आज (15 सितंबर) इंजीनियर्स डे है, भारत रत्न एम्. विश्वेश्वरैया के जन्मदिन पर मनाया जाता है ये दिन। एम्. विश्वेश्वरैया को इंजीनियरिंग में एक विजार्ड, एक जादूगर कहा जाता था। उन्हीं के जन्मदिन के अवसर पर सारे इंजीनियरिंग कॉलेजों में आज के दिन कई तरह के समारोह होते हैं। हम जब इंजीनियरिंग के पहले सेमेस्टर में थे, तब हमें पता चला इस इंजीनियर्स डे के बारे में। कॉलेज में कोई बड़ा समारोह तो नहीं होता था इस दिन, लेकिन छोटा सा सेलिब्रेशन जरूर होता था। पहले ही सेमेस्टर में एक सीनियर द्वारा इस इंजीनियर्स डे के बारे में जानने का मौका मिला। खुशी और बढ़ी जब ये जाना कि एम्. विश्वेश्वरैया के नाम से ही अपनी यूनिवर्सिटी है, विश्वेश्वरैया टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी (वी.टी.यू)। पूरे कर्नाटक में एक ही मुख्य इंजीनियरिंग यूनिवर्सिटी है, जिससे कर्नाटक के सभी कॉलेज मान्यता प्राप्त हैं। एम्. विश्वेश्वरैया कर्नाटक के ही थे, इसलिए हमारी यूनिवर्सिटी का नाम उनके नाम पर ही रखा गया, उनके सम्मान में।
अब आज इस इंजीनियर्स डे के अवसर पर अपने इंजीनियरिंग के कुछ पलों को याद करने का हक तो बनता ही है अपना, तो चलिए आपके साथ कुछ ऐसे ही पल बांटता हूं 🙂
रैगिंग
इंजीनियरिंग में दाखिला जब हुआ तो सबसे पहले ख्याल आया “रैगिंग” का। उस समय ज्यादा कुछ पता नहीं था इंजीनियरिंग के बारे में, बस इतना पता था मुझे कि इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेना है, क्या होता है इंजीनियरिंग कॉलेज में, इस बात पर बिलकुल अनजान था, थोड़ा बहुत इस रैगिंग के बारे में ही जानता था। पटना में जिस कोचिंग में पढ़ने जाता था, वहां के लड़के जो दिलो-जान से इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारियों में जुटे रहते थे, वो भी तरह-तरह के रैगिंग के किस्से सुनाते रहते थे, तो एक डर जैसा कुछ अंदर बैठ गया था कि पता नहीं रैगिंग में सीनियर क्या-क्या करवाएंगे। कुछ लड़कों से ये भी सुन रखा था कि कुछ सीनियर बत्तमीजी भी करते हैं जूनियर के साथ। कुल मिलाकर एक डर जैसा ही बैठ गया था दिल में।
पापा मुझे छोड़ने ब्सवकल्याण (जहां से हमने इंजीनियरिंग पढ़ी) तक आए थे, जब होस्टल हम लोगों का अलॉट हो गया, और जब पापा चले गए वापस, तब डर कुछ और बढ़ गया रैगिंग को लेकर।
जिस दिन पापा गए, उसके दूसरे दिन ही मेरी पहली रैगिंग हुई…वो रैगिंग कुछ खास नहीं थी, बस यूं ही एक सीनियर ने बुलाकर मुझसे इंट्रो (इंट्रोडक्शन) लिया था। उस समय तक हमारे बिहारी/नॉर्थ के सीनियर छुट्टियां बिता के नहीं आए थे, क्योंकि उनके क्लासेज दस दिन बाद शुरू होने थे, इस कारण कुछ दिनों की हमें राहत मिली थी। इस बीच बस हलकी-फुलकी ही रैगिंग होती रही, जो बस इंट्रो तक ही सीमित रही। जिस दिन हमारे बिहार के सीनियर के कल्याण (ब्सवकल्याण) आने की शुभ घोषणा हुई, उसी दिन से हमारी असली रैगिंग चालू हो गई। फिर क्या था, हर रात होस्टल के कमरों में सीनियर का घुस आना और सुबह ४-५ बजे तक रैगिंग का कार्यक्रम चलाना एक रूटीन बन गया था, जो कि ६-७ दिनों तक चलता रहा। रैगिंग के दौरान वैसा कुछ भी नहीं हुआ जैसा मैं सोच के डर रहा था, मजेदार रैगिंग होती थी हमारी…बहुत सुन रखा था कि रैगिंग में अभद्र भाषा/हरकतें भी होती हैं, लेकिन हमें कभी वैसा कुछ देखने को नहीं मिला…बस सीनियर की कुछ मनपसंद फरमाइश रहती थी कि गाना सुनाओ, चुटकुले सुनाओ, छोटा सा कोई नाटक दिखाओ इत्यादि…
लेकिन कहते हैं न कि जहां रैगिंग की बात हो, वहां कुछ न कुछ तो गड़बड़ होना तय ही होता है, वैसा ही हुआ हमारे कॉलेज में भी। एक दिन कुछ सीनियर ने रैगिंग के बहाने कुछ लड़कों की थोड़ी बहुत पिटाई कर दी। फिर क्या था, हमारे बैच में भी काफी गर्म-मिजाज लड़के थे, सबने एक साथ सुर में सुर मिलाया और अगले दिन कॉलेज में स्ट्राइक करने का फैसला लिया। कॉलेज वालों ने जैसा सोचा होगा, उससे लाख गुना भयानक स्ट्राइक हुआ हम लोगों का, कॉलेज वालों और सीनियर भी शायद इस स्ट्राइक से थोड़ा डर सा गए थे, और डरते भी क्यों नहीं, कुछ लड़कों ने ऐसा माहौल ही बना दिया था…सबके माथे पे बड़ा सा लाल तिका लगाया गया, ऐसा लग रहा था कि जैसे हम लोग कोई जंग के लिए निकल रहे हों…भयानक शंखनाद हुआ, और हम सब नॉर्थ इंडियन लड़के (करीब ६०-७०) कॉलेज पहुंचे एक ट्रक में चढ़ के। 😛 पहले तो यही सीन देख कॉलेज वालों का सिर चकरा गया…और फिर हमारे ग्रुप में ऐसे तीन-चार लड़के थे जो लीडरगिरी में एक्सपर्ट थे, प्रिंसिपल और कॉलेज मैनेजमेंट क्या करते, बस माफी मांग के रह गए और वादा किया कि अगर ऐसा कुछ आगे हुआ तो सख्त कार्रवाई की जाएगी, और अंत में सीनियर और जूनियर का समझौता हुआ। लेकिन इन सब बातों में हम जूनियर जश्न मनाते रहे कि हमारे आगे सीनियर ने घुटने टेक दिए 😉
[वैसे नोट किया जाए कि उनमें से कुछ सीनियर हमारे काफी अच्छे दोस्त भी हैं, जो अभी ये पोस्ट पढ़ भी रहे होंगे ;)]
व्हाइट हाउस होस्टल, बेकरी और अरुण मेस
चौंकिए मत इस नाम से, हम लोग वाकई व्हाइट हाउस में रहते थे :P, असल में हमारे होस्टल का नाम था व्हाइट हाउस :)। काफी छोटा सा होस्टल था ये, बस 12 लड़के रहते थे, लेकिन जितनी मस्ती इस होस्टल में हमने की, शायद उतनी मस्ती फिर कहीं नहीं की। एक परिवार सा बन गया था ये होस्टल। एक अटैचमेंट जैसा हो गया था इस होस्टल के साथ। चाहे हो शाम के समय सारे दोस्तों के साथ छत पे बैठना और गप्पे लड़ाना या फिर रात भर नाचना गाना…हर पल में मस्ती थी। शाम के समय सारे लड़के एक साथ निकलते थे बेकरी पे नाश्ता करने। पता नहीं किन कारणों से हमारे सीनियर ने बेकरी पे जाने के लिए मना कर रखा था, लेकिन हम भी तो उस्ताद जूनियर निकले…सीनियर के आदेश की धज्जियां उड़ा के पहुंच जाते थे बेकरी, और वो भी सब लड़के एक साथ :)। सीनियर भी बेचारे क्या करते…बस देख के रह जाते थे 🙂
कल्याण में हम लोगों का एक हैंग-आउट पॉइंट बना, वो था अरुण मेस। हम वहीं खाना खाते थे…अरुण उड़ीसा का था और अरुण मेस का मालिक भी वही था, उससे थोड़े समय में ही दोस्ती हो गई…नॉर्थ इंडियन जैसा कुछ खाना मिलता था वहां, इसलिए हम लोग वहां चले जाते थे खाने। अरुण मेस के सामने खाली जगह थी, जहां 2-3 टेबल लगे रहते थे, शाम के समय उन टेबलों पे हमारा कब्ज़ा रहता था। करीब शाम 5-6 बजे ही सब दोस्त वहां जुट जाते थे और महफिल सज जाती थी। उन दिनों हम फर्स्ट ईयर में ही थे, और बेपरवाह, आज़ादी से सड़ेआम हम अपनी महफिल सजाए रहते थे…सीनियर जब ये देखते होंगे कि हम कैसे इतने बेपरवाह रहते हैं, उन्हें अटकता तो जरूर होगा, लेकिन हमने कभी इस बात की परवाह नहीं की, कि सीनियर हमें इस तरह देख क्या बोलेंगे…और ना कभी सीनियर ने हमें टोका।
टीवी सेट और वीसीडी प्लेयर इन होस्टल
हम लोगों का होस्टल वैसा कुछ हाई फाई नहीं था, ना ही कोई टीवी था और ना ही कुछ मनोरंजन का दूसरा साधन। मेरे पास एक टू-इन-वन था, जो मैं पटना से लेकर आया था, और कुछ कैसेट…बस दिल लगाने के लिए यही साधन था हमारे पास। चूंकि पूरे होस्टल में सिर्फ मेरे पास ही टू-इन-वन था, तो सारे लड़के मेरे इसी टू-इन-वन के धुनों पे नाचते रहते थे :)। फिर एक दिन कुछ सीनियर से पता चला कि होस्टल में टीवी भाड़े पे लाकर हम लोग फिल्म देख सकते हैं, बशर्ते वार्डन को पता नहीं चले…हम लोगों के जो होस्टल वार्डन थे, वो होस्टल में रहते नहीं थे, बस हर रात दस बजे के लगभग एक बार इंस्पेक्शन के लिए आते थे…अब जब भी हमें फिल्म देखने का दिल करता, जो कि हफ्ते में एक बार तो कर ही जाते थे, तो सबसे पहले पैसे कलेक्ट होते थे…प्रत्येक लड़के 10 रुपये देते थे और फिर एक दिन के लिए टीवी और वीसीडी आता था भाड़े पे…उन दिनों वीसीडी का बहुत ज्यादा प्रचलन नहीं था…तो बहुत से लड़कों को तो ऑपरेट करना ही नहीं आता था। एक लड़के को खास जिम्मेदारी दी जाती थी कि टीवी का रिमोट और वीसीडी का रिमोट वही संभाले…अब जब चौबीस घंटे के लिए भाड़े पे टीवी आता था, तो हम इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि एक भी मिनट बेकार नहीं जाए 😉 मानिए अगर शाम के सात बजे टीवी आया, तो शो टाइमिंग होता था रात के नौ-दस बजे से सुबह के पांच-छह बजे तक, और फिर सुबह नौ बजे से शाम पांच- सात बजे तक…
होस्टल में वैसे तो टीवी लाने की अनुमति नहीं थी, लेकिन हम ले ही आते थे टीवी…चाहे क्रिकेट मैच देखना हो या फिर फिल्में देखना, टीवी हफ्ते में एक बार आना तो तय ही रहता था। होस्टल वार्डन को भी पता रहता ही था कि हम टीवी लाते थे, फिर भी वो कुछ नहीं बोलते थे।
तीन कंप्यूटर एक होस्टल में, मेरा कंप्यूटर
इंजीनियरिंग के पहले साल तो हम व्हाइट हाउस में रहे। व्हाइट हाउस होस्टल हमें कॉलेज के तरफ से अलॉट हुआ था, और कॉलेज के होस्टल सीमित थे, इसलिए सेकेंड ईयर में हमें अपने लिए एक नया होस्टल या फिर फ्लैट खोजना था, तब तक हमारे ग्रुप में 2-3 और लड़के आ गए थे और हम कुल 16 लड़के हो गए थे। बड़ी मशक्कत के बाद हमने एक फ्लैट मिला किराए पे…असल में पूरी बिल्डिंग ही हमने ली थी…अगर ग्राउंड फ्लोर को छोड़ दें तो…ग्राउंड फ्लोर के अलावा दो और फ्लोर थे। इस बिल्डिंग का नाम वैसे तो कुछ नहीं था, लेकिन पता नहीं कैसे, किसने, कब रखा इस बिल्डिंग का नाम -“पिंक हाउस”।
अब हम सेकंड ईयर में आ चुके थे, और पिंक हाउस में भी अपनी जगह पक्की हो गई थी, अब समय था एक कंप्यूटर लेने का। वैसे तो इंजीनियरिंग में पैरेंट्स बच्चों को ये सोच कंप्यूटर खरीद देते हैं, कि बच्चे कंप्यूटर का इस्तेमाल पढ़ाई में करेंगे, और कुछ प्रोग्रामिंग सीखेंगे, कुछ नया जानेंगे…लेकिन इंजीनियरिंग में कितने लड़के कंप्यूटर का सही इस्तेमाल (पढ़ाई में) और कितने लड़के कंप्यूटर का इस्तेमाल गेम खेलने, फिल्में देखने में करते हैं, ये तो सभी को पता है 🙂 हम लोगों में से तीन लड़कों को कंप्यूटर खरीदना था, एक तो मुझे, और बाकी दो थे समित, आशीष। जब हमने कंप्यूटर खरीदी, उसके बाद तो हमारे फ्लैट में जैसे लड़कों का तांता लग गया। हम तीनों एक ही फ्लैट में रहते थे और एक ही फ्लैट के तीन ब्लॉक में तीन कंप्यूटर। अब तो शुरुआत के 10-12 दिन ऐसा होने लगा कि बाकी दोस्त जो दूसरे फ्लैट्स में रहते थे, वो भी दिन भर हम लोगों के ब्लॉक में ही अपना समय गुजारने लगे…या तो गेम खेलने में या फिर फिल्म देखने में…कभी-कभी तो ऐसा होता था कि एक दोस्त कंप्यूटर पे गेम खेल रहा है तो दूसरा उसके पीछे खड़ा है, इस इंतजार में कि वो उठे तो उसे गेम खेलने मिले 🙂
जिस दिन कोई नई फिल्म की वीसीडी आती थी मार्केट में, उस दिन तो हमारे कमरे में पांव रखने तक की जगह नहीं रहती थी…सबके सब मौजूद रहते थे फिल्म देखने के लिए…और दोस्तों की ऐसी भीड़ में फिल्म देखने का मजा ही कुछ और होता था।
ऐसे ही कई छोटे-बड़े किस्से हैं इंजीनियरिंग के, जिनमें से कुछ किस्सों का जिक्र मैंने यहां इस पोस्ट में किया है। फिलहाल अगर ये पोस्ट आप लोगों को पसंद आई, तो बाकी की दो किस्तें भी इसके बाद आएंगी…
उन दिनों हमारे पास कैमरा था नहीं, इसलिए इंजीनियरिंग फर्स्ट ईयर की एक भी तस्वीर नहीं है, और इंजीनियरिंग सेकेंड ईयर की कुछ ही तस्वीरें हैं, जो की मैंने अभी तक स्कैन नहीं की हैं…इसलिए कोई भी तस्वीर इस पोस्ट में मैंने लगाया नहीं है…
[ नोट : ये पोस्ट मैंने कल ही लिखा था, लेकिन पता नहीं क्यों पोस्ट नहीं हो पा रहा था। इसलिए आज पोस्ट कर रहा हूं और ये तारीख भी नहीं बदल रहा]
dekho tum white house men rehte the..mujhe pata ab chaalaa 😀
waise film dekhte rehte the islie padhai nai karte the kyaa 😀
chalo kuch bhi karo..mujhe to maja aaya post padh ke…
and yeaa m waiting for 2nd post..
one more thing..tumse kya kya karwayen tumhare seniorz yeh to tumne detail diya hi nahi 😀 not fair 🙂
n thankz for information on M.visveswarai..
mujhe pata nahi tha unke baare mein.
रोचक और दिलचस्प संस्मरण और जानकारी.
मजा आ गया..
हम इंजीनियरिंग वालो के दिन ही कुछ खास होते हैं…मज़ा आया आपके बीते दिनों को जानकर …अभियंता दिवस की शुभकामनाये ..
अच्छी पोस्ट है !!!!
और दोनों series भी जल्दी ही पोस्ट करना plzz..
loved this one! 🙂
अले वाह, कित्ती सुन्दर जानकारी ..बधाई. और आप तो खूब मस्ती करते थे …
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'पाखी की दुनिया' – बच्चों के ब्लॉगस की चर्चा 'हिंदुस्तान' अख़बार में भी.
masti bhare din ki ye post bahut rochak aur mazedaar lagi…
agli dono kisto ka intjaar rahega…
रोचक संस्मरण.
यहाँ भी पधारें:-
अकेला कलम…
हम्म अब होस्टल तो होस्टल ही होता है मस्ती से भरपूर ..पर हाँ रेगिंग तो अपनी गोल कर गए तुम 🙂 चलो कोई बात नहीं ,अब जल्दी जल्दी दूसरी किश्त डालो .
इसे पढकर मजा आया बहुत.
अरे क्या लिख दिया आपने हमें तो अल्ल्हाबाद याद आई गवा. वहां हम लोग भी लोग में ऐसे ही किराये पर टीवी विसियार लाकर फ़िल्में देखते थे.बहुत सी फ़िल्में मेरी वहीं की देखि हुईं हैं हाँ टाइमिंग भी काफी मिलती जुलती है,और १० १० रूपये का कलेक्शन भी सेम तरीके से ही होता था…..अगली पोस्ट का इन्तेजार रहेगा बेसब्री से…………….
रे बच्चा लाल ….तो ई था कुल मिला कर तुम्हरे बिगडने का पूरा दास्तान ..शुरुए से ….एक लंबर के बदमाश रहे हो ..अच्छा अच्छा वीसीडी ..आउर फ़िल्लम भी ..व्हाईट हाऊस में इत्ती सारी रंगीन बातें ….।
हैप्पी इंजिनियर्स डे…बड्डी….
कॉलेज के दिन बहुत याद आते हैं। मस्ती में डूबे वर्ष।
college ki yaadein taaza ho gaye!
haan yar ye baat to hai…white house me bahut maza kiya….wo hostel hi kuch jaan dar tha..aur subse sepcial to uss hostel k piche wo ladki….naam yaad nai aa raha hai…pura ka pura hostl hi ek saath subah k 7 baje khada ho jata tha usko dekhne k leye….aur ragging k bare me v batao..kaise hum log tum log ka ragging leye tha.kaise tum log senior's pledge yaad kiye the.. 🙂
मेरी भी यादें ताज़ा हुईं!
अच्छी पोस्ट!
आशीष
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बैचलर पोहा!!!
अभी ईद के मौके पर एक मित्र के घर जाना हुआ.. उसने मुझसे कहा कि "यार, मेरा लैपटॉप पर ब्लू स्क्रीन आता है और शटडाउन हो हो जाता है.. तुम क्या कहते हो, क्या प्रॉब्लम है? क्या करूँ?"
मैंने कहा, "ब्लू फ़िल्म ज्यादा देखोगे तो यही होगा.. ब्लू स्क्रीन ही आएगा हमेशा.. और ऊपर से रमजान के पाक महीने में.. छी छी.."
वैसे वीसीपी पर तुम क्या देखते थे दोस्त? होस्टल के किस्से हमें भी पता है, हमने भी कई साल बिताया है होस्टल में.. सो हमसे झूठ मत ही बोलना.. 🙂
बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
@प्रशांत…
थोड़ा शांत रहो तुम…हम तुम्हारे जैसे गंदे बच्चे नहीं हैं, 😛 😛
अच्छा तो में वी.टी.यू चुके भाईजान आपको पता नहीं था..चलो कोई बात नहीं अब धन्यवाद बोल ही दो..
अच्छी पोस्ट!……..
कोई बात नही अगर आप लस्सी नही पीते…..
एक बार पीकर तो देख ना……बार -बार
पीयोगे.
मेरे ब्लोग पर आने के लिये शुक्रिया ……
बड़े मजेदार किस्से हैं,हॉस्टल के…ये वे सुनहरे दिन हैं जो वापस कभी नहीं आते.
ऐसे संस्मरण पढ़ बहुत ही मजा आता है और तुमने हमेशा की तरह बहुत सहजता के साथ लिखा है.
वाह भई वाह होस्टल में हम कभी रहे नहीं, परंतु होस्टल में हमने बहुत दिन बिताये हैं, सारे चलचित्र बरबस ही सामने आ गये।
खूब मजे किये हैं…. अभि ..
………यादें ताज़ा हुईं!
बहुत मज़ा आया पढ़ के…लेकिन बेट्टा…बात तो सही है…अपनी काफी बातें गोल कर गये तुम…है न…??? 🙂 😛