दिल्ली में बिता एक साल

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वक़्त तो जैसे पंख लगाकर उड़ जाता है। देखते-देखते एक साल बीत जाता है और पता भी नहीं चलता। मुझे तो अब भी यकीन नहीं हो रहा कि दिल्ली आए हुए मुझे एक साल हो गया है। पिछले साल आठ फरवरी को बैंगलोर से दिल्ली के लिए चला था और नौ फरवरी को दिल्ली पहुंचा। दिल्ली, एक ऐसा शहर जहाँ मैं कभी रहना चाहता था लेकिन इधर के कुछ सालों में इस शहर से नफरत सी हो गई थी। वहीं बैंगलोर एक ऐसा शहर था जिससे इंस्टेंटली दोस्ती हो गई थी और फिर मोहब्बत। बैंगलोर को छोड़ना मेरे लिए आसान बिलकुल भी नहीं था, ये मैं जानता था। लेकिन दिल्ली में बसना मेरे लिए इतना कठिन होगा इसका मुझे बिलकुल भी अंदाजा नहीं था। ये बात सच है कि शुरुआत में दिल्ली से जितनी तल्खियत थी, अब उतनी नहीं रही… लेकिन ऐसा नहीं कि दिल्ली से तल्खियत बिलकुल ही खत्म हो गई। अब बस ऐसा है कि यहाँ रहने की आदत हो गई है और शायद शहर से भी थोड़ी बहुत दोस्ती भी।

दिल्ली आने के बाद शुरू के कुछ दिन तो इतने अच्छे बीते कि लगा यहाँ के दिन मस्ती भरे होंगे। फरवरी में दिल्ली का मौसम वैसे भी खूबसूरत होता है, और उसमें दोस्तों की भी अच्छी महफ़िलें मिलती गईं। दिल्ली आते ही अरुण जी के पब्लिकेशन हाउस से प्रकाशित हुई कुछ पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रम का इनविटेशन मिला। उस कार्यक्रम में काफी सारे लोगों से मिलना हुआ था। शिवम् भैया, महफूज़ भाई, जयदीप जी, अनुपमा जी और ब्लॉग जगत के कई सारे लोगों से पहली बार उसी कार्यक्रम में मिला था। पुस्तक मेले में लगातार तीन दिन तक अपने दोस्तों के साथ मैं जाता रहा था, और फरवरी की नर्म धूप में दिन भर हम प्रगति मैदान में बैठे रहते थे और देर शाम तक वापस आते थे। कॉलेज के पुराने किस्से, हंसी ठहाके दिन भर चलते थे। इंजीनियरिंग के पुराने साथी सौरभ बाबू के घर भी एक दिन हम सब मित्रों की टोली जमा हुई और जमकर पुराने दिनों के किस्से याद किए गए। पिछले फरवरी-मार्च के दिन ऐसे ही थे… हर सप्ताह किसी न किसी पुराने दोस्त से मुलाकात हो ही जा रही थी। और कुछ मुलाकातें ऐसी भी थीं जो एक अरसे के बाद हुई थीं और अगर मैं दिल्ली न आता तो शायद उनसे मुलाकात होती भी नहीं। ऐसी ही एक मुलाकात थी अपने पुराने और बेहद करीबी दोस्त आशीष भारती से, जो कि उन दिनों दिल्ली आया हुआ था और हमें दो तीन दिन साथ बिताने का मौका मिल गया था। उसके साथ बातें करना टाइम-ट्रैवल करने जैसा था। आशीष के अलावा जिस और मित्र से संयोगवश मुलाकात हो गई थी वो था शेखर, जो कि मात्र दो दिनों के लिए दिल्ली आया था और फिर वापस साउथ अफ्रीका जाने वाला था। दिल्ली में सबसे अच्छे दिनों में से वे दिन थे जब सलिल चचा दिल्ली में थे। उनसे हर मुलाकात अपने आप में यादगार मुलाकात थी। उनसे जो आखिरी मुलाकात हुई थी, वो खासकर के याद है। वो एक बेहद अच्छी शाम थी। लेकिन दुःख की बात ये रही कि मेरे दिल्ली आते ही उनका ट्रांसफर गुजरात हो गया और वो वहाँ चले गए।

दिल्ली में शुरुआत के कुछ ही दिन बस इतने मजे में बीते। गर्मियों के आते ही दोस्तों की महफ़िलें भी गायब हो गईं। सलिल चचा दिल्ली छोड़कर गुजरात चले गए थे, अनिल पुणे चला गया, वरुण चार महीने के लिए फ्रांस चला गया और अकरम कुछ काम के बढ़ जाने से अचानक व्यस्त हो गया। जिन चार लोगों के कारण मैंने सोचा था दिल्ली में रहना आसान होगा, वो सब गायब हो गए थे। गर्मियों में अकेलापन हावी रहा था और मन लगाने के लिए मैं शहर घूमने लगा। दिल्ली से जो भी थोड़ी दोस्ती हुई है, वो उन्हीं दिनों हुई थी। गर्मियों में जैसे-जैसे शहर का तापमान बढ़ता जा रहा था, दिल्ली से मेरी नफरत और चिड़चिड़ाहट भी बढ़ती जा रही थी… जिसकी बहुत सी वजह थी, दोस्तों की गैरमौजूदगी… यहाँ के लोगों का स्वाभाव और यहाँ की गर्मी (जो मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी)। लेकिन कभी-कभी खुशियों का ऐसा झोंका आता था जो सारी चिड़चिड़ाहट को कुछ समय के लिए तो मिटा ही देता था। चाहे वो परिवार के साथ अमृतसर-जालंधर का ट्रिप हो या फिर मोहल्ला लाइव के कार्यक्रम बहसतलब में सुशील भैया से अचानक हुई सुखद मुलाकात या फिर जब अकरम फ्री होता तो उसके साथ दिल्ली 6 की गलियों में घूमना और चचा ग़ालिब की हवेली में जाना।

दिल्ली में बारिश देर से हुई, लेकिन जब बारिश आई तो अपने साथ कुछ तोहफे भी लेती आई। शिखा दी इंडिया आईं और अपने वादे के मुताबिक़ मेरे लिए चॉकलेट भी लाईं थीं और साथ ही एक खूबसूरत तोहफा। बड़ी यादगार मुलाकात रही थी उनसे। उन्होंने मुझसे कहा था द्वारका से-8 मेट्रो स्टेशन पर खड़े रहने को, जहाँ से मैं उनके घर उनके साथ जाने वाला था। लेकिन मैंने फोन पर गलत मेट्रो स्टेशन का सुन लिया (द्वारका से-21)। वो मुझे वहाँ के मेट्रो स्टेशन पे ढूँढ रहीं थीं और मैं 21 के मेट्रो स्टेशन पर उन्हें ढूँढ रहा था। हम लगातार फोन से बात भी कर रहे थे और लगभग हर लैंडमार्क एक-दूसरे को बता कर पूछ रहे थे कि हम यहाँ हैं, आप कहाँ? लेकिन कुछ देर बाद ही हमें ख्याल आया कि हम दोनों अलग-अलग स्टेशनों पर हैं और एक-दूसरे को खोज रहे हैं। मैं फिर बाद में मेट्रो से सही स्टेशन पहुंचा और फिर वहाँ से उनके साथ उनके घर। उस दिन इस छोटी सी ग़लतफ़हमी के अलावा सब बिलकुल अच्छा हुआ। फिर जो हम मिले तो नॉन-स्टॉप बातें चलीं। उनके परिवार से भी मिलना हुआ था जो कि बेहद सुखद अनुभव था और फिर शिखा दी के साथ मैं संगीता जी से मिलने गया। संगीता जी से वैसे तो वो एक छोटी सी ही मुलाकात थी, लेकिन फिर भी एक यादगार मुलाकात थी। सोनल जी और अनु जी से भी पहली बार मुलाकात शिखा दी की वजह से ही हुई। शिखा दी इंडिया आईं थीं तो उनसे उनके चाहनेवाले मुलाकात का मौका कैसे छोड़ सकते थे। तो हमने (देवांशु, सोनल जी और अनु जी) तय किया कि उनसे एक अपॉइंटमेंट लिया जाए ताकि हम भी उनसे कुछ सीख सकें। गुड़गांव के एक कैफे में हम सब मिले थे, और वो एक बेहद खूबसूरत और मधुर स्मृतियों वाला दिन था। शायद शिखा दी से मुलाकात दिल्ली आने के बाद अब तक की मेरी सबसे खूबसूरत याद है और वो दिन खासकर के याद है जब हम सब गुड़गांव के एक कैफे में मिले थे।

दिल्ली ने कुछ लोगों को अच्छे से जानने और समझने का भी मौका दिया। विशाल, जो कि मेरा बहुत पुराना दोस्त है… और जिससे पिछले कुछ सालों में ज्यादा मिलना हो भी नहीं सका था.. वो कुछ दिनों के लिए दिल्ली रहने आया था.. मेरे साथ कुछ दिनों तक रहा वो। मेरे से बिलकुल विपरीत लड़का है, बेहद पढ़ाकू किस्म का। पिक्चर वैगरह ज्यादा नहीं देखता और कहानियों-कविताओं में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है.. आध्यात्मिक किताबें पढ़ने का शौक रखता है और पूजा पाठ करने वाला व्यक्ति है। उसके साथ बिताए दिन अच्छे थे। वो दो महीने रहने के बाद वापस पटना चला गया। कभी-कभी उसे थोड़ा मिस करता हूँ, खासकर के सुबह की कॉफ़ी पीते समय। विशाल के अलावा वरुण के साथ भी एक लंबा वक़्त बिताने का मौका मिला। वरुण एक ऐसा लड़का है, जिसके साथ रहकर आप सोचेंगे कि आप उसके जितने अच्छे इंसान क्यों नहीं हैं। बेहद कोमल ह्रदय वाला लड़का है वरुण। इन दोनों के अलावा दिल्ली में जो मेरा सबसे बड़ा सहारा बना और अभी भी है वो है अकरम (इसके बारे में तो मैंने पहले भी कई बार ब्लॉग में जिक्र किया है)। हम दोनों ने दिल्ली की बहुत ख़ाक छानी है और हमारे अनुभव भी बड़े अच्छे अच्छे हुए हैं। एक और पुराने और करीबी दोस्त मती के साथ समय बिताने का मौका मिला, जब ईद के मौके पर उसके घर गया था.. लगा कि एक पुराना मौसम वापस लौट आया है। पटना के दिन याद आ गए थे, जब ईद के मौके पर उसके घर जाकर हम सेवियाँ खाते थे।

दिल्ली में बीते इस एक साल में बहुत से लोगों से मिला हूँ, और अधिकतर से तो पहली बार। अजय भैया को इतने सालों से जान रहा था, लेकिन दिल्ली आने के बाद ही उनसे मुलाकात हो पाई थी। पहली मुलाकात उनसे जो हुई उसे यादगार नहीं कह सकूँगा, क्योंकि वो मुलाकात अस्पताल में हुई थी, जब उनकी तबियत थोड़ी ख़राब थी उनसे मिलने मैं अस्पताल पहुंचा था। संतोष जी, और अविनाश जी से भी पहली मुलाकात संयोगवश वहीं हुई थी.. उसी अस्पताल में। अजय भैया से लेकिन कुछ दिनों बाद ही दूसरी मुलाकात हुई, जब उनके घर मैं गया था। उस मुलाकात को बेशक एक न भूलने वाली मुलाकात मैं कहूँगा। इस साल के शुरुआत में नितीश से मिलना हुआ.. और मुझे ये जानकर ख़ुशी हुई कि मेरे कहने पर उसने ब्लॉग लिखना शुरू किया।

इसे इत्तेफाक ही कहिए कि मैं पिछले साल नौ फरवरी को दिल्ली आया था और इस साल नौ फरवरी को दिल्ली में आए मुझे एक साल हो गए थे और ठीक उसी दिन पुस्तक मेले में किशोर साहब और आराधना जी से पहली बार मुलाकात हुई थी। किशोर साहब से पहली मुलाकात हमेशा हमेशा के लिए याद रह जाने वाली है। बहुत ही सरल, सुलझे हुए और मृदुभाषी व्यक्तित्व वाले इंसान हैं। अपनी कविताओं की किताब ‘बातें बेवजह’ की एक प्रति भी उन्होंने मुझे दी। बड़ा खुशकिस्मत था मैं कि उनके साथ एक बेहद अच्छा वक़्त बिताने का मौका मिला। किशोर साहब के अलावा आराधना जी से भी पहली बार इसी पुस्तक मेले में मुलाकात हुई। उनसे हुई मुलाकात भी बड़ी दिलचस्प रही थी। हम दोनों एक-दूसरे के सामने थे और इधर-उधर एक-दूसरे को खोज रहे थे। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि हमने एक-दूसरे को पहचाना कैसे नहीं। उन्हें तो पास आकर मुझसे पूछना तक पड़ा था – अभिषेक? बाद में हम दोनों इस बात पर बहुत हंसे भी थे। आराधना जी से फिर अगले दिन दोबारा मुलाकात हुई थी।

इस पुस्तक मेले में सुशिल भैया के साथ घूमना भी बड़ा अच्छा रहा था। कई छोटी-छोटी और मजेदार कहानियां भी उनसे सुनने को मिलीं, और बहुत सी जानकारियां भी। सुशिल भैया साहित्य की अच्छी जानकारी रखते हैं और इनकी वजह से कुछ अच्छी किताबों को खरीदने का मौका भी मिला मुझे। अरुण जी से भी मुलाकात हुई इस पुस्तक मेले में और देखकर अच्छा लगा कि उनका पब्लिकेशन हाउस तरक्की कर रहा है। मुकेश जी से भी पहली बार मिला इस पुस्तक मेले में, शैलेश जी, रंजू जी और दूसरे कई ब्लॉग के लोगों से भी मिलना हुआ था।

कुल मिलाकर इस बीते साल में दिल्ली का अनुभव अच्छा ही रहा। शहर अभी तक भले पसंद न आया हो, लेकिन यहाँ के कुछ इलाकों से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई है। लेकिन फिर भी मौके-बेमौके मुझे बैंगलोर की बेतरह याद आई, जिसका जिक्र शायद कभी बाद में करूंगा।

अब देखे दिल्ली में ये साल यहाँ कैसा बीतता है।

Meri Baatein
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  1. अभिषेक आप जहाँ भी रहते हैं उस जगह को उस पल को अपनी बना कर जीते हैं । यही वजह है कि आपके संस्मरण भी सलिल भैया की तरह जीवन्त व आत्मीय होते हैं ।

  2. ब्लोगर साथियों से रूबरू मिलना दिलचस्प रहा होगा …. दिल्ली में मन लग ही गया है …. शुभकामनायें

  3. …तुमसे मिलकर ऐसा लगा,
    हम पहले भी मिल चुके थे कहीं,
    शरीरों से पहले मिल जाते हैं दिल
    और फ़िर हमारी आत्माएं !!

  4. कहते हैं कि जो दिल्ली का पानी पी ले उससे दिल्ली छुटती नहीं, क्योंकि दिल्ली रुठती नहीं 🙂

  5. नगर के व्यक्तित्व में ढल जाइये, आपको अच्छा लगने लगेगा..

  6. यूँ दिल्ली हमें भी पसंद नहीं ..पर अच्छे लोगों से मिलने को मिल जाता है तो अच्छी लगने लगती है :).

  7. काफी लम्बी चौरी यादें मालूम पड़ती है तुम्हारी दिल्ली के साथ. और इंशाअल्लाह आने वाले दिन भी अच्छी यादें लाएंगी.

  8. यार हम लोग तो बुक फेयर में भी मिले थे , भूल गए क्या ???

  9. मिसिंग अरे हमको तो लगता है यहाँ से अभिषेक भिया ही मिसिंग हैं .. उनकी तो बस यहाँ शक्ल भर ही है .. हैं तो यहाँ से भी गायब.. 'दिल-जिगर जाने कहाँ हुवा गम …
    'गुमशुदा का पोस्टर लगवाएं का …?

    • तुम जैसा दोस्त पाकर तो हम धन्य हो गए मालिक 😉 🙂

  10. बहुत अच्छा….कुछ और यादें जुड़ें…ऐसी शुभकामना

  11. वाह गुरु! बढ़िया है,

    अच्छा नहीं लगा पढ़ कर…… बहुत अच्छा लगा!!!!! 🙂

    और ई का लिखा है कि हमको कविता से कुछ खास मतलब नहीं है… जा… का लिख दिया? 🙁

    कहानी से तो नहीं लेकिन कविता से तो इंटरेस्ट है ही 🙂

    और तो और… ई प्रशांत का लिख रहा है कि ई उहे विशाल है कि कोनों और…. हे भगवन! कैसे-कैसे लोग हैं? 🙁

    भाई, सही में मजा आया था उस समय…. लेकिन सिनेमा से तो पहले हमको तो तुम्हारा और अकरम का याद

    आता है और फिर जोर से डर लगता है 🙂

    http://vkashyaps.blogspot.in/

  12. दिल्ली कुछ सुखद यादें दे गई …बढ़िया है…शुभकामनाएँ !!

  13. यादें तो बहुत अच्छी है….
    लेकिन सिनेमा से तो अब बस तुमलोगों का याद ही आता है और कुछ नहीं….. 🙂

    और ई PD कोन है, कहीं ई उहे प्रशांत प्रियदर्शी तो नहीं है? 😛

  14. वजह चाहे जो रही हो मगर अंत में दिल्ली में आपका मन लग ही गया … :)और जो थोड़ी बहुत कसर बाकी है उम्मीद है वो आने वाले वक्त के साथ जाती रहेगी शुभकामनायें… 🙂

  15. एक पोस्ट में कितना कुछ समेट लेते हो तुम.. कहाँ-कहाँ घुमा देते हो.. तुम्हारा साथ बढ़िया लगता है..

  16. आत्मीयता से लिखा गया सुन्दर लेखा जोखा!
    पुराना शहर तब भी सबसे प्यारा दोस्त होगा, जब इस नए शहर से दोस्ती गाढ़ी हो चुकी होगी!

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