दिल्ली में एक मौत – कमलेश्वर

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दिल्ली में एक मौत - कमलेश्वर

 

मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है… पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।

चारों तरफ कुहरा छाया हुआ है। सुबह के नौ बजे हैं, लेकिन पूरी दिल्ली धुँध में लिपटी हुई है। सडकें नम हैं। पेड भीगे हुए हैं। कुछ भी साफ दिखाई नहीं देता। जिंदगी की हलचल का पता आवाजों से लग रहा है। ये आवाजें कानों में बस गई हैं। घर के हर हिस्से से आवाजें आ रही हैं। वासवानी के नौकर ने रोज की तरह स्टोव जला दिया है, उसकी सनसनाहट दीवार के पार से आ रही है। बगल वाले कमरे में अतुल मवानी जूते पर पालिश कर रहा है… ऊपर सरदारजी मूँछों पर फिक्सो लगा रहे हैं… उनकी खिडकी के परदे के पार जलता हुआ बल्ब बडे मोती की तरह चमक रहा है। सब दरवाजे बंद हैं, सब खिडकियों पर परदे हैं, लेकिन हर हिस्से में जिंदगी की खनक है। तिमंजिले पर वासवानी ने बाथरूम का दरवाजा बंद किया है और पाइप खोल दिया है…

कुहरे में बसें दौड रही हैं। जूँ-जूँ करते भारी टायरों की आवाजें दूर से नजदीक आती हैं और फिर दूर होती जाती हैं। मोटर-रिक्शे बेतहाशा भागे चले जा रहे हैं। टैक्सी का मीटर अभी किसी ने डाउन किया है। पडोस के डॉक्टर के यहाँ फोन की घंटी बज रही है। और पिछवाडे गली से गुजरती हुई कुछ लडकियाँ सुबह की शिफ्ट पर जा रही हैं।

सख्त सर्दी है। सडकें ठिठुरी हुई हैं और कोहरे के बादलों को चीरती हुई कारें और बसें हॉर्न बजाती हुई भाग रही हैं। सडकों और पटरियों पर भीड है,पर कुहरे में लिपटा हुआ हर आदमी भटकती हुई रूह की तरह लग रहा है।

वे रूहें चुपचाप धुँध के समुद्र में बढती जा रही हैं… बसों में भीड है। लोग ठंडी सीटों पर सिकुडे हुए बैठे हैं और कुछ लोग बीच में ही ईसा की तरह सलीब पर लटके हुए हैं बाँहें पसारे, उनकी हथेलियों में कीलें नहीं, बस की बर्फीली, चमकदार छडें हैं।

और ऐसे में दूर से एक अर्थी सडक पर चली आ रही है। इस अर्थी की खबर अखबार में है। मैंने अभी-अभी पढी है। इसी मौत की खबर होगी। अखबार में छपा है आज रात करोलबाग के मशहूर और लोकप्रिय बिजनेस मैगनेट सेठ दीवानचंद की मौत इरविन अस्पताल में हो गई। उनका शव कोठी पर ले आया गया है। कल सुबह नौ बजे उनकी अर्थी आर्य समाज रोड से होती हुई पंचकुइयाँ श्मशान-भूमि में दाह-संस्कार के लिए जाएगी।

और इस वक्त सडक पर आती हुई यह अर्थी उन्हीं की होगी। कुछ लोग टोपियाँ लगाए और मफलर बाँधे हुए खामोशी से पीछे-पीछे आ रहे हैं। उनकी चाल बहुत धीमी है। कुछ दिखाई पड रहा है, कुछ नहीं दिखाई पड रहा है, पर मुझे ऐसा लगता है अर्थी के पीछे कुछ आदमी हैं।

मेरे दरवाजे पर दस्तक होती है। मैं अखबार एक तरफ रखकर दरवाजा खोलता हूँ। अतुल मवानी सामने खडा है। ‘यार, क्या मुसीबत है, आज कोई आयरन करने वाला भी नहीं आया, जरा अपना आयरन देना। अतुल कहता है तो मुझे तसल्ली होती है। नहीं तो उसका चेहरा देखते ही मुझे खटका हुआ था कि कहीं शवयात्रा में जाने का बवाल न खडा कर दे। मैं उसे फौरन आयरन दे देता हूँ और निश्चिंत हो जाता हूँ कि अतुल अब अपनी पेंट पर लोहा करेगा और दूतावासों के चक्कर काटने के लिए निकल जाएगा।

जब से मैंने अखबार में सेठ दीवानचंद की मौत की खबर पढी थी, मुझे हर क्षण यही खटका लगा था कि कहीं कोई आकर इस सर्दी में शव के साथ जाने की बात न कह दे। बिल्डिंग के सभी लोग उनसे परिचित थे और सभी शरीफ, दुनियादार आदमी थे।

तभी सरदारजी का नौकर जीने से भडभडाता हुआ आया और दरवाजा खोलकर बाहर जाने लगा। अपने मन को और सहारा देने के लिए मैंने उसे पुकारा, ‘धर्मा! कहाँ जा रहा है? ‘सरदारजी के लिए मक्खन लेने, उसने वहीं से जवाब दिया तो लगे हाथों लपककर मैंने भी अपनी सिगरेट मँगवाने के लिए उसे पैसे थमा दिए।

सरदारजी नाश्ते के लिए मक्खन मँगवा रहे हैं, इसका मतलब है वे भी शवयात्रा में शामिल नहीं हो रहे हैं। मुझे कुछ और राहत मिली। जब अतुल मवानी और सरदारजी का इरादा शवयात्रा में जाने का नहीं है तो मेरा कोई सवाल ही नहीं उठता। इन दोनों का या वासवानी परिवार का ही सेठ दीवानचंद के यहाँ ज्यादा आना-जाना था। मेरी तो चार-पाँच बार की मुलाकात भर थी। अगर ये लोग ही शामिल नहीं हो रहे हैं तो मेरा सवाल ही नहीं उठता।

सामने बारजे पर मुझे मिसेस वासवानी दिखाई पडती हैं। उनके खूबसूरत चेहरे पर अजीब-सी सफेदी और होंठों पर पिछली शाम की लिपस्टिक की हल्की लाली अभी भी मौजूद थी। गाउन पहने हुए ही वे निकली हैं और अपना जूडा बाँध रही हैं। उनकी आवाज सुनाई पडती है, ‘डार्लिंग, जरा मुझे पेस्ट देना, प्लीज…

मुझे और राहत मिलती है। इसका मतलब है कि मिस्टर वासवानी भी मैयत में शामिल नहीं हो रहे हैं।

दूर आर्य समाज रोड पर वह अर्थी बहुत आहिस्ता-आहिस्ता बढती आ रही है…

अतुल मवानी मुझे आयरन लौटाने आता है। मैं आयरन लेकर दरवाजा बंद कर लेना चाहता हूँ, पर वह भीतर आकर खडा हो जाता है और कहता है, ‘तुमने सुना, दीवानचंदजी की कल मौत हो गई है।

‘मैंने अभी अखबार में पढा है, मैं सीधा-सा जवाब देता हूँ, ताकि मौत की बात आगे न बढे। अतुल मवानी के चेहरे पर सफेदी झलक रही है, वह शेव कर चुका है। वह आगे कहता है, ‘बडे भले आदमी थे दीवानचंद।

यह सुनकर मुझे लगता है कि अगर बात आगे बढ गई तो अभी शवयात्रा में शामिल होने की नैतिक जिम्मेदारी हो जाएगी, इसलिए मैं कहता हूँ, ‘तुम्हारे उस काम का क्या हुआ?

‘बस, मशीन आने भर की देर है। आते ही अपना कमीशन तो खडा हो जाएगा। यह कमीशन का काम भी बडा बेहूदा है। पर किया क्या जाए? आठ-दस मशीनें मेरे थ्रू निकल गईं तो अपना बिजनेस शुरू कर दूँगा। अतुल मवानी कह रहा है, ‘भई, शुरू-शुरू में जब मैं यहाँ आया था तो दीवानचंदजी ने बडी मदद की थी मेरी। उन्हीं की वजह से कुछ काम-धाम मिल गया था। लोग बहुत मानते थे उन्हें।

फिर दीवानचंद का नाम सुनते ही मेरे कान खडे हो जाते हैं। तभी खिडकी से सरदारजी सिर निकालकर पूछने लगते हैं, ‘मिस्टर मवानी! कितने बजे चलना है?

‘वक्त तो नौ बजे का था, शायद सर्दी और कुहरे की वजह से कुछ देर हो जाए। वह कह रहा है और मुझे लगता है कि यह बात शवयात्रा के बारे में ही है।

सरदारजी का नौकर धर्मा मुझे सिगरेट देकर जा चुका है और ऊपर मेज पर चाय लगा रहा है। तभी मिसेज वासवानी की आवाज सुनाई पडती है, ‘मेरे खयाल से प्रमिला वहाँ जरूर पहुँचेगी, क्यों डार्लिंग?

‘पहुँचना तो चाहिए। …तुम जरा जल्दी तैयार हो जाओ। कहते हुए मिस्टर वासवानी बारजे से गुजर गए हैं।

अतुल मुझसे पूछ रहा है, ‘शाम को कॉफी-हाउस की तरफ आना होगा?

‘शायद चला आऊँ, कहते हुए मैं कम्बल लपेट लेता हूँ और वह वापस अपने कमरे में चला जाता है। आधे मिनट बाद ही उसकी आवाज फिर आती है, ‘भई, बिजली आ रही है? मैं जवाब दे देता हूँ, ‘हाँ, आ रही है। मैं जानता हूँ कि वह इलेक्ट्रिक रॉड से पानी गर्म कर रहा है, इसीलिए उसने यह पूछा है।

‘पॉलिश! बूट पॉलिश वाला लडका हर रोज की तरह अदब से आवाज लगाता है और सरदारजी उसे ऊपर पुकार लेते हैं। लडका बाहर बैठकर पॉलिश करने लगता है और वह अपने नौकर को हिदायतें दे रहे हैं, ‘खाना ठीक एक बजे लेकर आना।… पापड भूनकर लाना और सलाद भी बना लेना…। मैं जानता हूँ सरदारजी का नौकर कभी वक्त से खाना नहीं पहुँचाता और न उनके मन की चीजें ही पकाता है।

बाहर सडक पर कुहरा अभी भी घना है। सूरज की किरणों का पता नहीं है। कुलचे-छोलेवाले वैष्णव ने अपनी रेढी लाकर खडी कर ली है। रोज की तरह वह प्लेटें सजा रहा है, उनकी खनखनाहट की आवाज आ रही है।

सात नंबर की बस छूट रही है। सूलियों पर लटके ईसा उसमें चले जा रहे हैं और क्यू में खडे और लोगों को कंडक्टर पेशगी टिकट बाँट रहा है। हर बार जब भी वह पैसे वापस करता है तो रेजगारी की खनक यहाँ तक आती है। धँध में लिपटी रूहों के बीच काली वर्दी वाला कंडक्टर शैतान की तरह लग रहा है।

और अर्थी अब कुछ और पास आ गई है।

‘नीली साडी पहन लूँ? मिसेज वासवानी पूछ रही हैं।

वासवानी के जवाब देने की घुटी-घुटी आवाज से लग रहा है कि वह टाई की नॉट ठीक कर रहा है।

सरदारजी के नौकर ने उनका सूट ब्रुश से साफ करके हैंगर पर लटका दिया है। और सरदारजी शीशे के सामने खडे पगडी बाँध रहे हैं।

अतुल मवानी फिर मेरे सामने से निकला है। पोर्टफोलियो उसके हाथ में है। पिछले महीने बनवाया हुआ सूट उसने पहन रखा है। उसके चेहरे पर ताजगी है और जूतों पर चमक। आते ही वह मुझे पूछता है, ‘तुम नहीं चल रहे हो? और मैं जब तक पूछूँ कि कहाँ चलने को वह पूछ रहा है, वह सरदारजी को आवाज लगाता है, ‘आइए, सरदारजी! अब देर हो रही है। दस बज चुका है।

दो मिनट बाद ही सरदारजी तैयार होकर नीचे आते हैं कि वासवानी ऊपर से ही मवानी का सूट देखकर पूछता है, ‘ये सूट किधर सिलवाया?

‘उधर खान मार्केट में।

‘बहुत अच्छा सिला है। टेलर का पता हमें भी देना। फिर वह अपनी मिसेज को पुकारता है, ‘अब आ जाओ, डियर!… अच्छा मैं नीचे खडा हूँ तुम आओ। कहता हुआ वह भी मवानी और सरदारजी के पास आ जाता है और सूट को हाथ लगाते हुए पूछता है, ‘लाइनिंग इंडियन है।

‘इंग्लिश!

‘बहुत अच्छा फिटिंग है! कहते हुए वह टेलर का पता डायरी में नोट करता है। मिसेज वासवानी बारजे पर दिखाई पडती हैं।

अर्थी अब सडक पर ठीक मेरे कमरे के नीचे है। उसके साथ कुछेक आदमी हैं, एक-दो कारें भी हैं, जो धीरे-धीरे रेंग रही हैं। लोग बातों में मशगूल हैं।

मिसेज वासवानी जूडे में फूल लगाते हुए नीचे उतरती हैं तो सरदारजी अपनी जेब का रुमाल ठीक करने लगते हैं। और इससे पहले कि वे लोग बाहर जाएँ वासवानी मुझसे पूछता है, ‘आप नहीं चल रहे?

‘आप चलिए मैं आ रहा हूँ मैं कहता हूँ पर दूसरे ही क्षण मुझे लगता है कि उसने मुझसे कहाँ चलने को कहा है? मैं अभी खडा सोच ही रहा रहा हूँ कि वे चारों घर के बाहर हो जाते हैं। अर्थी कुछ और आगे निकल गई है। एक कार पीछे से आती है और अर्थी के पास धीमी होती है। चलाने वाले साहब शवयात्रा में पैदल चलने वाले एक आदमी से कुछ बात करते हैं और कार सर्र से आगे बढ जाती है। अर्थी के साथ पीछे जाने वाली दोनों कारें भी उसी कार के पीछे सरसराती हुई चली जाती हैं।

मिसेज वासवानी और वे तीनों लोग टैक्सी स्टैंड की ओर जा रहे हैं। मैं उन्हें देखता रहता हूँ। मिसेज वासवानी ने फर-कालर डाल रखा है। और शायद सरदारजी अपने चमडे के दास्ताने पहने हैं और वे चारों टैक्सी में बैठ जाते हैं। अब टैक्सी इधर ही आ रही है और उसमें से खिलखिलाने की आवाज मुझे सुनाई पड रही है। वासवानी आगे सडक पर जाती अर्थी की ओर इशारा करते हुए ड्राइवर को कुछ बता रहा है।…

मैं चुपचाप खडा सब देख रहा हूँ और अब न जाने क्यों मुझे मन में लग रहा है कि दीवानचंद की शवयात्रा में कम से कम मुझे तो शामिल हो ही जाना चाहिए था। उनके लडके से मेरी खासी जान-पहचान है और ऐसे मौके पर तो दुश्मन का साथ भी दिया जाता है। सर्दी की वजह से मेरी हिम्मत छूट रही है… पर मन में कहीं शवयात्रा में शामिल होने की बात भीतर ही भीतर कोंच रही है।

उन चारों की टैक्सी अर्थी के पास धीमी होती है। मवानी गर्दन निकालकर कुछ कहता है और दाहिने से रास्ता काटते हुए टैक्सी आगे बढ जाती है।

मुझे धक्का-सा लगता है और मैं ओवरकोट पहनकर, चप्पलें डालकर नीचे उतर आता हूँ। मुझे मेरे कदम अपने आप अर्थी के पास पहुँचा देते हैं, और मैं चुपचाप उसके पीछे-पीछे चलने लगता हूँ। चार आदमी कंधा दिए हुए हैं और सात आदमी साथ चल रहे हैं सातवाँ मैं ही हूँ।और मैं सोच रहा हूँ कि आदमी के मरते ही कितना फर्क पड जाता है। पिछले साल ही दीवानचंद ने अपनी लडकी की शादी की थी तो हजारों की भीड थी। कोठी के बाहर कारों की लाइन लगी हुई थी… मैं अर्थी के साथ-साथ लिंक रोड पर पहुँच चुका हूँ। अगले मोड पर ही पंचकुइयाँ श्मशान भूमि है।

और जैसे ही अर्थी मोड पर घूमती है, लोगों की भीड और कारों की कतार मुझे दिखाई देने लगती है। कुछ स्कूटर भी खडे हैं। औरतों की भीड एक तरफ खडी है। उनकी बातों की ऊँची ध्वनियाँ सुनाई पड रही हैं। उनके खडे होने में वही लचक है जो कनॉट प्लेस में दिखाई पडती है। सभी के जूडों के स्टाइल अलग-अलग हैं। मर्दों की भीड से सिगरेट का धुआँ उठ-उठकर कुहरे में घुला जा रहा है और बात करती हुई औरतों के लाल-लाल होंठ और सफेद दाँत चमक रहे हैं और उनकी आँखों में एक गरूर है…

अर्थी को बाहर बने चबूतरे पर रख दिया गया है। अब खामोशी छा गई है। इधर-उधर बिखरी हुई भीड शव के इर्द-गिर्द जमा हो गई है और कारों के शोफर हाथों में फूलों के गुलदस्ते और मालाएँ लिए अपनी मालकिनों की नजरों का इंतजार कर रहे हैं।

मेरी नजर वासवानी पर पडती है। वह अपनी मिसेज को आँख के इशारे से शव के पास जाने को कह रहा है और वह है कि एक औरत के साथ खडी बात कर रही है। सरदारजी और अतुल मवानी भी वहीं खडे हुए हैं।

शव का मुँह खोल दिया गया है और अब औरतें फूल और मालाएँ उसके इर्द-गिर्द रखती जा रही हैं। शोफर खाली होकर अब कारों के पास खडे सिगरेट पी रहे हैं।

एक महिला माला रखकर कोट की जेब से रुमाल निकालती है और आँखों पर रखकर नाक सुरसुराने लगती है और पीछे हट जाती है।

और अब सभी औरतों ने रुमाल निकाल लिए हैं और उनकी नाकों से आवाजें आ रही हैं।

कुछ आदमियों ने अगरबत्तियाँ जलाकर शव के सिरहाने रख दी हैं। वे निश्चल खडे हैं।

आवाजों से लग रहा है औरतों के दिल को ज्यादा सदमा पहुँचा है।

अतुल मवानी अपने पोर्टफोलियो से कोई कागज निकालकर वासवानी को दिखा रहा है। मेरे खयाल से वह पासपोर्ट का फॉर्म है।

अब शव को भीतर श्मशान भूमि में ले जाया जा रहा है। भीड फाटक के बाहर खडी देख रही है। शोफरों ने सिगरेटें या तो पी ली हैं या बुझा दी हैं और वे अपनी-अपनी कारों के पास तैनात हैं।

शव अब भीतर पहुँच चुका है।

मातमपुरसी के लिए आए हुए आदमी और औरतें अब बाहर की तरफ लौट रहे हैं। कारों के दरवाजे खुलने और बंद होने की आवाजें आ रही हैं। स्कूटर स्टार्ट हो रहे हैं। और कुछ लोग रीडिंग रोड, बस-स्टॉप की ओर बढ रहे हैं।

कुहरा अभी भी घना है। सडक से बसें गुजर रही हैं और मिसेज वासवानी कह रही हैं, ‘प्रमिला ने शाम को बुलाया है, चलोगे न डियर? कार आ जाएगी। ठीक है न?

वासवानी स्वीकृति में सिर हिला रहा है।

कारों में जाती हुई औरतें मुस्कराते हुए एक-दूसरे से बिदा ले रही हैं और बाय-बाय की कुछेक आवाजें आ रही हैं। कारें स्टार्ट होकर जा रही हैं।

अतुल मवानी और सरदारजी भी रीडिंग रोड, बस स्टॉप की ओर बढ गए हैं और मैं खडा सोच रहा हूँ कि अगर मैं भी तैयार होकर आया होता तो यहीं से सीधा काम पर निकल जाता। लेकिन अब तो साढे ग्यारह बज चुके हैं।

चिता में आग लगा दी गई है और चार-पाँच आदमी पेड के नीचे पडी बैंच पर बैठे हुए हैं। मेरी तरह वे भी यूँ ही चले आए हैं। उन्होंने जरूर छुट्टी ले रखी होगी, नहीं तो वे भी तैयार होकर आते।

मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि घर जाकर तैयार होकर दफ्तर जाऊँ या अब एक मौत का बहाना बनाकर आज की छुट्टी ले लूँ आखिर मौत तो हुई ही है और मैं शवयात्रा में शामिल भी हुआ हूँ।

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About The Author – Kamleshwar

Kamleshwar AuthorKamleshwar was a prominent 20th-century Hindi writer, and scriptwriter for Hindi cinema and television. Among his most well-known work are the films Aandhi, Mausam, Chhoti Si Baat and Rang Birangi. He was awarded the 2003 Sahitya Akademi Award for his Hindi novel Kitne Pakistan, and also the Padma Bhushan in 2005.

कमलेश्वर हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं. कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया. उन्होंने फिल्मों के लिए पटकथाएँ तो लिखी ही, उनके उपन्यासों पर फिल्में भी बनी. १९९५ में कमलेश्वर को ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा गया और २००३ में उन्हें ‘कितने पाकिस्तान'(उपन्यास) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

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Image Credit: India Today

Meri Baatein
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