नोट्स फ्रॉम डायरी
- २९ नवम्बर २०१७
आज बड़े दिन बाद नए जूते लिए.. जूतों के मामले में मैं बाकी लोगों से थोडा आलसी किस्म का हूँ. जब तक जूते पूरी तरह से बेकार, टूट फट न जाए या फिर एकदम पुराने नहीं हो जाते, मैं उन्हें बदलने की ज़हमत नहीं उठाता. हालाँकि, जूतों का ख्याल मैं भरपूर रखता हूँ. बचपन में एक कहानी पढ़ी थी, एक पब में एक चौकीदार को बैठा दिया गया था और उसे कह दिया गया कि यहाँ सिर्फ शरीफ लोगों को आने की इजाज़त देना. उस चौकीदार ने लोगों के शराफत पहचानने का पैमाना जूते रखा था. उसका मानना था कि जूते से आदमी की पहचान होती है. जाने क्यों बचपन की वो कहानी मन में रह गयी. उस समय से जूतों का मैं ख़ास कर के ख्याल रखने लगा, शायद इसलिए मेरे जूते चाहे एक दो साल पुराने भी हो जाए, लेकिन वो अच्छे कंडीशन में ही मिलेंगे आपको.
हालाँकि बचपन में मेरी ऐसी सोच नहीं थी. बचपन में हम तो चाहते थे कि जूते का बड़ा रफ एंड टफ इस्तेमाल किया जाए जिससे वो तुरंत फट जाए या टूट जाए, ताकि हमें नए जूते फिर से मिल जाए. अब पापा-माँ की सोच तो उस तरह की थी न कि, किसी भी अच्छे ब्रांड(जैसे बाटा या लिबर्टी) का जूता दिला दिया जाए बच्चों को जिससे वो जूते ज्यादा दिन चल सके, तो हमें वो वैसे ही ब्रांडेड जूते दिलाये जाते थे. पापा-माँ तो खुश हो जाते थे ये सोच कर कि उन्होंने हमें नए ब्रांडेड जूते दिलवा दिए हैं, लेकिन हम ब्रांडेड जूते लेकर ज्यादा खुश नहीं होते थे. मतलब खुश इस बात से होते थे कि ब्रांडेड जूते हैं, लेकिन दुःख इस बात का ज्यादा होता था, ये ब्रांडेड हैं यानी कि जूते फटेंगे नहीं.. तो नए जूते नहीं आयेंगे तो हमें नया जूता कैसे मिलेगा पहनने को? वही पुराना जूता एक डेढ़ साल चलाना पड़ेगा. हमें तो चाहिए था हर छः महीने में एक नया जूता..ताकि स्कूल में शोऑफ किया जा सके. अब ऐसे में हमारे पास सिर्फ दो स्कोप बचता था, या तो भगवान से ये प्रार्थना करें कि वो जल्दी से हमारे पैरों का नाप बढ़ा दे जिससे फिर से नए जूते मिल सके हमें या तो जूतों से जब मन भर जाए तो जबरदस्ती उसे चीर-फाड़ दिया जाए. अब पैरों का नाप बढ़ना तो हमारे हाथ में था नहीं, और एक समय के बाद पैरों का नाप बढ़ना मुश्किल हो जाता है, तो हम अक्सर ऐसी कोशिश करते थे जूते को पुराना कर उसे कटने और फटने पर मजबूर कर दिया जाए.
अक्सर हम क्रिकेट खेलने या ऐसे ही दौड़ने भागने में लेदर के जूते पहन कर जाते थे, सोच ये थी उस समय हमारी.. कि हो सकता है ऐसे इस्तेमाल से जूते जल्दी फट जाए. घर में वैसे डांट तो सुनते थे, कि चमड़े का जूता पहन कर खेलोगे तो ख़राब हो जायेंगे. लेकिन हम तो यही चाहते थे न. बहुत बच्चों के साथ ये हथकंडा काम भी कर गया था, लेकिन मेरे साथ एक बार भी नहीं.
वैसे अगर बाय-चांस जूते फट गए या पैरों के नाप बढ़ गए हमें तो भी हमें जूते खरीदने बाज़ार नहीं ले जाया जाता था. पापा-माँ ही बाज़ार से जूते ले आते थे. पापा हमारे पैरों का नाप एक कागज़ पर ले लेते थे जिससे हमारे पैरों के नाप के अनुसार ही जूते आये. पैरों का नाप कागज़ पर लेने का ये तरीका कमाल का था, जिसमें एक कोरे कागज़ पर पैर रख कर पेन या पेन्सिल से पैरों को आउटलाइन कर के कागज़ पर नाप ले लिया जाता था और दूकान वालों को वही कागज़ दिखा कर उस नाप के जूते ले लिए जाते थे…जाने किसने इजाद किया था ये तरीका, हम सभी बच्चों का दुश्मन था ये तरीका और लगभग सभी पैरेंट्स इस तरीका को इस्तेमाल करते थे. पैरेंट्स खुश होते थे कि चलो बच्चों को बाज़ार नहीं ले जाना पड़ेगा जूते लेने, लेकिन हम बच्चे मायूस हो जाते थे, कि फिर से पापा-माँ अपने टाइप का ओल्ड-फैशन टिकाऊ जूते ले आयेंगे और हमें पहनने पड़ेंगे.
उस समय जूते में ज्यादा वैरायटी होती भी नहीं थी. आज के बच्चों के पास तो इतने बड़े बड़े ब्रांड का आप्शन है, लेकिन हमारे पास मुश्किल से तीन चार ब्रांड का ही आप्शन था. चमड़े का जूता लेना हो तो फिर बाटा या लिबर्टी, और अगर स्पोर्ट्स शूज लेना हूँ तो फिर एक्सन.
बचपन में एक्सन शूज का बड़ा क्रेज था हमें. टीवी पर एड भी बड़ा शानदार आता था… सचिन तेंदुलकर एक्शन जूतों का प्रचार करता था, और एड में उसे बच्चे ‘एक्शन मैन’ कह कर बुलाते थे. हमें लेकिन एक्सन शूज लेने में बड़ा इंतजार करवाया जाता था. जल्दी खरीदाये नहीं जाते थे ऐसे स्पोर्ट्स शूज हमें. बहुत बच्चों के पास तो स्पोर्ट्स शूज के नाम पर कपड़े वाले सफ़ेद पीटी शूज ही होते थे. मेरे साथ भी छठी या सातवीं क्लास तक यही बात थी.
शायद सातवीं क्लास में था मैं, जब पहली बार पापा मुझे स्पोर्ट्स शूज खरीदवाने दूकान में ले गए थे. पटना के राजा बाज़ार के एक दूकान में गए थे हम. मजे की बात ये है कि अब तक मुझे वो दूकान साफ़ तौर पर याद है. उन दिनों वो दूकान पटना के राजा बाजार का आखिरी दूकान हुआ करता था, उस दूकान के बाद कुछ दूर सुनसान रास्ता और फिर आशियाना नगर जाने का मोड़ आता था. उस दूकान में गए तो थे हम थे एक्सन का नया जूता खरीदने. सचिन एक्शन के सिनर्जी जूतों का खूब प्रचार करता था, और हम ठहरे सचिन के भक्त. तो वही जूता खरीदना था हमें. लेकिन दुकानवाले को पता नहीं क्या चिढ़ थी एक्शन के ब्रांड से.. उसनें पापा को कन्विंस कर के, एक नया ब्रांड “टफ्फस’ के जूते खरीदवा दिए. उसनें कहा कि ये जूता एक्शन से बढ़िया है और सस्ता है. अब पापा तो उसके बात से कन्विंस हो गए, लेकिन मेरा मन सोच रहा था, एक्शन का प्रचार तो सचिन करता है, तो फिर ये जूता एक्शन से बढ़िया कैसे हो सकता है? बे-मन से ही वो जूता खरीद कर हम वहाँ से वापस आये. वैसे पूरी तरह से बे-मन होकर नहीं खरीदा था वो जूता, उसका डिजाईन थोड़ा स्टाइलिश तो लग रहा था, लेकिन वही है न..कि सचिन का एक्शन वाला एक फैक्टर भी तो तगड़ा फैक्टर था.
अगले दिन शायद शनिवार का दिन था, और उस दिन स्कूल में पीटी का क्लास होता था, मतलब हम उस दिन स्पोर्ट्स शूज या कपड़ों के सफ़ेद जूते पहन कर जा सकते थे. मेरे पास नया जूता तो था, लेकिन सोच रहा था कि पहन के जाऊं या न जाऊं? आख़िरकार वो जूता पहन कर स्कूल गया मैं. जब कुछ दोस्तों ने मुझे देखा और फिर मेरे नए जूते को देखा तो सबनें एक साथ तारीफ़ की, तो थोड़ी जान में जान आई. मन तब खुश हो गया जब एक दोस्त ने ये कहा “यार तुम्हारे पापा तुमको कितना स्टाइलिश जूता दिलवाए हैं..हम तो बेकार में बेकार सचिन के फेरा में पड़ कर एक्सन का जूता ले लिए..”
उन दिनों एक और नया नया ब्रांड आया था, पैरागन.. लेकिन हम बच्चे इसके जूते लेने से अक्सर बचते थे. उस समय इसके चप्पलों का एड आता था टीवी में. हम बच्चे पता नहीं क्यों पैरागन के ब्रांड से नफरत करते थे, हमारा कहना होता था, किसी भी ब्रांड का जूता ले लो.. लेकिन इसका नहीं. ये कंपनी तो चप्पल वाला कंपनी है..चप्पल का एड आता है इसका. इस कंपनी का जूता खरीदने से तो अच्छा है लोकल मोची के दूकान से जूता बनवा लिया जाये.
उन दिनों मोचियों के दूकान भी खूब चलते थे न. और कितने लोग तो लोकल मोची के द्वारा बनाये गए ही जूते या चमड़े के चप्पल पहनते थे. उन दिनों एक भी मोची सड़क के किनारे नहीं बैठता, जैसे आज बैठता है. कितना भी गरीब मोची हो, एक गुमटी(काठ की बनी छोटी दूकान) जरूर होता था मोचियों का. लेकिन आज के मोचियों के नसीब में दूकान कहाँ, सड़क के किनारे सुबह से शाम तक बैठते हैं. खैर, ये सब फिलोसफी में पड़ कर मैं टॉपिक से भटकना नहीं चाहता. आज नया जूता खरीदे हैं बाटा का तो वापस पुराने दिनों की याद आ गयी और साथ ही साथ बाटा के नाम से जो मेरी दुश्मनी है, वो भी याद आया.
ये बाटा से भी मेरा बचपन से नाता रहा है और अब तो ऐसा लगता है ये मुझे कभी छोड़ेगा भी नहीं. बचपन में भी हम हमेशा बाटा का जूता पहने. लिबर्टी उस समय ज्यादा बड़ा ब्रांड था बाटा से, लेकिन बाटा सस्ता भी था और क्वालिटी के नजरिये से भी अच्छा था. तो हम अक्सर बाटा का जूता ही पहने. हर बार हमें सिर्फ बाटा के जूते ही दिलवाए जाते थे. इतना पहने इस ब्रांड का जूता कि एकदम बोर हो गए थे.
जब इंजीनियरिंग के लिए कर्णाटक जा रहे थे तो ट्रेन पर बैठते ही ये कसम खाए थे, कि अब जो भी हो बाटा जैसा घटिया लोकल ब्रांड का जूता नहीं पहनना है. पहनेंगे भी तो बड़े बड़े ब्रांड का जूता. उस समय मुझे ये मालूम नहीं था न कि बाटा स्विट्ज़रलैंड की बड़ी कम्पनी है जूते बेचने में दुनिया में पहले नंबर पर है. एक दोस्त ने ये फैक्ट बताने की कोशिश भी की थी, लेकिन उसे हम सब ने बड़ा गरियाया था ये कह कर कि फ़ालतू का भाषणबाजी करता है ये लड़का. दिल्ली बम्बई का कोई लोकल कंपनी है बाटा. बाद में सबूत दिखाया उसनें तो भी हमनें ये कह कर उसके बात को उड़ा दिया, कि स्विट्ज़रलैंड का लोग नहीं पहनता होगा जूता इसका तो यहाँ बेचना शुरू कर दिया.
अब इंजीनियरिंग में कॉलेज जाने समय कसम तो खा ली थी मैंने कि बाटा का जूता नहीं पहनेंगे. लेकिन वापस जब सेमेस्टर ब्रेक में घर आये, तो पापा ने कहा तुम्हारे जूते फट रहे हैं, चलो नया दिला देते हैं. मन ही मन सोचे कि जब कॉलेज से वापस घर आ आ रहे थे तो हैदराबाद से खरीद लिए होते कोई बढ़िया कम्पनी का बढ़िया जूता. यहाँ कहीं फिर से बाटा के फेर में न फँस जाएँ हम.
पापा मुझे पटना के एक्सबिशन रोड ले गए, वहाँ बाटा और लिबर्टी दोनों के शोरूम आसपास थे. पापा ने गाड़ी लिबर्टी के दुकान के आगे खड़ी की थी. मैं तो खुश हो गया था इस बात से कि चलो फाइनली बाटा से छुटकारा मिला और लिबर्टी के जूते पहनने को मिलेंगे. लेकिन दो तीन जूते देखकर पापा ने खुद कहा, यहाँ कोई ठंग का जूता नहीं है, चलो बाटा में चलते हैं. और फाइनली हम फिर से बाटा का ही जूता खरीद लाये. मतलब बाटा ने फिर से मुझे अपने फेर में जकड़ लिया था.फाइनल इयर में मेरे जूते चोरी हो गए थे.
जहाँ हमारा कॉलेज था, वो एक छोटा सा टाउन था. वहाँ ज्यादा बड़े ब्रांड का आप्शन नहीं था. जूते चोरी हो गए थे तो तुरंत जूते खरीदना जरूरी था. वहाँ का एक जो बड़ा दूकान था जूतों का वहाँ मैं गया जूते खरीदने. वहाँ देखा तो फिर से मुझे बाटा के कुछ जूते दिखाई दिए. मैंने पूछा दुकानवाले से, कि किसी और ब्रांड का जूता नहीं है? उसनें एक दो लोकल ब्रांड का दिखाया भी, लेकिन मुझे पसंद नहीं आया. मजबूरीवश वहाँ भी मुझे बाटा के जूते ही लेने पड़े थे.
इंजीनियरिंग के बाद जब बैंगलोर आना हुआ तो एक दिन दिल में आया एक कासुअल या स्पोर्ट्स शूज खरीदा जाए. मैं बैंगलोर के ‘न्यू बी.इ.एल रोड’ इलाके में रहता था, और रमैया कॉलेज इसी जगह होने की वजह से ये बैंगलोर के ‘हैपनिंग’ जगह में से एक था. यहाँ कई बड़े बड़े जूतों के ब्रांड के शोरूम थे. बाटा का भी एक शोरूम था. मेरे साथ मेरे एक दोस्त थे, जिनसे मैंने कह रखा था, बाटा के तरफ भूल कर भी नहीं जाना है हमें..एडीडास, रीबोक, और नाइके का शोरूम है, यहीं से कोई जूता खरीद लेंगे. बाटा के तरफ देखना भी नहीं है हमें. लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. बाटा के अलावा उस रोड पर जितने भी जूतों के दूकान थे, सब में हमनें देख लिए. लेकिन पसंद का एक भी जूता नहीं मिला. जो पसंद आ रहा था वो हमारे बजट से बाहर था और जो जूते बजट में दिख रहे थे वो पसंद नहीं आ रहे थे.
दोस्त ने कहा, यार कब तक ऐसे भटकोगे, सब जगह देख लिए, एक बार बाटा में भी चलते हैं. मैंने कहा, ‘अरे लोकल ब्रांड है जी. बचपन से पहन रहे हैं’. दोस्त ने कहा, ‘बाटा वाले शोरूम में पॉवर का जूता भी है. बड़ा अच्छा होता है उसका जूता’. मैंने कहा, ‘यार पॉवर भी तो मेरे जितना ही पुराना ब्रांड है, बचपन से नाम सुन रहे हैं, मेरा बैट भी पॉवर का ही है..बड़ा घटिया शॉट लगता है उससे, जूता तो पक्का घटिया होगा’. दोस्त मेरे इस रवैया से थोड़ा इरिटेट हो गया था और वो जबरदस्ती मुझे बाटा के शोरूम में खींच लाया. बे-मन से मैं घुसा जरूर शोरूम था में, लेकिन बदकिस्मती देखिये कि पहली नज़र में पहला जूता जो दिखा रखा हुआ वो पसंद आ गया मुझे, और दोस्त ने जबरदस्ती खरीदवा भी दिया वो जूता. जब शोरूम से निकले तो खुद से कहा मैंने, ‘फिर से बाटा फंसा लिया हमें अपने फेर में..’
कुछ सालों बाद जब मेरी बहन की शादी होने वाली थी, यानी 2011 के जनवरी में, उस समय माँ के साथ मैं बाज़ार निकला था शौपिंग करने. मुझे उस दिन जूते भी लेने थे. पटना के मौर्या लोक काम्प्लेक्स में पहुँचे हम लोग. माँ ने कहा, चलो पहले जूते खरीद लो. सामने बाटा और लिबर्टी दोनों का शोरूम दिखा. माँ ने कहा चलो बाटा में चलते हैं. मैंने कहा माँ से, कि पहले एक बार लिबर्टी में ही देख लेते हैं. हम लिबर्टी में आ गए. दूकान वाले को अपना बजट बताया और उसनें जूते दिखाने शुरू किये. दो तीन जूते देखने के बाद एक जूता एकदम से पसंद आ गया. मैंने बिना देरी किये झट से वो जूता खरीद लिया, और शोरूम से बाहर निकलने के बाद मुस्कुरा कर देखा बाटा के तरफ और मन ही मन कहा मैंने, आख़िरकार तुम्हारे चुंगुल से छुट ही गया मैं.
दो तीन साल सच में आज़ाद रहे बाटा के चुंगुल से, लेकिन वो कहते हैं न कि फिर वहीं लौट के जाना होगा, यार ने कैसी रिहाई दी है… वही वाली बात हो गई मेरे साथ. बहन की शादी के मौके पर जूते खरीदने थे. इस बार सोचा ऑनलाइन जूते मंगवा लिया जाए. शौपिंग साईट ‘अमेज़न’ पर जूते सेलेक्ट करना शुरू किये. पहले से तय कर रखा था कि बाटा का जूता तो लेना ही नहीं है. तीन दिन लगातार सर्च किये, और हर दिन सर्च फ़िल्टर में ब्रांड के आप्शन में से बाटा के आप्शन को हटा देते थे. पसंद का और बजट में आ जायें, वैसा एक भी जूता नहीं दिख रहा था. जो दिखा भी था पसंद का, उसके रिव्यु अच्छे नहीं थे. आखिरी दिन जब इरिटेट हो गए, कि बस एक जूता तो लेना है, इसमें कितना वक्त बर्बाद करे? मैंने उस दिन ब्रांड फ़िल्टर में बाटा को भी जोड़ दिया. भाग्य का खेल देखिये, बाटा का एक जूता पहली नज़र में पसंद भी आ गया, रिव्यु भी अच्छे थे और हमनें खरीद भी लिया वो जूता.. यानी कि फिर से फँस गए हम बाटा के फेर में. अगले दिन जब जूता डिलीवर हुआ घर में, तो जूते को देखकर मैंने कहा, ‘यार अब तो बक्श दो मुझे..’
इस पोस्ट को लिखने समय आज फिर से कसम खा रहे हैं…कि अब के बाद बाटा का जूता फिर कभी नहीं खरीदना है. अपने तरफ से मैं तो पूरी कोशिश करूँगा कि इस कसम की रक्षा करूँ, अब आगे भगवान की मर्ज़ी.
रोचक प्रस्तुति
बचपन और बड़े होने की बात ही अलग अलग है, तब बाप के कमाई अब अपनी तो देखना पड़ता है
प्यूमा या वुडलैंड के जूते लेना अगली बार
Gazzabbb…बचपन की कितनी बातें याद आ गई एकदम से…। हमको ब्रांड से तो नहीं, पर पीटी के सफ़ेद जूतों से सख़्त नफ़रत थी…। एक तो उस दिन लगभग डेढ़ घंटे पीटी करो…और उसके बाद भूख लगने के बावजूद दो पीरियड और पढ़ाई के बाद ही लंच मिलता था…। हाँ सबसे ज़्यादा मज़ा आता था चाक से जूतों को चमकाने में…।
चाक से पॉलिश का जो मज़ा था वो कभी महँगी शू पॉलिश से नहीं मिला…।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’कुछ पल प्रकृति संग : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है…. आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी….. आभार…
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
Aapki kahani ne bachpan ki yaad dila di. Action ke shoes to mere pehle branded shoes the usse pehle to school wale white tennis shoes pehante the.
mam aap bhut achi post likhte ho me apki Website ko bhut time se follow krta hun
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