शहर में अकेला घूमना बहुत भयंकर, बहुत कष्टदायक होता है। हमेशा एक खटका सा बना रहता है। एक अजीब किस्म का डर। शुरू शुरू में उसे ‘कुछ हो जाने का डर सताता था’, जब उसने अकेले घूमना शुरू किया था। लेकिन अब उसे ‘कुछ ना होने’ का डर सताने लगा है।
ज़िन्दगी के पैंतीस बसंत उसने देख लिए थे, लेकिन अब तक कुछ ऐसा नहीं किया उसने जिसपर उसे गर्व हो। ‘कुछ बनने’ वह इस शहर में आया था, लेकिन अब वह बस भीड़ में खोया एक बहुत ही सामान्य सा चेहरा वाला बेरोजगार व्यक्ति बन चुका था, जिसपर किसी की निगाह नहीं जाती और गलती से अगर चली भी जाती है तो ठहरती नहीं।
वह एक बड़े शहर में रहता था, जहाँ उसके जान पहचान वाले काफी थे। सभी लोग कामकाजी थे, बस एक वह ही बे-काम था। और जैसा कि अक्सर होता है, बे-काम वाले लोगों का कहीं काम नहीं होता, कोई उन्हें पूछता नहीं, और यदि भूले-भटके कोई पूछ भी देता कभी तो हमेशा उसके प्रति हमदर्दी दिखाता।
उसे हमदर्दी या सहानुभूति से दिक्कत नहीं थी, उसे तकलीफ उस सहानुभूति में छिपे कटाक्ष से होती थी जो कोई न कोई दोस्त अक्सर कर ही जाता था। एक ने तो तरस खा कर उसपर रहम करने की भी कोशिश की थी, यह कह कर कि दफ्तर आना, तुम्हारी नौकरी लगवा दूँगा।
चिढ़ सी होने लगी थी उसे अपने ही दोस्तों से। अक्सर सोचता वह कि ये कैसी दोस्ती है जिसमें एक दोस्त दूसरे के ऊपर रहम करता है? धीरे-धीरे उसने दोस्तों के पास आना-जाना कम कर दिया।
उसकी नाकामयाबी के यूँ तो बहुत सी वजहें थीं, जिसमें कुछ उसकी गलती, कुछ गलत निर्णय और कुछ भाग्य का भी कसूर था। लेकिन उन वजहों का वह किसी से जिक्र नहीं करता था। शुरू में उसने एक करीबी मित्र को अपनी कहानी सुनाई थी। उसने उम्मीद की थी कि कम से कम वह उसके मन की बात समझ पाएगा। लेकिन उसने उसकी बात यह कह कर खारिज कर दी, कि ये सब तो बस बहाने हैं। तुमने काम को कभी सीरियसली लिया ही नहीं।
वह अकेले में सोचता, कि ऐसा कौन व्यक्ति होगा जिसे बेकार रहना पसंद होगा? खाली जेब लेकर शहर में घूमना किसे पसंद है?
रात-रात भर उसे नींद नहीं आती। बेचैन रहने लगा था वह। घर की दीवार में लगे एक कैलेंडर पर उसने बहुत दिन पहले कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं। अक्सर उसकी निगाह उस शेर पर चली जाती और उसे पढ़ते ही उसकी आँखों में आँसू आ जाते –
बेदिली! क्या यूँ ही दिन गुजर जाएंगे
सिर्फ़ ज़िन्दा रहे हम तो मर जाएंगे
है ग़नीमत कि असरार-ए-हस्ती से हम
बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएंगे
जहाँ रात उसकी बेचैन कर देने वाली होती वहीं दिन सुकून वाले होते थे। दोपहर के समय में मेट्रो में घूमना उसे पसंद था। मेट्रो में उसे इस बात का इत्मिनान रहता कि वह तनहा नहीं है। खुद के जैसे, ज़िन्दगी से हारे हुए उसे कई चेहरे दिख जाते थे मेट्रो में।
वह अक्सर मेट्रो के आखिरी डब्बे में सफर करता, वहाँ भीड़ कम होती थी। उसके बैग में किताबें, अखबार, और मैगजीन्स होते जिसे वह मेट्रो में बैठकर पढ़ता था।
वह जनवरी का कोई दिन रहा होगा। खूब अच्छी सर्दी की धूप निकली हुई थी। दोपहर महरौली के खंडहरों में बिताने के बाद वह कुतुब मीनार स्टेशन पर खड़ा मेट्रो का इंतजार कर रहा था।
मेट्रो आई। वह खाली थी। उसे हल्की सी खुशी भी हुई कि आज इत्मिनान से मैगजीन पढ़ सकेगा। अपने बैग से उसने मैगजीन निकाला ही था कि उसकी नजर अचानक डब्बे के आखिरी सीट पर बैठे एक बुजुर्ग व्यक्ति पर गई, जो उसकी तरफ देख कर मुस्कुराते हुए हाथ हिला रहे थे।
लड़के को थोड़ा आश्चर्य हुआ। शुरू में तो उसे लगा कि वह किसी और को इशारा कर रहे हैं, लेकिन वह उसी की तरफ देख रहे थे। लड़के ने भी जवाब में दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें प्रणाम तो कर दिया लेकिन वह थोड़ा विस्मित सा था।
कोई पक्की जान पहचान नहीं थी उस बुजुर्ग से लड़के की। बस ऐसे ही आते जाते एक दूसरे को पहचानते थे। न तो उन्हें लड़के का और न लड़के को उनका नाम पता था। बस चेहरे से एक दूसरे को जानते थे।
पचपन साठ की उम्र होगी उनकी, और उन दिनों वे लड़के को हर जगह नजर आते थे। कनॉट प्लेस के हनुमान मंदिर के पास चाय पीते हुए, पटेल चौक पर छोले कुलचे खाते हुए, लोधी गार्डन, पुराना किला के खंडहरों में टहलते हुए, या ऐसे ही कभी मेट्रो में घूमते हुए। यह लेकिन पहला मौका था जब उन्होंने खुद से लड़के को ग्रीट किया था।
सर्दियों में अक्सर वह एक पुराना ओवरकोट और बूट्स पहने रहते। उनके बूट्स काफी पुराने थे और हर जगह धागों से सिले हुए थे। जूते की इतनी बार मरम्मत हो चुकी थी कि बस धागे ही धागे नजर आ रहे थे उनपर। कोई सेलेब्रिटी वैसा बूट्स पहनता तो संभव है कि वह जूता फैशन स्टेटमेंट बन जाता। लेकिन यहाँ इनकी अपनी मजबूरी रही होगी। नए जूते खरीदने के पैसे नहीं होंगे पास में। एक ही जूते की मरम्मत करवा कर जाने कितने सालों से काम चला रहे होंगे।
लड़का उनके जूते को हमेशा बड़े ध्यान से देखता, वह सोचता जाने कहाँ कहाँ भटका होगा ये जूता उनके साथ। जाने उनकी कितनी ही कहानियाँ, कितने ही रहस्य यह जूता जानता होगा। शायद हर व्यक्ति का रहस्य उसके जूते को पता होता है।
उनके हाथ में हमेशा एक मोटी सी डायरी रहती जिसमें वह बड़ी तन्मयता से लिखा करते। कोई बैग नहीं रखते थे अपने पास वह, बस हाथ में डायरी और कोट की जेब में कलम लिए वह घूमते रहते थे। वह अपनी डायरी लिखने में इतने व्यस्त रहते कि आसपास के लोगों की तरफ उनकी नजर ही नहीं जाती थी। लड़का उनको देख कर हमेशा अंदाजा लगाने की कोशिश करता कि आखिर ये डायरी में लिखते क्या होंगे? नॉवेल? कोई कहानी? या अपनी आत्मकथा?
वह अक्सर अपने कानों में रुई लगाए रहते थे, वह भी इतनी ज्यादा मात्रा में कि रुई उनके कानों से बाहर लटक से जाते थे। लड़के को हमेशा उनकी ये बात रहस्यमयी सी लगती। एक बार जब लड़के की उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँच गई, तो लड़के ने उनसे पूछा कि क्या कानों में दर्द रहता है? इतने मोटे रुई क्यों डाले हैं कानों में?
कुछ देर तो वह चुप रहे, फिर कहा, ‘आज कल लोग कानों में ईयरफोन लगा कर घूमते हैं, वैसे ही मैं रुई लगाता हूँ’। थोड़ा ठहर कर उन्होंने आगे कहा, ‘इससे बाहर का शोर कम सुनाई देता है।’
लड़का कुछ देर अचरज भरी निगाहों से उन्हें देखता रहा, ‘अगर किसी ने पुकारा तो?’ लड़के ने सवाल किया। कुछ देर तक वह यूँ ही लड़के को देखते रहे, और फिर एक ठंडी सांस ली और कहा, ‘मुझे पुकारने वाला कोई नहीं इस दुनिया में।’
उस बुजुर्ग के आखिरी शब्द में कितना सारा दर्द भरा था। लड़के का दिल बैठ सा गया।
उस दिन से ही दोनों के बीच एक पहचान पनप गई थी। लड़का अक्सर जब भी उनको देखता, वह दूर से ही उन्हें प्रणाम कर देता, लेकिन वह जवाब में हमेशा बस एक सूखी मुस्कराहट दे देते, कहते कुछ भी नहीं थे। आज लेकिन पहला मौका था जब उन्होंने अपनी तरफ से लड़के को कुछ कहने की, हाल-चाल लेने की कोशिश की थी। इस वजह से लड़का थोड़ा खुश भी था।
वह आज कुछ बदले हुए से भी नजर आ रहे थे। ओवरकोट की जगह एक ऊनी कार्डिगन पहने हुए थे, अपने साथ एक छड़ी लिए हुए थे और सर पर एक हैट लगाए हुए थे। संभव है कि उनके लिए यह कोई खास दिन रहा होगा या किसी से वह मिलने जा रहे होंगे, तभी दूसरे अवतार में थे।
उनके इस रूप को देखकर लड़के को जाने क्यों बहुत पुराना कुछ याद आ गया – अपने बचपन के दिनों की जान पहचान वाली एक शक्ल – सिन्हा साहब।
सिन्हा साहब उसके नाना के सबसे करीबी मित्र थे जो अक्सर इसी वेशभूषा में दीखते थे – उनी कार्डिगन, सर पर हैट और हाथों में खानदानी छड़ी। बिना हैट और छड़ी के उसने कभी सिन्हा साहब को देखा हो ये याद नहीं उसे। वह अक्सर लड़के को प्यार से झड़क कर कहते, तेरे नाना के लिए मैं सिन्हा साहब हूँ, तेरे लिए नहीं। तू मुझे नाना ही कहा कर। लड़का लेकिन फिर भी उन्हें सिन्हा साहब ही कहता था।
बहुत ही खूबसूरत याद जुड़ी थी सिन्हा साहब के साथ लड़के की। वह अपने नाना के साथ बड़े दिन की छुट्टियों में हर दोपहर सिन्हा साहब के घर जाता। उनका काफी बड़ा सा बगीचा था जहाँ दो बड़े अमरुद के पेड़ थे और वहाँ बैठकर वह सर्दियों की धूप में खूब अमरुद खाया करता था।
स्कूल में मिला छुट्टियों का होमवर्क भी लड़का सिन्हा साहब के बगीचे में धूप में चटाई पर बैठ कर पूरा करता। नाना और सिन्हा साहब उसे पढ़ाते भी, उसका होमवर्क करवाने में उसकी मदद भी करते और उसे दुनियादारी की बातें भी समझाते। जाने क्यों दोनों को विश्वास था कि लड़का बड़ा होकर बहुत नाम कमाएगा, बहुत बड़ा व्यक्ति बनेगा।
नाना और सिन्हा साहब दोनों ने लड़के के हाथों में किस्मत की बड़ी लकीर देखी थी। खास कर लड़के के नाना को लड़के की कामयाबी पर खूब यकीन था। वह अक्सर लड़के को सीख देते थे, ‘बड़े हो जाने के बाद भी जमीन से जुड़े रहना’। ‘दुनिया कठोर है, उसका सामना करने के लिए कठोर दिल का होना आवश्यक नहीं है, कोमल हृदय से भी दुनिया जीत सकते हो तुम।’ वे दोनों लड़के को दिनकर और बच्चन की कविताएँ सुनाते।
वे उसके बचपन के दिन थे, वे सबसे सुखी दिन थे।
अब लेकिन बहुत कुछ बदल चुका था। बचपन कब का बीत गया था और लड़का बचपन की बातें याद नहीं करना चाहता। वे यादें उसे अक्सर बेचैन कर देती थीं। खास कर वह वक्त जब उसके दसवीं के इम्तेहान थे और कुछ दिन पहले ही उसके नाना चल बसे थे।
उसे याद है नाना के जाने के समय वह कितना फूट-फूट कर रोया था। नाना के जाने के सप्ताह भर बाद ही सिन्हा साहब चल बसे थे। लड़का उन दिनों ये सोचता कि दोनों में कितनी अच्छी दोस्ती रही होगी कि एक दूसरे के बिना वह रह न सके, और नाना के पीछे पीछे सिन्हा साहब भी चल दिए।
नाना की याद आते ही लड़के के आँखों में आँसू छलक आए थे। वह मेट्रो की खिड़की से बाहर आसमान की तरफ देखने लगा।
‘आप तो कहते थे मेरे हाथों में किस्मत की बहुत बड़ी सी लकीर है? कहाँ है?, बताइए?’ वह मन ही मन नाना से सवाल करने लगा।
आसमान से जवाब कुछ भी नहीं आया।
‘नहीं बताएँगे आप, जानता हूँ मैं! जल्दी आकर पूछूँगा आपसे और साथ ही यह भी पूछूँगा कि क्यों चले गए इतनी जल्दी? क्या आप नहीं जानते कि बड़े होते बच्चे के लिए माँ-बाप से भी ज्यादा जरूरी होता है नाना और दादा का साथ होना। और आप उस साथ को तोड़ कर चले गए?’
कुछ देर तक वह आसमान को बस ताकता रहा और फिर चुपचाप आँख से ढलके आँसू को रुमाल से पोंछ कर अपनी नोटबुक में कुछ लिखने लगा।
‘या तो थोड़ी हिम्मत ही दे दो, या मुझे ही पास बुला लो..’
लड़के ने नोटबुक बंद कर दी। मन भर आया था लड़के का। उसे किसी से बात करने की तीव्र इच्छा हुई। उसने सामने देखा, वह बुजुर्ग अपनी डायरी में खोए हुए थे। लड़के ने सोचा कि आज उनसे बात किया जाए, लेकिन वह अपनी डायरी में इस कदर व्यस्त थे कि उन्हें डिस्टर्ब करना उसने उचित नहीं समझा।
उसने आँखें बंद कर ली। कानों में ईअरफोन लगा लिया, रेडियो पर बेहद तन्हा कर देने वाली आवाज में भूपी गा रहे थे..
दिन खाली-खाली बर्तन है
और रात है जैसे अंधा कुआं
इन सूनी अंधेरी आँखों में
आँसू की जगह आता है धुआं
जीने की वजह तो कोई नहीं
मरने का बहाना ढूँढता है
आखिरी लाइन पर लड़के ने गाना बंद कर दिया। कान से ईअरफोन निकाल लिया और फिर से मेट्रो की खिड़की से बाहर देखने लगा। जनवरी की बहुत ही अच्छी, मखमली सी धूप निकली हुई थी। आज मरने की बात नहीं सोचनी चाहिए, लड़के ने सोचा।
उसने अपनी नोटबुक खोली और आखिरी लिखी लाइन को काट कर उसके नीचे लिख दिया – एक कोशिश और!
नहीं झुका करते जो दुनिया
से करने को समझौता,
ऊँचे से ऊँचे सपनों को
देते रहते जो न्योता,
दूर देखती जिनकी पैनी
आँख भविष्यत का तम चीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
जो अपने कंधों से पर्वत
से बढ़ टक्कर लेते हैं,
पथ की बाधाओं को जिनके
पाँव चुनौती देते हैं,
जिनको बाँध नहीं सकती है
लोहे की बेड़ी-जंजीर;
मैं हूँ उनके साथ खड़ी जो
सीधी रखते अपनी रीढ़।
– हरिवंश राय बच्बचन