“इंजीनियरिंग के वो दिन – कुछ और किस्से”

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जब तक कॉलेज में रहा, कभी तन्हाई का अहसास नहीं हुआ। आसपास हमेशा ऐसे दोस्त रहे जिन्होंने कभी अकेला रहने नहीं दिया। वैसे तो सभी लड़कों से दोस्ती का ही रिश्ता था, लेकिन बस २-३ ही ऐसे मित्र रहे वहां जिनसे मैं बेहद करीब था और जिन्हें मेरे दिल की सभी बातें पता रहती थीं। उनके साथ अक्सर अपने पुराने दिनों की बातें करता था, पटना के दिनों की बातें उन्हें बताता था..लेकिन उन दिनों मुझे अपनी बातें करने से ज्यादा अच्छा लगता था उनकी बातें सुनना। इंजीनियरिंग में मेरा सबसे अच्छा मित्र अकरम, उसके साथ रात भर इधर उधर की बातें करता रहता था, उसके किस्से सुनने में एक अलग ही मजा आता था, और मजेदार किस्से भी रहते थे उसके..वहां मुझे अहसास हुआ की अपने दिल की बात कहने में खुशी तो मिलती है लेकिन कहीं ज्यादा सुख देता है दोस्तों की बातों को सुनना। अकरम, आशीष, आशीष भारती, संकल्प, समित..ये पांच लोग ऐसे थे जिनसे मैंने लगभग हर बात शेयर किया है। इस कड़ी में पेश है वैसे ही कुछ लम्हे अपने कॉलेज के…

रितिका (रेस्ट्रांट)

ये बात आप हमारे कॉलेज में किसी भी एक्स-स्टूडेंट से पूछ लें, चाहे तो पोल ही करवा लें की उनका फेवरिट रेस्ट्रांट कौन सा है..सबके ज़बान पे एक ही नाम आएगा – रितिका बार एंड रेस्ट्रांट। हैदराबाद, बैंगलोर में कितने ही अच्छे रेस्ट्रांट में मैंने खाया है, लेकिन फिर भी रितिका के मेनू या खाने का जिक्र आ जाए तो मुँह में पानी आ ही जाता है, और रितिका के खाने में जो स्वाद मिलता था, उसके मुकाबले बड़े बड़े रेस्ट्रांट के खाने का स्वाद फीका लगने लगता है। एक दिन यूँ ही एक लड़के ने पूछ लिया – भइया आप इतना रितिका रेस्ट्रांट का नाम बोलते रहते हैं, ये बताइए की अगर रितिका में डिनर करने के सामने लीला पैलेस में डिनर करने का ऑफर मिले तो आप कौन सा चुनेंगे? मैंने कहा की – ब्रो, ईट विल बी रितिका एनीडे 🙂। बेचारा वो कुछ सोच में पड़ गया और पूछा मुझसे की क्या वहां का खाना इतना अच्छा है? मैंने कहा – भाई ये तो नहीं पता की तुम्हें वहां का खाना कितना पसंद आएगा, लेकिन हम जैसे लोगों के लिए तो वहां से बेहतर खाना कहीं नहीं मिलेगा, अब चाहे इसके पीछे रितिका से जुड़े चार साल का रिश्ता हो या कुछ और। सच्चाई तो ये है।

रितिका जाने का समय ज्यादातर रात का ही होता था..रितिका टाउन से लगभग ४-५ किलोमीटर की दूरी पे था और हम लोगों के पास बाइक भी नहीं थी, तो हम लोग ऑटो में ही जाते करते थे। रास्ता बिलकुल खुला हुआ, दोनों तरफ खाली मैदान, लंबे घने पेड़ और ऊपर नीचे आती जाती सड़कें..ऑटो पे फुल साउंड में बाजा(गाना) बजता था और रात के सन्नाटे में उन खुली सड़कों पे ऑटो से गुजरना, एक रोमांच से कम नहीं रहता था। हम हमेशा रितिका में टेरेस पे बैठते थे..खुली हवा में डिनर करने का मजा ही कुछ और होता है..अगर कभी ज्यादा लड़के हो जाते थे तो रितिका के टेरेस पे ही एक कॉटेज बना हुआ था…हम सभी उसी में बैठते थे…खाना खाते अमूमन ११-१२ बजे ही जाते थे, उतने रात में नेशनल हाइवे से वापस टाउन आने में जो मजा आता था उसे शब्दों में ढाल नहीं सकता। बसवाकल्याण बड़ा शांत जगह रहा है हमेशा से, तो उतनी देर से वापस आने में भी कभी किसी किस्म का डर नहीं रहता था। शायद रितिका में डिनर करने से ज्यादा मजा रितिका आने जाने में आता था। खाने के रेट के मामलों में भी रितिका बड़ा ही किफायदी रेस्ट्रांट रहा है। मुझे सबसे ज्यादा पसंद थे – चिकन रितिका स्पेशल और पनीर बेगम-बहार। रितिका में जैसा जीरा राइस बनता था, वैसा जीरा राइस मैंने फिर कभी कहीं नहीं खाया।

छत पे गुजरी वो रातें

मेरे छत पे, अकरम के साथ आह ! क्या दिन थे वो.. रात को रितिका से खाना खा के १०-११ बजे वापस आना और फिर छत पे डेरा डाल के बैठ जाना। उस समय ना तो जीमेल का झंझट था, ना कोई ऑरकुट का जाल और नहीं फेसबुक का जंजाल..ये सब आज के चक्कर हैं, जिनमें आजकल के छात्र उलझे हुए हैं..हम लोगों को तो बहुत बाद(इंजीनियरिंग के आखिरी साल) में इन सब चक्करों के बारे में पता चला। जाने कितनी ही रातें कटी हैं हमारी छतों पे..आशीष, अकरम या फिर संकल्प, ये तीन दोस्त थे जो अक्सर छत पे मेरे साथ रात भर रहते थे….कितनी बार हमने छत पे पूरी रात गुजारी है…अक्सर ऐसा भी होता था कि गर्मी के दिनों में हम छत पे ही सो जाते थे। छत पे सोने के दो फायदे थे, एक तो नींद बड़ी अच्छी आती थी और दूसरी की सुबह सुबह ही नींद टूट भी जाती थी। एक ऐसी आदत हो गई थी हम लोगों की, कि हर रात जब तक एक बार छत के चक्कर ना काट लें, हमें नींद नहीं आती थी…छत पे बिताए सबसे अच्छे पलों में रहे हैं संकल्प और आशीष के साथ बिताए वक्त..वैसे तो ये दोनों काफी मजाकिया और कूल टाइप लोग हैं लेकिन कभी-कभी ये भी थोड़े इमोशनल और बेहद गंभीर हो जाते थे..इन दोनों के साथ पता नहीं कितने ही टॉपिक पे मैं लगातार घंटों तक बात करता रहता था। चाहे गर्मी के दिन हों या जाड़े के, हमारा छत पे घूमना कभी बंद नहीं हुआ…हाँ बस ये था कि जाड़े के दिनों में छत पे सोने की हिम्मत हमने कभी नहीं की :).

युसूफ चाय दुकान

Basavakalyan photo

हम लोगों का सबसे बड़ा हैंग आउट पॉइंट। रात हो या दिन, हर कोई आपको यहाँ उपलब्ध मिलेगा। सुबह पांच बजे से ही खुल जाता था युसूफ चाय दुकान और देर रात १२ बजे तक बंद होता था। हम लोगों का हाल ऐसा था कि पूरी शाम यही चाय दुकान पे गुजरती थी। युसूफ तो हमें ऐसे जान पहचान गया था कि जैसे ही हम सुबह पहुँचते थे दुकान, वैसे ही एक गिलास पानी, एक बिस्कुट, और एक चाय ला के दे देता था..बिना कुछ कहे। कह लीजिए कि युसूफ चाय दुकान पे बिताए गए वक्त, सबसे यादगार पलों में से हैं। आप युसूफ चाय दुकान की कहानी इस पोस्ट में भी पढ़ चुके हैं। इसलिए अभी ज्यादा नहीं लिख रहा हूँ।

कॉलेज में पॉपुलैरिटी
कॉलेज में वैसे तो मेरे से पॉपुलर बहुत से लोग थे, लेकिन थोड़ी बहुत मेरी भी इमेज बन गई थी। सबसे पहली इमेज मेरी बनी थी वो थी – लो अटेंडेंस वाले लड़के की इमेज..जिससे मेरे एच.ओ.डी खासे नाराज़ रहते थे। 🙂 पहले सेमेस्टर में एक विषय था कंप्यूटर का -सी प्रोग्रामिंग बेसिक। हमारे टीचर थे विजय सर। वो मेरे से खासे नाराज़ रहते थे इस अटेंडेंस के चक्कर में..उनके दिमाग में ये बात भी थी कि ये लड़का पढ़ाई नहीं करेगा, फेल कर जाएगा..लेकिन पहले सेमेस्टर के एक्जाम में मुझे आए ७५/१००, जो कि क्लास में सबसे ज्यादा थे। विजय सर तो इस रिजल्ट को लेकर अचकचा गए थे, कहने की बात नहीं है कि उन्हें मेरे से बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी…उन्होंने फिर बताया भी मुझे बाद में, और अच्छे नंबर आने की बधाई भी दी… 🙂
पांचवे सेमेस्टर के शुरूआती हफ्ते में, एक दिन एच.ओ.डी ने सबको बुलाया और कहा कि – तुम लोगों का इस सेमेस्टर का लैब यूनिक्स/लिनक्स पे आधारित है और अभी लैब के किसी भी कंप्यूटर में लिनक्स इंस्टाल नहीं है..लैब इंचार्ज भी ३ हफ़्तों की छुट्टी पे है, तुम लोगों में से किसी को आता है लिनक्स इंस्टाल करने? मैं सबसे पीछे खड़ा था, तभी किसी लड़के की आवाज़ सुनाई दी – सर, अभिषेक जी को आता है इंस्टाल करने। एच.ओ.डी ने मुझे बुलाया और कहा कि कल सुबह सुबह ही कॉलेज आ जाना और इंस्टाल कर देना। ये पहला मौका था जब एच.ओ.डी की नज़रों में मैं आया था..अगले दिन एच.ओ.डी ने मेरी थोड़ी बहुत क्लास में बड़ाई भी की, और उसी दिन से डिपार्टमेंट में सब मुझे थोड़ा बहुत जानने भी लगे।
एक हमारी टीचर थीं – अरुणा मैम। वैसे तो वो थोड़ी सख्त थीं, और शुरू शुरू में मुझे वो कुछ खास पसंद नहीं थीं..लेकिन फिर वो मुझे अच्छी लगने लगीं। पांचवे सेमेस्टर में ही हम लोगों का एक विषय था “सिस्टम सॉफ्टवेयर”। इस विषय के इंटरनल एक्जाम में मेरे नंबर थे १८/२५। अरुणा मैम ने मुझे बुलाया अपने केबिन में और पूछा मुझसे कि “इतने कम नंबर क्यों आए?” मैंने कुछ कहा नहीं..फिर उन्होंने पूछा कि “आर यू हैप्पी विद दिस नंबर?..मैंने सर झुकाए हुए ही कहा हाँ मैम..मैं एक्सटर्नल में अच्छे नंबर लाने की कोशिश करूंगा…उन्होंने मेरी तरफ देखा और फिर मुस्कुराते हुए उस १७ को २३ बना दिया। 🙂

कुर्ता-फाड़ होली

पहले दो साल तो होली में घर पे ही था मैं…फिर बाद के दो साल रहा कॉलेज में। यकीन मानिए, पटना में इस तरह से फुल सड़क छाप होली मैंने कभी नहीं खेली..इसलिए एक अलग मजा रहता था होली का। हम लोग एक ठेला किराए पे लाते थे, उसके बाद उस ठेला पे एक ठो स्टीरेओ और साउंड बॉक्स। फिर तो होली के सारे हिट्स गाने बजते थे, और वो ठेला लेकर हम लोग पूरे ब्सवाकल्याण का दौरा करते थे। पूरा सड़क छाप माहौल रहता था और हुड़दंग ऐसा मचाते थे लड़के की आसपास के लोग अपने दरवाजे बंद कर लेते थे, बस खिड़की से हमें देखते रहते थे 🙂 हम लोगों की टोली का आखरी स्टॉप रहता था गर्ल्स होस्टल के बाहर..यहाँ लड़के अच्छा खासा टाइम डेडिकेट करते थे, जोरदार नाच, गाना हंगामा होता था…लड़कियां कभी शिकायत कर भी देती थीं, लेकिन ये हल्ला-शोर उन्हें भी तो कहीं न कहीं भाता ही था.. 🙂

चित्रगुप्त पूजा

ऐसा संयोग रहा कि इंजीनियरिंग के चार साल में एक बार भी मैं दिवाली के मौके पे घर नहीं जा पाया। चित्रगुप्त पूजा दिवाली के बाद मनाया जाता है और हम कायस्थ लोगों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। जब पहले सेमेस्टर में था तो हमारे एक सीनियर पंचम सर ने चित्रगुप्त पूजा का आयोजन किया था और हमें बुलावा भेजा था। एक तो उस समय हम कॉलेज में नए नए आए थे, और दूसरा की सीनियर पूजा का आयोजन कर रहे थे.. तो हम खुल के पूजा का आनंद नहीं ले पाए… दूसरे साल भी पंचम सर ने ही चित्रगुप्त पूजा का आयोजन किया। इस समय तक हमारी अच्छी जान पहचान हो गई थी सीनियर के साथ। इस बार पंचम सर के साथ साथ हमने भी पूजा के आयोजन में अपना हाथ बंटाया, किसी भी पूजा का आयोजन मैं पहली बार कर रहा था, हालांकि ये छोटे स्तर पे ही था लेकिन फिर भी ये अनुभव बड़ा ही अच्छा लगा था उस समय। बाद के दो साल चित्रगुप्त पूजा का आयोजन मेरे ही फ्लैट में होने लगा, जिसमें मुख्य रूप से आयोजन का सारा भार हम तीन मित्र संभालते थे – समित, आशीष और मैं। एक दिन पहले से ही तैयारियां शुरू कर देते थे हम लोग, जूनियर को भी काम में लगा देते थे..हम कायस्थ लोग तो गिन चुंके १०-१२ ही थे, लेकिन बाकी के लड़के भी इस पूजा में बढ़ चढ़ के हिस्सा लेते थे। खुशी इस बात की थी कि हर कोई इस पूजा का बेसब्री से इंतजार करता था, क्योंकि हम लोग मिठाइयां बांटने में कभी कंजूसी नहीं करते थे। प्रसाद में लड्डू के साथ साथ २-३ तरह की मिठाइयां भी रहती थीं…तो ये भी एक वजह थी कि सभी इस पूजा का इंतजार करते थे। 🙂

इंजीनियरिंग स्टूडेंट और बीयर

जब पटना में था तो बड़े बुजुर्गों से कितनी बार ये नसीहत सुन चुका था कि नशा नहीं करना चाहिए, चाहे वो सिगरेट का नशा हो या फिर बीयर का। पटना में जो भी दोस्त रहे मेरे उनमें से किसी को भी सिगरेट/बीयर की आदत नहीं थी। उस समय पता नहीं क्यों, उन व्यक्तियों से मुझे नफरत सी होती थी जिन्हें सिगरेट या शराब पीते देखता था। इंजीनियरिंग में तो माहौल ही बदला हुआ था..हम ६-७ लड़कों के अलावा इस बीयर/सिगरेट का सेवन सभी लड़के पूरे जोर शोर से करते थे। शुरुआत में तो मैं जब किसी लड़के को सिगरेट/दारु पीते देखता तो अजीब सा लगता था। ये भी सोचता कि ये सब बिगड़े हुए लड़के होंगे। एक बार की बात है…पहले सेमेस्टर में था मैं..कुछ दोस्तों के साथ गया रितिका बार एंड रेस्ट्रांट, वहां एक मित्र ने बीयर का आर्डर दिया..वो जब आर्डर दे रहा था तो मैं बस भौंचक्का सा उसे देख रहा था..बड़े ही उग्र रूप में मैंने पूछा उससे, की यार तुम दारु भी पीते हो?..मुझे पता नहीं था..उसने बड़े ही आराम से जवाब दिया – दोस्त एक तो ये दारु नहीं, बीयर है,..दूसरी ये कि मैं बीयर, दारु, सिगरेट सब पीता हूँ… ये सुन उसी वक्त मैंने ये सोच लिया था कि ये लड़का बिगड़ा हुआ है और इसका कुछ नहीं हो सकता। लेकिन थोड़े ही दिनों में मेरी ये गलतफहमी दूर हो गई, और उससे बहुत अच्छी मित्रता भी हो गई। वो लड़का था – आशीष भारती, जिसके बारे में मैंने इस पोस्ट में जिक्र किया है।

यह बात कहने का मेरा सिर्फ एक ही उद्देश्य है- कि बहुत से ऐसे लोग हैं जो ये सोचते हैं कि अगर कोई नशा करता है तो वो एक खराब/बिगड़ा हुआ/कैरेक्टरलेस लड़का है। जबकि ऐसी बात बिलकुल नहीं है, नशा करने से कोई व्यक्ति बुरा नहीं होता..बुरा अगर कुछ होता है तो सिगरेट/शराब पीने की ये आदत। ऐसे में कितने ही लोगों से मिल चुका हूँ जो किसी व्यक्ति से बस इसलिए नफरत करते हैं कि वो व्यक्ति नशा करता है। इंजीनियरिंग के मेरे कई ऐसे मित्र हैं, जिन्हें हम दोस्त लोग अक्सर बीयर/शराब पीने के मामलों में “टैंकर” कह के बुलाते थे..वो बस इसलिए कि उनके पीने की वैसी क्षमता थी। लेकिन इसके बावजूद उन्हें कोई भी किसी भी प्रकार से बिगड़ा हुआ या खराब लड़का नहीं कह सकता था..हर टीचर उनकी बड़ाई करते नहीं थकते थे।
इंजीनियरिंग और दारु, सिगरेट का तो चोली दामन का साथ रहा है, बहुत कम ऐसे इंजीनियरिंग छात्र मिलेंगे जो नशा नहीं करते हैं। हमारे कॉलेज में मैं, अकरम, विवेक, चार और लड़के अपवाद थे..बाकी सभी तो दारु/सिगरेट में डूबे रहते थे.. 🙂

इंजीनियरिंग और मार-पिट

हर इंजीनियरिंग कॉलेज में मार-पिट होनी तो तय रहती है..मार पिट की भी बस दो वजह ही अधिकतर देखी जाती है – या तो लड़की या फिर लीडरगिरी। और सौभाग्य से हमारे कॉलेज में दोनों मैटर की कोई कमी नहीं थी..तीसरा मैटर बन गया था – नोर्थ-इंडियन, साउथ-इंडियन लड़ाई। पहले के दो साल हमारे कॉलेज में भी भयानक किस्म की मार पिट हुई, कोई कोई लड़ाई तो दिल दहलाने वाली भी हुई..अच्छी बात ये रही कि उन सब लड़ाई से मैं हमेशा ही दूर रहा। कॉलेज की राजनीति के भी कई लोग शिकार हुए, लेकिन मैंने हमेशा अपना दामन इन सब चीज़ों से बचाए रखा..इंजीनियरिंग की लड़ाई और राजनीति की बातें अगर हो सके तो आप एक अलग पोस्ट में पढ़ पाएंगे..

  1. अभि बचवा.. अपना मुँह से अपना होनहारी का खिस्सा सुना दिए… लेकिन इसमें कोनो हरजा भी नहीं है, एही सच है… सिगरेट बियर त एतना उमर में हमको कोनो नहीं पिला पाया, न जबर्दस्ती न प्रेम से… कैंटीन कॉलेज का हिस्सा होता है कोई नहीं भुलाता… पटना का कुर्ता फाड़ होली अऊर नाली में पटक कर बोथ करने वाला होली त अब इतिहास हो गया… कहीं भी रहें… दीवाली के दोसरा दिन पटना के लिए निकलना अऊर चित्रगुप्त पूजा सब साथ में अऊर छ्ठ के बादे लौटना.. बहुत कुछ याद आ गया…

  2. एगो बात कहें,कुछ दिन पहले एगो ऑफिस का सहकर्मी हमसे कह रहा था की "ड्रिंक तो सबको करना ही पड़ता है…देख लेना कभी न कभी तुम भी ड्रिंक करोगे ही…"
    हम कहे की इंजीनियरिंग में मेरा सब रूममेट इतना भारी पीने वाला था, और वहां नहीं हम पीना शुरू किये त अब पीना शुरू करना थोड़ा मुश्किल लगता है 🙂

  3. अरे इसी गाने का तो मैं लिंक खोज रही थी.थैंक्स थैंक्स अभि.
    कुछ महीने पहले तुमने ही फेसबुक पे लगाया था न ये गाना.
    शिखा के प्रोफाइल से मैंने देखा था और फिर भूल गयी थी.

  4. और तुम्हारी ये वाली पोस्ट बहुत अच्छी लगी.पहले वाले पोस्ट को पढ़ना बाकी है.

  5. आपके किस्से पढ़कर मुझे भी अपना किस्सा याद आ गया…
    इंजीनियरिंग के वो दिन सच में नही भूल सकते
    सिगरेट और दारू की बात जो आपने कही वो मेरे पर भी फिट बैठती है… दूसरे को मैं भी बोलता रहता था…
    आज भी सब मुर्गा और बियर की दावत उड़ाते हैं…
    हम ठहरे प्योर वेज और दवा दारू धुंआ धक्कड़ से दूर रहने वाले इन्सान… लेकिन माहौल से अलग मेरे लिए पनीर की सब्जी आती थी…

    और आपमें और मेरे में कॉमन बात ये रही कि मुझे भी एच वो डी सर मेरे कम्प्यूटरी ज्ञान के चलते ही जान पाये… वही लिनक्स 😛 और ज्यादातर कम अटेंडेंस भी अपनी ही थी

  6. पुरानी जींस और गिटार बेहतरीन पोस्ट…….
    शायद बहुत कुछ अपनी यादों के पलस्तर से मेल खाता हूवा…
    शायद ऐसी यादें हम सबकी साझी यादें..
    इस कॉलेज के सीन में कोई ना कोई एक चाय वाला जरुर होता है..
    एक कैंटीन भी जरुर होती है…..
    शायद यही वजह है ..
    ये पोस्ट हर किसी को अपने दिल के करीब लगेगी जिन्होंने कलेजे और होस्टल की लाइफ जी है…..
    हाँ जहान तक मेरी कहानी की बात है अभी ये लाइफ चाल रही है…..

  7. बहुत ही रोचक संस्मरण….होली का वाकया तो बहुत ही मजेदार रहा…..ऐसा मौका फिर कभी नहीं मिलने वाला..दरअसल, कोई भी लम्हा वापस लौट कर आना मुश्किल है….बस सुनहरी यादें रह जाती हैं…बड़े अच्छे दिन रहें हॉस्टल के…मजा आया पढ़कर.

  8. वो कहते हैं न जहाँ मन राम जाये उससे सुन्दर कुछ नहीं ..वो रितिक रेस्टोरेंट ऐसा ही कोई चक्कर लगता है 🙂
    यादें यादें यादें …जो कभी पीछा नहीं छोड़तीं .बहुत अच्छा लगा तुम्हारा संस्मरण.अभी एक नजर से पढ़ा है फिर आती हूँ पढ़ने बाद में.

  9. मस्त लगा यार हर पार्ट इस पोस्ट का.
    तुम कुछ बात बताये भी थे….जहाँ तक याद है मुझे …..
    मैं भी सोच रही हूँ अपने ब्लॉग पे लिखना शुरू कर ही दूँ…….एमिटी के दिन के बारे में……क्या बोलते हो दोस्त ??? :-))

  10. @दिव्या
    तुमको जो बताये थे न, उसमे से एक किस्सा अभी नहीं लिखे हैं…वो फर्स्ट जनवरी वाला को कांड हुआ था…:) अगर कभी दिल किया तो लिखेंगे बाद में..और हाँ शुरू कर दो ब्लॉग…..:)
    बहुत दिन से बेकार पड़ा है

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