इस भाग दौड़ की ज़िन्दगी में याद आता है – एक वो भी था ज़माना, एक ये भी है ज़माना..

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बारिश हो रही हो, मौसम सुहाना हो गया हो और ऐसे में अगर कुछ पुराना याद आ जाए तो जाने क्या हो जाता है मन को. बेचनी सी हो जाती है, इस भाग दौड़ की ज़िन्दगी में भागते हुए मन पीछे देखने लगता है, वो पुराना वक़्त जो बीत चूका है और जो अब लौट कर वापस नहीं आ सकता. ना ही पुराने लोग वापस आ सकते हैं.

वक्त बदलते रहता है, जिंदगी कभी एक सी नहीं रहती…कुछ लोगों के लिए ये बदला वक्त खूबसूरत होता है तो कुछ लोगों के लिए बेरहम..बदलता वक्त जिंदगी की सबसे बड़ी और कड़वी सच्चाई है. और अक्सर बदलते वक़्त को देखते हुए, मन थोडा विचलित हो जाता है. अनजाने ही मन पुराने दिनों में लौटना चाहता है.

मेरे मोबाइल के प्ले लिस्ट पर बहुत से गाने हैं जो ऐसे मूड से लड़ने के उद्देश्य से रखे गए हैं, लेकिन ये गाने अक्सर मुझे अवसाद की खाई में धकेल देते हैं. अवसाद कहना भी ठीक नहीं होगा, लेकिन कुछ वैसा ही महसूस होता है, जब भी मैं पंकज उधास द्वारा गाया इस ग़ज़ल को सुनता हूँ, जिसे लिखा है ज़फर गोरखपुरी ने. जो बीते समय और आने वाले वक़्त की हकीकत को खूबसूरती से बयाँ करता है.

आज इतवार के दिन इस ग़ज़ल को सुनिए, और दो मिनट शांत बैठ कर महसूस कीजिये इसे –

दुःख सुख था एक सबका
अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना
एक ये भी है ज़माना

दादा हयात थे जब, मिटटी का एक घर था
चोरों का कोई खटका, न डाकुओं का डर था
खाते थे रुखी सुखी, सोते थे नींद गहरी
शामें भरी भरी थी, आबाद थी दुपहरी
संतोष था दिलों को, माथे पर बल नहीं था
दिल में कपट नहीं था, आँखों में छल नहीं था…

थे लोग भोले भाले, लेकिन थे प्यार वाले
दुनिया से कितनी जल्दी, सब हो गए रवाना…

दुःख सुख था एक सबका
अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना
एक ये भी है ज़माना

अब्बा का वक़्त आया, तालीम घर में आयी
तालीम साथ अपनी, ताज़ा विचार लायी
आगे रवायतों से बढ़ने का ध्यान आया
मिटटी का घर हटा तो, पक्का मकान आया…
दफ्तर की नौकरी थी, तनख्वाह का सहारा
मालिक पे था भरोसा, हो जाता था गुज़ारा
पैसा अगर च कम था, फिर भी न कोई गम था
कैसा भरा पूरा था, अपना गरीब खाना..

दुःख सुख था एक सबका
अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना
एक ये भी है ज़माना

अब मेरा दौर है ये, कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला, हर चेहरा अजनबी स
आंसूं न मुस्कराहट, जीवन का हाल ऐसा
अपनी खबर नहीं है, माया का जाल ऐसा
पैसा है मर्तबा है, इज्जत वी कोर भी है
नौकर हैं और चाकर, बंगला है कार भी है
जर पास है ज़मीन है, लेकिन सुकून नहीं है
पाने के वासे कुछ क्या क्या पड़ा गँवाना

दुःख सुख था एक सबका
अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना
एक ये भी है ज़माना

ऐ आने वाली नस्लों, ऐ आने वाले लोगों
भोग है हमनें जो कुछ वो तुम कभी न भोगो
जो दुःख था साथ अपने तुम से करीब न हो
पीड़ा जो हमनें झेली,  तुमको नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम, जिंदा रहे अकेले
वो ज़िन्दगी की महफ़िल तुमसे न कोई ले ले
तुम जिस तरफ से गुजरों, मेला हो रौशनी का
रास आये तुमको मौसम इक्कीसवीं सदी का
हम तो सुकून को तरसे, तुमपर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में, जीवन लगे सुहाना…

दुःख सुख था एक सबका
अपना हो या बेगाना
एक वो भी था ज़माना
एक ये भी है ज़माना

Meri Baatein
Meri Baateinhttps://meribaatein.in
Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस – पुरुषोत्तम दास टंडन और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।

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