आजकल बड़े अजीब-अजीब से सपने देख रहा हूँ। सबसे मजे की बात यह है कि इन दिनों वही सपने आ रहे हैं, जिनके पूरा होने की कहीं कोई भी गुंजाइश अब नहीं है। हाँ, लेकिन कभी मैंने और मेरे दोस्त ने वे सपने देखे थे। कल रात के सपने में एक बड़ी पुरानी तस्वीर दिखाई दी… इंजीनियरिंग फर्स्ट ईयर का वो हॉस्टल, जिसे पता नहीं क्यों कॉलेज वालों ने ‘व्हाइट हाउस’ का नाम दे रखा था। हॉस्टल के सबसे पीछे वाले कमरे से लगा हॉस्टल का बाउंड्री, और दो दोस्त उस बाउंड्री पर बैठे हुए… पास के कमरे में एक छोटा सा टू-इन-वन रखा हुआ है, जिसमें ‘तुम बिन’ फिल्म के गाने एकदम धीमी आवाज़ में बज रहे हैं… और उन दो दोस्तों के साथ वो दो लड़कियां बैठी हुई हैं, जिनके बारे में वे दो दोस्त पूरी-पूरी रात बात करते रहते थे।
इंजीनियरिंग फर्स्ट ईयर के हॉस्टल का वो बाउंड्री हम दो दोस्तों के लिए उन दिनों सबसे अच्छी जगह थी, जहाँ हम एक-दूसरे से अपनी हर बात शेयर करते थे और दोनों दोस्त मिलकर किसी एक नतीजे पर पहुँचते थे। दोनों मिलकर मुश्किलों का हल निकालते थे। हमारी महफ़िल वहाँ तब लगती थी, जब पूरे हॉस्टल के लड़के सो चुके होते थे, क्योंकि हमें अपनी बातों में किसी भी किस्म की दखलअंदाजी पसंद नहीं थी। जब भी हॉस्टल का कोई लड़का सामने आ जाता तो हम एकदम से अपनी बातों का रुख पलट देते थे (कुछ ही समय में हम इस कला में एक्सपर्ट हो गए थे :P)। एक छोटा सा टू-इन-वन, जो उन दिनों मेरा अभिन्न मित्र था और जिसे मैंने पटना से चलते वक्त बैग में रख लिया था, उसमें गाने भी रात भर चलते रहते थे। हम घंटों बातें करते थे। कभी-कभी तो पता भी नहीं चलता था कि कब सुबह हो गई और हम सोचते थे कि रात भी कितनी छोटी होती है, तुरंत सुबह हो जाती है…
अपनी इस आदत की शुरुआत कैसी हुई, ये भी एकदम अच्छे से याद है। हमें हॉस्टल में आए अभी दो-चार दिन ही हुए थे और पापा मुझे हॉस्टल में छोड़कर एक दिन पहले ही पटना लौटे थे। हमारा रूम अव्यस्थित था। सारा सामान पैक्ड था। मैंने अकरम को उस शाम बताया था कि मैं अपने साथ टू-इन-वन भी लेकर आया हूँ। वो तब से ही मेरे पीछे लग गया था कि जल्दी टू-इन-वन बाहर निकालो बैग से। एक दिन पहले तक वो मुझे ‘आप’ कहकर बुलाता था और उस शाम वो सीधा ‘आप’ से ‘तुम’ और फिर ‘तू’ पर उतर आया… ‘तू निकालता है कि नहीं टू-इन-वन जल्दी से,’ ‘कब निकालेगा बे टू-इन-वन’… रात को खाने के बाद जब हम अपने रूम आए, तो मैंने सबसे पहले बैग से टू-इन-वन निकालकर अकरम को दे दिया। टू-इन-वन के साथ ही साथ मेरे बैग में बहुत से बेशकीमती सामान भी थे, जिसे मैंने बैग से निकालकर टेबल पर रख दिया था। मेरा रूममेट अकरम थोड़ा अशिष्ट है, तो वो तुरंत मेरे सारे सामानों को उलट-पुलट कर देखने लगा। उसी में उसे एक फोटो एल्बम दिखाई दिया। वो उस फोटो एल्बम को देखने लगा। एक तस्वीर पर मैंने कुछ लिख रखा था। अकरम ने उसे पढ़ा और फिर वो मेरे पीछे पड़ गया। मैं चाहता तो उसके उस सवाल को टाल सकता था, लेकिन पता नहीं क्यों उसे मैंने उस फोटो के पीछे की पूरी कहानी बता दी। और फिर अकरम एकदम ‘मोहब्बतें’ स्टाइल में कहता है कि ‘यार तू तो इस लड़की से बहुत प्यार करता है रे… ‘:P इसपर मैंने भी उसे मोहब्बतें वाला ही करारा जवाब दिया… ‘अरे नहीं यार… ऐसा कुछ नहीं है… वो सिर्फ मेरी पुरानी अच्छी दोस्त है…’ 😛 (उस वक्त वहाँ कोई तीसरा दोस्त मौजूद नहीं था, जो ये डायलॉग मारता कि ‘ओए चुप… सिर्फ एक पुरानी दोस्त… एक बात बता और कितने पुरानी दोस्तों की तस्वीर बैग में लिए घूमता है तू 😀 )
उस रात हम बहुत देर तक बात करते रहे। करीब तीन बजे के आसपास अकरम को ये ख्याल आया कि कल कॉलेज भी जाना है, लेकिन हम बातों में इतनी दूर निकल आए थे कि सुबह कॉलेज जाने की बात बड़ी ‘स्टूपिड’ सी लगी हमें। रूम में सारा सामान बिखरा हुआ था और हम बातों के चक्कर में उसे समेटना भी भूल गए थे। शायद ये भी एक वजह थी कि हम रूम से बाहर निकल आए थे और बाउंड्री पर बैठकर गप्पे मार रहे थे। उसी दिन से व्हाइट-हाउस की वो बाउंड्री हम दोनों दोस्तों का अड्डा बन गया था, जहाँ हम रात भर गप्पे मारते रहते थे…
हमारे दोस्त समित बाबु को हमारे इस अड्डे की भनक लग गई। वो इस ताक में थे कि हमें अपने अड्डे पर पकड़ सके और हमारी बातों को सुन सके। उन्हें हमारे इस अड्डे की भनक भी बड़े नाटकीय तरीके से लगी। हम दोनों दोस्त अपनी बातों में खोये हुए थे। तभी समित बाबु अपने चिर-परिचित अंदाज में रात में नींद से जगे और हमारे पीछे आकर खड़े हो गए, बिना कुछ बोले। और हमारी बातों के कुछ टुकड़े भी उनके कानों तक पहुँच गए। जैसे ही हमने समित को देखा, हमलोगों ने अपने बातों का रुख दूसरे तरफ मोड़ दिया। हालांकि इस कला में हम एक्सपर्ट थे, लेकिन फिर भी समित बाबु के कानों तक बहुत सी बातें पहुँच चुकी थीं… सुबह समित बाबु ने कॉलेज में मुझसे पूछा, “अबे तुम दोनों रात में क्या बात कर रहे थे रे?” मैंने कहा, “अरे कुछ नहीं… वो ऐसे ही घर-परिवार का गप सब था…” समित बाबु कहने लगे, “हमको बेवकूफ समझता है… घर-परिवार का गप नहीं था… लड़की सब का गप था… हम सब जानते हैं… तुम लोग अकेले अकेले बहुत कुछ सीक्रेट बतियाते रहते हो…”
अगले दिन रात में हम दोनों दोस्त फिर वहाँ बैठे, इस बात से अनजान कि हमारे हर हरकत पर समित बाबु की निगाहें लगी हुई हैं। उन दिनों मैं खूब चिट्ठी लिखा करता था और मुझे भी मेरे दोस्त खूब चिट्ठियाँ लिखा करते थे। हमारी चिट्ठियाँ कॉलेज के पते पर आती थीं, और उन दिनों मैं कॉलेज जाने में ज्यादा विश्वास नहीं रखता था, तो अकरम मेरी चिट्ठियाँ लेकर आता था। उस दिन भी अकरम ने मेरी एक चिट्ठी लाकर मुझे दी, जो बहुत दूर से एक खास दोस्त ने मुझे भेजी थी। रात में जब मैं और अकरम अपने अड्डे पर बैठे हुए थे, तब मैं उस चिट्ठी के कुछ अंश अकरम को पढ़कर सुना रहा था। इतने में हमारे समित बाबु अचानक से प्रकट हो गए और मेरे हाथ से चिट्ठी छिनने लगे। बड़ी मुश्किल से मैंने उस चिट्ठी को समित के हाथों से बचाकर अपने जेब में रख लिया। लेकिन फिर भी समित बाबु बहुत सी बातें जान गए थे और मुझे उसे भी उस चिट्ठी के बारे में बताना पड़ा। उस दिन से समित उस अड्डे पर हम दोनों दोस्त को कंपनी देने लगा (हालांकि हम और अकरम अक्सर रात को वहाँ बैठकर गप्पे करते थे और समित कभी-कभी)। समित के बारे में हमारी राय पहले कुछ खास अच्छी नहीं थी, लेकिन शायद इसी बाउंड्री पर समित के साथ बिताए समय ने समित के बारे में हमारी राय बिल्कुल बदल दी, और हम तीनों इतने अच्छे और करीबी दोस्त बन गए… 🙂
हमारा वो अड्डा, वो बाउंड्री, और उन रातों की यादें, जैसे चुपके से निकलती किसी पुरानी किताब के पन्नों से बाहर आ जाती हैं। वो लम्हे, वो हंसी-मजाक, वो शायरी की बातें, सब कुछ अब भी मन में ताज़ा है। और सबसे खास बात ये है कि अब हम तीनों दोस्त, जो कभी सिर्फ दो थे, एक दूसरे के बिना अधूरे हैं।
बहुत सुन्दर ..यूँ ही लिखते रहो.ये यादें बातें जागीर हैं जो जिंदगी के कुछ रूठे पलों में संबल का काम करती हैं.
Bahut achha lagta hai aapke ye sansmaran padhana…..apne purane din yaad aane lagte hain!
jaanta hai jaise hi main ne pahle kuch line padha mere honto pe pyaari si muskan daur gai. wo bhi kya din the. yaad hai last time main jab chennai gaya tha to bangalore bhi aaya tha tujh se milne aur jab main wapas aane waala tha to hum raat bhar nahi soe the aur subah tu mujhe drop karne aaya tha wo din bhi main hamesha yaad karta rahta hoon. aur maje ki baat to ye hai ki aaj shaam se hi pata nahi kyun mujhe engg. days ki shaam bahut yaad aa rahi thi aur aur phir tumhara ye post mujhe to miracle jaise lag raha hai.
dost ek baat kahunga main jaroori nahi ki tumhara har sapna waise hi poora ho jaisa tumne socha tha par wo kisi aur tarah se jaroor poora ho jaata hai.
humara allah se maanga hua har wish jaroor poora hota hai par jyada tar wo kisi aur roop men hamare saamne hota hai to hum samajh nahi paate.isi lie main kabhi na-ummeed nahi hota.
aur haan main tumhara is post ke lie tahe dil se shukriya ada karta hoon. main chahunga ki hamesha ye padhte rahun kyunki yaaden mujhe bhi bahut pasand hai
aur sahi men yaar maanna padega tumhare memory ko ise padh kar mujhe bhi bahut kuch yaad aa gaya aur tumne exactly waise hi likha hai jaise sab kuch hua tha.
bahut sundar yaaden hain aapki , apki kya collage aur hostle ke din hote hee hai itne mohak ki sapno se bhi kabhi ojhal nahi hote bahut accha lagaa aapki yh post padhkar ….:)
ohhhhhhhhhoooooo sirrr i jsst lvdddd this post…
after a long time aapne aisi post likhi hai…..bahut bahut pasand aaya…aapke aise blog post ko main bahut miss karti thi 🙂 🙂 🙂
awsmmmmmmm!!!!!!
बहुत सुन्दर, हम भी पढते पढते अपने कॉलेज के छरदेवाली पर पहुँच गए थे. हमारे फ्लोर पर सिर्फ एक टू इन वन था, बारी बारी से सबके रूम में जाता था,और 'दीवाना' एल्बम, सोनू निगम वाला बजाते थे 😀
रे स्तुति…क्या जबरदस्त कोइन्सिडेन्स है रे…हमारे हॉस्टल में भी बस मेरे पास ही एक टू-इन-वन था 😛 😀
Aaj aapke blog ka college wala sara dastan padh gaye aur shayad aapko ajeeb lage padh kar lekin hothon par muskurahat aur aankhon mein nami saath saath hai abhi… 🙂
Kuchh ehsaason ko shabd nahi diye jaa sakte..kuchh aise hi ehsaas hain abhi mere saath… kuchh purane kisse..kuchh yaaden !
Aapko aur aapki pyaari mitr-mandali ko bahut subhkaamnayen !
are waah aur humlog bhi deewana,aur sonu nigam ka bahut saara album sunte the abhishek laaya tha ye sab patna se hai na abhishek
यह आत्मीयता जीवनपर्यन्त बनी रहे..सच्ची मित्रता से सच्चा कुछ नहीं।
हम होस्टल थोड़ी देर से गए…पीजी करने के लिए …उस समय हमारे विंग में बस मेरे पास कंप्यूटर था और वो जाहिर तौर पर पब्लिक प्रोपर्टी था…मेरे कमरे की एक चाबी हमेशा हॉस्टल में रहती थी कि किसी को गाने सुनने का मन किया तो रूम पे जा के सुन लेगी.
तुमको पढ़ना बहुत अच्छा लगता है…एकदम सीधा दिल से…बड़े भले और अच्छे लड़के मालूम पड़ते हो 🙂
गुरु हमको अपनी इंजीनियरिंग के दिन याद आ गए…बहुत उम्दा!!!!!
अभिषेक जी आपके संस्मरण आत्मीयता से भरे होते हैं । कालेज के दिनों व होस्टल की जिन्दगी के बारे में पढ कर बडा अच्छा लगा । और मुझे अपने बेटों की कालेज लाइफ याद आगई । आजकल वे तीनों ही बैंगलोर में हैं ।
कई बार अपनों के पत्र बहुत सकून पहुंचाते हैं…| अच्छा लगता है कई बार, जब हम उन्ही चिठ्ठियों को फिर से पढ़ते हैं…| और हाँ, कुछ गाने भी कितनी यादें ताज़ा कर जाते हैं…है न…???
कई दुआएँ सच में दूसरा रूप लेकर कबूल होती हैं…पर फिर भी…तुम्हारी हर दुआ के लिए…आमीन…|