एक छोटी बच्ची और उसका फूलों का गुलदस्ता..

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बात आज शाम की है, जब मैं ऑफिस से वापस घर आ रहा था। एक ऐसी बात हुई जो वैसे तो कोई बड़ी नहीं थी, लेकिन मैं बड़ी देर तक सोचता रहा। पता नहीं ये बात ब्लॉग पे पोस्ट करनी चाहिए या नहीं, लेकिन मैं पोस्ट कर रहा हूँ।

मैं बैंगलोर में रहता हूँ और यहाँ ऐ.सी. वोल्वो बस बहुत चलती है। ज्यादातर रूट के लिए ऐ.सी. वोल्वो बस हैं और जिस जगह मैं काम करता हूँ वहां के लिए वोल्वो बस की फ्रीक्वेंसी बहुत है। तो मैं आमतौर पे हमेशा वोल्वो बस से ही वापस घर आता हूँ। एक आदत सी बन गई है, इसके लिए अब इंतजार करना भी पड़े तो कोई दिक्कत नहीं होती मुझे। आज भी 15 मिनट इंतजार किया, तब जाकर बस मिली। आज का मौसम भी बड़ा अच्छा था, कल रात बारिश हुई बैंगलोर में और दिन काफी अच्छा हो गया। मैं जैसे ही ऑफिस से बाहर निकला और बस स्टैंड की तरफ पहुँचा, वहाँ ज्यादा भीड़ तो नहीं थी, तो मैं एक कोने में खड़ा हो गया और बस के आने का इंतजार करने लगा। अभी ऐसे ही नज़रें इधर-उधर गईं तो देखा कि कुछ बच्चे जो काफी गरीब दिख रहे थे, वो बस स्टैंड के एक कोने में कुछ खेल रहे थे। शायद पिट्टो (जो हम लोग बचपन में खेलते थे), बड़े प्यारे लग रहे थे वो बच्चे। उन्हीं में से एक बच्ची थी, बहुत प्यारी लग रही थी लेकिन बेहद गरीब भी। वो फूलों का छोटा सा गुलदस्ता बेच रही थी वहीं। वहाँ वो बस स्टैंड पे खड़े काफी लोगों के पास गई, लेकिन हर कोई उसे भगा दे रहा था। पता नहीं क्यों, वो मेरे पास नहीं आई। वो बच्ची सबको ऐसे हसरत भरे नज़रों से देख रही थी, जैसे उसका गुलदस्ता कोई न कोई खरीदेगा जरूर। शायद उसके मन में ये भी चल रहा होगा, कि सब लगभग पैसे वाले लोग खड़े हैं यहाँ, लेकिन एक छोटा सा फूलों का गुलदस्ता लेने के लिए किसी के पास पैसे नहीं। मैं बस उस बच्ची को देखे जा रहा था, और पता नहीं कैसे-कैसे ख्याल आ रहे थे मन में। थोड़ा मन उदास भी हो गया कि इन बच्चों की ऐसी हालत है, इस उम्र में पढ़ाई करनी चाहिए और खेल खेलना चाहिए, और ये तो फूलों का गुलदस्ता बेच रही है। थोड़ी देर रुकने के बाद जब मुझसे रहा नहीं गया तो उसके पास गया, उसने बड़े प्यार से एक छोटा सा फूलों का गुच्छा वाला गुलदस्ता दिया और बोला, “भैया, बस 23 रुपये का है।” मैंने पॉकेट से 30 रुपये निकाले और उसे दे दिए, इतने में मेरी बस भी आ गई और मैं बिना पीछे मुड़े बस की तरफ चल दिया। वो पीछे से मुझे बुला रही थी, शायद बचे हुए 7 रुपये देने के लिए, लेकिन मुझे वो पैसे लेना गंवारा नहीं लगा, पता नहीं क्यों और बस में चढ़ गया।

जब तक घर नहीं पहुँचा, तब तक उस बच्ची के बारे में ही सोचता रहा। ये भी सोचता रहा कि हम कितनी भी इन बच्चों के बारे में बात कर लें, लेकिन हम इन सब विषयों पर कुछ कर नहीं सकते। अपने आप को बहुत छोटा भी महसूस कर रहा था। फिर सोचा कि जिंदगी यही है, हज़ार रंग हैं यहाँ, उसमें से ये भी एक रंग ही है…

इस बात का बहुत अफ़सोस है मुझे कि वो फूलों का गुलदस्ता बस में मेरी सीट पर रह गया। पता नहीं, शायद मैं कुछ ज्यादा ही दूर चला गया था अपने सोच में कि गुलदस्ता के बारे में ध्यान ही नहीं रहा। अभी खराब भी लग रहा है कि वो स्वीट सा फूलों का गुलदस्ता बस में रह गया। 🙁

पता नहीं क्यों, ऐसे ही दिल किया यहाँ ये पोस्ट करने का…

  1. बहुत प्यारा पोस्ट.
    सच कहा, इस उम्र में उस बच्ची को स्कूल बैग लेके घूमना चाहिए लेकिन उसके कोमल हाथों में उसके परिवार के शाम के खाने का भार था. मैंने एक एन जी ओ ज्वाइन किया है – "आशा फॉर एजुकेसन" जिसमे हम छोटे छोटे प्रोजेक्ट्स लेते हैं बच्चों को पढाने का. कतरा कतरा करके ही तो सागर भी भरा है. अपना एक कतरा मैं भी डाल दूं.

  2. बहुत प्यारा पोस्ट है अभिषेक !
    अच्छा किया पोस्ट कर दिया यहाँ 🙂

  3. अच्छा लगा पढ़ कर. यही संवेदनाएँ जब तक जीवित हैं, आशा की कुछ किरण बाकी है.

  4. जिन्दगी के में बहुत कुछ दिल को दर्द देता है हार मोड़ पर क्या करें समझ में नहीं आता………..उस बच्ची के लिए कहूँगा …ये जिन्दगी गले लगा ले हमने भी तो तेरे हर गम को गले से लगाया है ना ……..उस बच्ची के पीठ पर भी पढाई का बस्ता दिखाई दे……

  5. कभी कभी ज़िन्दगी मे कुछ ऐसा घटित हो जाता है जिस के बारे मे हम कुछ कर भी नही सकते और सोचने को मजबूर होते है……………आपने तो फिर भी सही कदम उठा लिया वरना लोग तो देख कर अनदेखा करते ही है।आपकी पोस्ट कल के चर्चा मंच पर है।

  6. शुक्रिया वन्दना जी.. 🙂
    खुशी हुई हमें बहुत 🙂
    कल का इंतज़ार करेंगे 🙂

  7. हम चाह कर भी सबके लिए कुछ नहीं कर पाते…बड़े अफसोस की बात है…लेकिन सब मिलकर पहल करें तो बात बन सकती है

  8. Guddiezz gud ! Acha laga dekh k younger generationzz self employmnt ko kinna zor deti hai ! 😀 😀

    but ek baat toh hai govt. chahe jinne planss bana le but primary education ab bhi ek law sa banke reh gya hai… statss chahe kuch bhi bataye but aj kahi bhi dekho toh bacchee aksar red lights pe bechte hue mil hi jate hai….
    aur zada planss n actionzz ki zarurat hai…

  9. अभिषेक, ब्लॉग्गिंग इसी को कहते हैं… बहुत अच्छी पोस्ट है, जो ये दिखाती है कि आप कितने संवेदनशील हैं.

  10. बहुत ही संवेदनशील पोस्ट, क्या कहूँ…इतना दुखी हो जाता है,मन…कुछ दिनों के लिए एक संस्था 'हमारा फुटपाथ' में काम किया था…स्ट्रीट चिल्ड्रेन का हाल इतना बुरा है कि दिल भर आता है…ये मासूम जिनके खेलने खाने के दिन हैं….दो रोटी की जुगाड़ में लगे हैं…

  11. "हम कितनी भी इनके बारे में बात कर लें लेकिन हम इन सब विषयों पे कुछ कर नहीं सकते हैं.अपने आप को बहुत छोटा भी महसूस कर रहा था.."
    यही अहसास हमें अपना धरातल दिखा जाता है

  12. पता, जब तक दिल काम कर रहा है तब तक ही हम जिंदा हैं, दिमाग तो बस यूँ ही दे दिया है भगवान् ने.. उसके काम करने या नहीं करने से जिंदा होने की परिभाषा नहीं दी जा सकती… बस एहसास जिंदा रहने चाहिए….
    खुबसूरत और मन को छूने वाली पोस्ट..

  13. ऐसी कोई बात हो और तुम्हे गहरे तक न छुए…नॉट पॉसिबल…| सच कहें, तो बहुत बुरा लगता है बच्चो को खेलने -पढने की उम्र में यूँ काम करते देखना…| फिर भी रोज़ देखते हैं यहाँ-वहाँ…| तुम्हारी पोस्ट शायद बहुतों को कुछ सोचने पर मजबूर कर देगी…| और गुलदस्ते का गम काहे कर रहे भाई…किसी को तो मिला होगा…और जिसको मिला होगा, उसकी शाम भी महक गयी होगी तुम्हारे कारण…|
    देखो तो…तुम फिर वजह बन गए न किसी के मुस्कराने की…:)

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