शायद हर शहर का अपना अलग इतवार होता है..अपनी अलग आवाजें, और नीरवता.तुम आँखें मूंदकर भी जान लेते हो.ये ट्राम के पहिये हैं…यह उबलती कॉफ़ी की गन्ध.बाहर बर्फ पर खेलते हुए बच्चों की चीखें…उनके परे गिरजे के बाग़ में बूढी औरतों की फुसफुसाहट.हॉस्टल में जब पुरानी लिफ्ट ऊपर चढ़ती है…खाली कमरे हिलने लगते हैं.फिर वह ठहर जाती है..चौथी मंजिल पर…जहाँ टी.टी. का कमरा है, उसके ऊपर हॉस्टल की छत है.जहाँ हर इतवार को प्राग के गिरजों की घंटियाँ तिरती आती हैं…तुम सोते हुए भी उन्हें सुन सकते हो.टीम उन्हें सूंघ सकते हो.उनमे चिमनियों का धुंआ है, पतझर के सड़ते पत्तों की मृत्यु…नदी के बहते पानी की सरसराहट! दुसरे दिन दुसरे शहरों में होते हैं….इतवार अपना सा होता है…पराए शहर में भी.
यह हमारे हॉस्टल की दोपहर है.सर्दी की दोपहर, जो हर हॉस्टल में एक जैसी ही होती है-जब क्रिसमस के दिन इतने पास हों.मुझे कुछ भी पता नहीं चला था.मैं सोता रहा था..शायद सारी सुबह उसने मेरे आने की प्रतीक्षा की होगी.एक उम्र में यह विचार बहुत रुआंसा लगता है की कोई खाली-खाली सा होकर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हो…एक संग बहुत सुख-सा भी होता है-बाद में.बाद में लगता है की तुम सबसे अलग हो.तुम एकदम बड़े हो गए हो…और ये असंभव सा लगता है की जिस घडी तुम सो रहे हो उस घडी कोई तुम्हारी बाट जोह रहा हो..तुम्हे अचानक पहली बार अनिवार्यता का पता चलता है.और उस कातर से डर का…जिसमे पहली बार तुम्हारे माँ-बाप साँझा नहीं करते…तुम्हारे मित्र भी नहीं.वह डर कुछ वैसा ही विस्मयकारी है, जब पहली बार तुम किसी हवाई कम्पनी के पैम्फलेट में ये शब्द देखते हो – Once in the sky, you are on your own.
हवा से उसका स्कार्फ बार बार फडफडा जाता था.उसके बाहर कुछ भूरी लटें माथे पर छितर आयीं थीं-धुप में चमकती हुईं.”पास आ जाओ, वरना तुम हवा में उड़ जाओगी.”मैंने हँसते हुए कहा.वह बिलकुल मुझसे सट गई.मुझे लगा वह ठिठुर रही है.मैंने अपना मफलर उतारकर उसके गले में लपेट दिया.उसने कुछ कहने के लिए मुहँ उठाया.उसे मालुम नहीं था, मेरा चेहरा उसके सिर पर है..तब अचानक मेरे होंठ उसके मुहं पर घिसटते गए…फिर वे ठहर गए, कनपटियों के नीचे कुछ भूरे बालों पर….”सुनो”…उसने कहा.किन्तु इस बार मैंने कुछ नहीं सुना.मेरे होंठ इस बार उसके मुहं पर आए आधे वाक्य पर जम गए.उसका उठा मुहँ निर्वाक-सा उठा रहा.कुछ देर तक मैं साँस नहीं ले सका.हवा बहुत थी, लेकिन हम उसके नीचे थे.हम बार बार साँस लेने के लिए ऊपर आते थे…हाँफते हुए एक दुसरे की और देखते थे…दीखता कुछ भी न था-अधखुले होंठ, ओवरकोट के कॉलर का एक हिस्सा, हम दोनों पर फडफडाता हुआ बेचैन सा स्कार्फ….
भय और ख़ुशी के बीच तुम ज्यादा देर नहीं रह सकते…सिर चकराने लगता है, जैसे तुम हवा में टंगी रस्सी पर चल रहे हो.यह शायद भ्रम है…है कुछ भी नहीं, मैंने सोचा.विदेश में यदि तुम लम्बा अर्सा रहे हो, तो अक्सर ऐसा हो जाता है…तुम सड़क के कोने में खड़े हो, या ट्राम की प्रतीक्षा कर रहे हो, या सिर्फ सड़क पार कर रहे हो…तब अचानक-बिना किसी चेतावनी के-एक कोई बहुत पुरानी ख़ुशी लौट आती है, जिसके बारे में तुमने बरसो नहीं सोचा था.
उसकी आँखें अजीब सी उज्जवल हो आईं थीं…जब कभी मैं उन्हें देखता तो घबरा सा जाता.किसी लड़की की आँखों को सह पाना…जब वे बिलकुल तुम्हारे चेहरे के सामने हों और जो इतनी उज्जवल हों, जैसी उस समय उसकी थी- मेरे लिए हमेशा असंभव रहा है.
उस शाम सेंट लौरेंतो के सामने प्रतीक्षा करते समय मुझे ऐसा ही ‘अनुभव’ हुआ था.उसे अनुभव भी कहना गलत है.वह कुछ ऐसा था जिससे सिर्फ विस्मय होता है.तुम बहुत से दरवाज़ों को खटखटाते ही, खोलते हो-और उनके परे कुछ नहीं होता-ज़िन्दगी भर.फिर अकस्मात् कोई तुम्हारा हाथ खींच लेता है…उस दरवाज़े के भीतर…जिसे तुमने नहीं खटखटाया था.वह तुम्हे पकड़ लेता है और तुम उसे छोड़ नहीं सकते.
बहुत पहले बचपन में, जब मैंने पहली बार समुद्र देखा था तो मैं सोचता था कभी ऐसा होगा की लहर आएगी और वापस नहीं जायेगी.मैं रोज़ वहां सिर्फ इसीलिए जाता था की कभी अवश्य ऐसा होगा.मैं ऐसे मौके पर वहां रहना चाहता था.मैं सोचता था, मैं उसे पकड़ सकूँगा, मैं उसे पकड़कर अपने पास रख सकूँगा.लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ.वह हमेशा ही मुड़ जाती थी और जब कुछ देर बाद दूसरी लहर आती थी, तब मैं समझ लेता था की यह वह नहीं है, जो पहले आई थी, यह वह नहीं है, जिसे मैंने खो दिया है.संभव है…मैं उसे खोऊंगा नहीं…इतनी उम्र में किसी चीज़ को खोना उतना ही मुश्किल है जितना किसी चीज़ को बचा रखना.मैं बचाना कुछ भी नहीं चाहता था…बचकर जो स्मृति रह जाती है, मुझे उसमे कोई उत्साह नहीं था.एक उम्र के बाद तुम जमा नहीं कर सकते.तुम खोना भी नहीं चाहते…उस रात मेरे पास कोई ऐसी ‘बनी बनाई’ ‘चीज़’ नहीं थी, जिसे मैं बचा सकूँ या खोने से रोक सकूँ.
यह क्या मिजरी है?मेरा मतलब है, किसी दिन सहसा यह जान लेना की तुम बनी-बनाई चीज़ों के घेरे से बाहर आ गए हो…एक आतंक और असीम-सा खुलापन!
देह का शायद अपना एक मौन होता है…हम जीवित रहते हैं, लेकिन उसका हर स्नायु मरने लगता है..शिराओं में खून बहता रहता है-तपता, गर्म सनसनाती लू की तरह…हर चीज़ पूर्ववत रहती है-धमनियों का स्पंदन, सांस का आना-जाना, रक्त की गति…सिर्फ उन सबको जोड़नेवाला धागा टूट जाता है…वह कांपती रहती है हवा में एक फुले, निर्जीव झोल की तरह.
मैं यहाँ हूँ.यहीं किसी कोने में रिल्के ने अपनी कुछ लाईनें लिखी होंगी.ऐसी ही किसी सुनी दोपहर को…खिड़की के बाहर प्राग के पुलों को देखते हुए शब्दों को जोड़ा होगा.एक लय में….जो अब भी हैं, पचास वर्ष बाद, जब मैं वहां बैठा हूँ…वह अब भी यहीं कहीं भटक रही होगी, इस प्रतीक्षा में की मुद्दत बाद किसी ऐसी ही दोपहर को कोई अन्य व्यक्ति उसे पकड़ सकेगा.मृत्यु के बाहर.
“सुनो…तुम विश्वास करते हो?”
“वह जो नहीं है…”
जो है लेकिन हमारे लिए नहीं है.
अच्छा लगा निर्मल वर्मा जी का लिखा पढ़ते हुये।
साझा करने का आभार….. उनका हर शब्द कहीं गहरे उतरता है…..
गहरे उतरते शब्द, स्थान, समय और हम, बहुधा एकमय हो जाते हैं।
वे दिन सजीव हो उठे हैं आस-पास..
Sunday is the holiday for all students. The boiling tea and coffee is possible children also. The screams playing is getting upstairs and noiselessness. Different types of voices and blinding eyes are getting for that children. Most of the helping minded people are given some of amount as donation for them. And different types of cities are getting branches for that children.