ki raat me chat per sote aur taare dekhte dekhte kab need aa jati pata bhi nahi chalta…aksar raat me hum sare bhai bahan( kai baar to maa papa tai tau) sab mil kar ghanto antakshri khelte…us raat ke andhere me ek dusre ko darate bhi khub the…sab kuch yaad dila diya aapne…neem ke niche kitkit khelna,jade ki sunahri dopahr, exam ke dino me ghanto chat per tahl kar padhna, charo or faili ons ki bunde, barish me bhigna,chhat me patang udana aur katne per use pakadne ke daud lagana, kabbdi badmintan pakdam-pakdai sab khub khele chat per…ufff kitna likhu ab to aur jyada miss kar rhi hu i wish mai jaldi ja pau ara kafi din ho gye gye huye ab….

  5. ek baat to batana hi bhool mera chat tisri manjil per hai so ek baar chcht aane se pahle humne uper chat per hi ek choti si jhopadi banane ki sochi taki wahan apne sare patang latai waigarah store kar sare…inte niche aangan me pade the so humne ek choti se tokari me lambi si rassi bandi aur niche se inte chat per laane shuru kar diye…jab kafi sare inte ikkathe ho gye fir humne ek sundar si jhopadi banayi wo bhi mitti se into ko jod kar…ye sari kuch aisi khubsurat yaade hai jo tazindgi hume muskan deti rahegi…ab to aaj aapne mujhe pura ara ke rang me rang diya saare din miss karugi apna ghar….

  6. हमें भी बहुत कुछ याद आया अभिषेक जी 🙂
    पहले हम जब राजेन्द्र नगर के घर में रहते थे तो वहां हम भी पूरी शाम छत पे बिताया करते थे.मेरी बहन स्मृति,आँचल और मैं..हम तीनो शाम में कॉलेज की गोसिप करते थे छत पे 😉
    और न जाने कितने ऐसे पल थे :-))

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