मेरे दादाजी और सिंघौल गाँव का पहला डाकघर – पुरानी यादें

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यह बहुत पुरानी बात है. मेरे गाँव की कहानी है. मेरे दादाजी की और मेरे गाँव के पहले पोस्ट ऑफिस की कहानी. कभी ये कहानी पापा ने मुझे सुनाई थी. जब से मुझे याद है, पापा के अल्‍मारी में एक पीतल का फोल्डेब्ल तराजू देखता आया हूँ. वो तराजू थोड़े अलग किस्म का तराजू है, जिसे पहले के ज़माने में डाकघर में रजिस्ट्री का वज़न लेने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. वो उन सब तराजू से अलग इसलिए है, कि उसके पार्ट्स खोलकर बड़े आसानी से डब्बे में बंद कर उसे रखा जा सकता है और फिर बड़े आसानी से उसे वापस जोड़ कर एक तराजू बनाया जा सकता है. देखने में वो एक छोटे बक्से जैसा लगता है…एक किताब की तरह. आज उस तराजू को आप ऐन्टीक के श्रेणी में रख सकते हैं. बचपन में जब मैंने पापा से पूछा था उस तराजू के बारे में तो उन्होंने बताया कि ये दादाजी का तराजू था, जब वो पोस्टऑफिस में पोस्टमास्टर थे. वो इससे रजिस्ट्री वैगरह का वज़न नापते थे.
इस बात का तो मुझे बचपन से ही पता था कि दादाजी हमारे गाँव के पोस्टमास्टर थे और ये बात भी पापा हमेशा बताते आये थे कि दादाजी ने ही गाँव के पहले पोस्टऑफिस की शुरुआत की थी. लेकिन ये शुरुआत कैसे हुई थी ये कहानी मुझे बहुत बाद में मालूम चली. पापा से जब से ये कहानी सुना था मैंने तब से ही मेरे मन में वो कहानी फ्रिज हो कर रह गयी. अपने कुछ दोस्तों को गर्व से सुनाया था कभी कि कैसे मेरे दादाजी के वजह से हमारे गाँव को उसका पहला डाकघर मिला, और दादाजी के वजह से गाँव के कितने लोगों को कितनी मदद मिल गयी. आज उसी कहानी को फिर से याद कर रहा हूँ.
ये बात 1965-66 की है. मेरा गाँव सिंघौल बेगुसराय जिले के अंतर्गत आता है. उन दिनों, बेगुसराय को जिला का दर्जा हासिल नहीं था. बेगुसराय को जिला का दर्जा 1972 में प्राप्त हुआ. उसके पहले वो मुंगेर जिले का एक सबडिविजन था. मेरे गाँव के पड़ोस में जो गाँव था, वो था उलाव. दादाजी(स्वर्गीय बालेश्वर प्रसाद) उलाव पोस्टऑफिस में ही पोस्टमास्टर थे. वो उलाव पोस्टऑफिस के दुसरे पोस्टमास्टर थे. उलाव पोस्ट ऑफिस के पहले दादाजी बेगुसराय पोस्टऑफिस में पोस्टमास्टर थे.
जब की ये बात है, उन दिनों हर गाँव में पोस्ट-ऑफिस नहीं हुआ करता था. पोस्टऑफिस गाँव की आबादी पर निर्भर होता. जिस गाँव की आबादी ज्यादा थी, बस उसका एक अलग पोस्टऑफिस हुआ करता था. कभी कभी तो १२-१३ गाँव का एक पोस्टऑफिस होता था. जिस गाँव की आबादी कम थी उसके दो तीन गाँव को जोड़कर एक डाकिया हुआ करता था, जिसका काम था चिट्ठी, टेलीग्राम, मनीआर्डर या पार्सल बांटना. उसी डाकिये के पास अकसर मनीआर्डर फॉर्म, पोस्टकार्ड, अंतर्देशिये, लिफाफे वग़ैरह हुआ करते थे, जिसे वो लोगों में बांटता और फिर वही डाकिया लोगों के डाक को डाकघर तक पहुंचता. पोस्ट ऑफिस का काम ऐसे ही चलता था. जिस गाँव में उसका अपना डाकघर नहीं था, वहां के लोगों को या तो डाकिये की राह देखनी होती या खुद पोस्टऑफिस तक जाना पड़ता था. आज के तरह उन दिनों ईमेल या इन्टरनेट की सुविधा तो थी नहीं, तो किसी को कोई खबर पहुँचाने, किसी तरह का सन्देश एक जगह से दुसरे जगह पहुंचाने में, पैसे भेजने के लिए लोग डाकघर पर ही निर्भर रहते थे.
हमारे गाँव सिंघौल का कोई अलग डाकघर उस समय नहीं था. सिंघौल का डाक उलाव पोस्टऑफिस जाता था. उलाव डाकघर के अंतर्गत ही सिंघौल गाँव आता था. उलाव और सिंघौल गाँव पड़ोसी गाँव हैं, और वास्तविक में देखा जाए तो उलाव से सिंघौल कई गुना बड़ा गाँव है. सिंघौल की आबादी और उसका क्षेत्रफल उलाव से कहीं ज्यादा था लेकिन सिंघौल में डाकघर न खोल कर उलाव में डाकघर खोलने की एक वजह थी. अंग्रेजों के समय उलाव में एक चंद्र्चुर देव, नामक जमींदार थे जो काफी रसूख वाले, और प्रभावशाली व्यक्ति थे. उनकी पहुँच बहुत ऊपर तक थी. वही एकमात्र वजह थे जिसके कारण पोस्टऑफिस सिंघौल में ना खुलकर उलाव में खुला था.
दादाजी उलाव गाँव के ही दुसरे पोस्टमास्टर थे. वो 1966 में रिटायर हुए थे. जब तक दादाजी पोस्टमास्टर रहे, तब तक सिंघौल गाँव के लिए उन्होंने एक अलग डाकिया रखा था. सिंघौल, विनोदपुर, अमरौर और महातपुर गाँव को मिलकर उस वक़्त एक डाकिया था. जब तक दादाजी पोस्टमास्टर थे तब तक तो सब ठीक था, लेकिन जैसे जैसे उनके रिटायर होने का वक़्त आने लगा उन्हें एक चिंता सताने लगी. उन्हें इस बात की फ़िक्र होने लगी की उनके पोस्टऑफिस से हटने के बाद क्या होगा? गाँव का कोई अलग से डाकिया तो रहेगा नहीं, तो घर तक उनकी चिठ्ठी या कोई भी पोस्ट समय पर मिलेगी नहीं. उन्हें लगा कि अब हर छोटे बड़े काम के लिए उन्हें उलाव डाकघर के चक्कर लगाने पड़ेंगे, उसी डाकघर के चक्कर उन्हें लगाने पड़ेंगे जहाँ के सर्वोच्च पद से वो रिटायर हुए. ये उनके लिए तकलीफ की बात थी. उन्होंने सोचा इसका कोई हल निकालना पड़ेगा.
उसी वक़्त दादाजी के मन में ये बात आई कि अगर गाँव में भी कोई अलग से डाकघर होता तो शायद ये परेशानी नहीं होती. तब किसी को भी डाक के लिए दुसरे गाँव के डाकघर के चक्कर नहीं लगाने पड़ते. उन्होंने सोचा अगर गाँव में एक डाकघर खुल जाए तो उनके साथ साथ गाँव वालों की भी कितनी परेशानी दूर हो जायेगी. लोगों को उनके गाँव में ही एक पोस्टऑफिस मिल जाएगा. उन्होंने फिर निर्णय लिया कि अब जो भी हो, अपने गाँव में मैं एक डाकघर तो खुलवा कर ही रहूँगा. लेकिन एक नया पोस्ट ऑफिस खुलवाना गाँव में ये इतना आसान काम नहीं था. दादाजी के रिटायरमेंट में अभी कुछ महीने बाकी थे, तभी उन्होंने फैसला किया कि सिंघौल में एक नया डाकघर वो खुलवाएंगे.
जैसा कि मैंने पहले बताया उस वक़्त बेगुसराय एक जिला नहीं था. मुंगेर जिले का एक सबडिविजन था. मुख्य पोस्ट ऑफिस उस समय मुंगेर में था, और अगर दादाजी को एक नए पोस्टऑफिस खुलवाने की बात करनी थी तो वो मुंगेर पोस्टऑफिस से ही बात हो पाती. उन दिनों मुंगेर पोस्टऑफिस में एक पोस्टल इन्स्पेक्टर थे जिनसे दादाजी की व्यग्तिगत जान पहचान और मित्रता थी. वो पोस्टल इन्स्पेक्टर हर पोस्टऑफिस का इन्स्पेक्सन करने आया करते थे और शायद इसी क्रम में दादाजी से उनके अच्छे सम्बन्ध हो गए थे. दादाजी ने जब नए पोस्टऑफिस की बात सोची, तो उन्होंने इस मामले में सबसे पहले उनसे सलाह ली की एक नया पोस्टऑफिस अगर खुलवाना हो तो इसके लिए क्या करना होगा? दादाजी ने पोस्टल इन्स्पेक्टर साहब से कहा “”अब तो मैं यहाँ से रिटायर हो जाऊँगा, और गाँव में तो कोई अलग पोस्ट ऑफिस है नहीं और ना कोई अलग डाकिया इस गाँव का है..जो हमारे लिए आएगा ख़ास चिट्ठी वग़ैरह पहुंचाने. तो ऐसे में मुझे किसी भी पोस्टल काम के लिए या तो काफी इंतजार करना पड़ेगा या फिर डाकघर के चक्कर लगाने होंगे, और उसी डाकघर के चक्कर लगाना जहाँ से मैं पोस्टमास्टर होकर रिटायर हुआ हूँ, वो थोड़ी दिक्कत की बात है मेरे लिए. ऐसी स्थिति में मैं चाहता हूँ कि मेरे रिटायर्मेंट के बाद कुछ ऐसी व्यवस्था की जाए कि एक छोटा डाकघर हमारे गाँव सिंघौल में भी खुल जाए.”
उन दिनों EDA पोस्टऑफिस का चलन था. ये अंग्रेजों द्वारा शुरू की गयी एक पोस्टल व्यवस्था थी, जिसे उन दिनों “वन मैन” पोस्टऑफिस भी कहा जाता था. EDA पोस्टऑफिस जो भी व्यक्ति खोलता, या यूँ कहे जो भी EDA फ्रैन्चैसी बनता वो एक तरह से एजेंट का काम करता. उसका काम होता डाक से तार को मेन पोस्टऑफिस में पहुँचाना…और वहां से लिफ़ाफ़, पोस्टकार्ड, मनीआर्डर फॉर्म, अन्दार्देशिये, लिफाफे अपने पास रखना. और लोगों को वो ये सब वो कमिसन के हिसाब से बेचता था. EDA वन मैन पोस्टऑफिस न होकर एक कमिसन एजेंट हुआ करता था.
पोस्टल इन्स्पेक्टर साहब ने इसी EDA पोस्टऑफिस की बात दादाजी को कही. उन्होंने कहा कि ये एक ऐसी व्यवस्था है जो आप भी शुरू कर सकते हैं. लेकिन दादाजी ने इस बात पर अपनी आपत्ति जताई. उन्होंने कहा कि ये EDA पोस्टऑफिस खोलना मेरे सम्मान के विपरीत वाली बात होगी, ये मैं नहीं कर सकता.
दादाजी की बात सुनकर उस पोस्टल इन्स्पेक्टर साहब ने फिर कहा कि ठीक है, तो फिर एक और व्यवस्था है जिससे आप एक छोटा डाकघर चला सकते हैं, ये EDA के तर्ज पर ही होगा, लेकिन एक पूर्ण डाकघर का दर्जा इसे अभी नहीं मिल सकता. इन्स्पेक्टर साहब ने कहा, इसके लिए आप एक आवेदन लिख कर दीजिये कि मैं अपने गाँव में एक छोटा डाकघर खोलना चाहता हूँ, और उस डाकघर की जिम्मेदारी पूरी तरह मेरी होगी. पोस्टअल इन्स्पेक्टर साहब ने आगे कहा कि आपके आवेदन की सिफारिश मैं जहाँ तक हो सके करूँगा, और ये रिकमेंड करूँगा कि आपके गाँव की आबादी ज्यादा है, इसलिए यहाँ भी एक डाकघर खुलना चाहिए. लेकिन इन सब बातों के साथ साथ उन्होंने दादाजी के सामने कुछ शर्त भी रखी थी. उन्होंने कहा, अगर आपका डाकघर अप्रूव हुआ, तो उसके पहले पोस्टमास्टर आप ही बनेंगे, और आप आजीवन उस डाकघर के पोस्टमास्टर रहेंगे, लेकिन आपको पोस्टमास्टर के पद का कोई वेतन नहीं मिलेगा और जब आपका डाकघर खुलेगा, तो सरकार के तरफ से आपको कोई पेंसन भी नहीं मिलेगा(उन दिनों दादाजी का पेंसन सेन्ट्रल गवर्मेंट के रुल के हिसाब से ३० रुपये महीना तय हुआ था). आपको ये हक होगा कि आप अपने बाद जिस भी व्यक्ति को चाहे पोस्टमास्टर के पद पर रिकमेंड कर सकते हैं और डिपार्टमेंट उसे पोस्टमास्टर नियुक्त कर लेगा. पोस्टल इन्स्पेक्टर साहब ने आगे कहा – आप चाहे तो डाक बांटने के लिए और डाकघर के काम के लिए आप डाकिये भी रख सकते हैं, लेकिन डाकिये के पैसे, उसका वेतन आपको खुद देना होगा, और डाकघर के सारे खर्च आपको खुद ही उठाने होंगे, इसमें मुंगेर पोस्टऑफिस या बेगुसराय पोस्टऑफिस की तरफ से कोई भी मदद नहीं मिलेगी. उन्होंने कहा आप जहाँ चाहे ये डाकघर खोल सकते हैं, आप चाहे तो अपने घर में भी डाकघर खोल सकते हैं. पोस्टल इन्स्पेक्टर साहब ने दादाजी से कहा, देखिये, ऐसी कोई व्यवस्था है नहीं कहीं, लेकिन ये मैं आपके लिए करवा रहा हूँ, क्योंकि आपके सम्मान की बात है, इसलिए ऐसे एक छोटे डाकघर आपके गाँव में खोलने की सुविधा आपको दी जा रही है.
दादाजी ने उनकी सारी बातें सुनकर तुरंत हामी भर दी. जबकि दादाजी के लिए ये आसान बात नहीं थी. वेतन और पेंसन के अलावा आमदनी का कोई और मुख्य श्रोत नहीं था. ऐसे में एक नए डाकघर का खर्च उठाना एक बड़ी बात थी. लेकिन उन्होंने सोचा कि चलो ये अच्छा हुआ इससे अब मुझे या गाँव के अन्य लोगों को किसी भी डाक के काम के लिए उलाव पोस्टऑफिस के चक्कर तो नहीं लगाने पड़ेंगे.
दादाजी ने लिखित में एक आवेदन उस पोस्टल इन्स्पेक्टर साहब को थमा दिया, और जब दादाजी उलाव पोस्टऑफिस से रिटायर हुए उसके एक दो महीने के अन्दर ही मुंगेर पोस्टऑफिस से एक नया डाकघर खोलने का रिकमेंडेसन और अप्रूवल आ गया. जैसे ही ये अप्रूवल आया, दादाजी ने पोस्टमास्टर का काम शुरू कर दिया, और उन्होंने घर पर ही एक छोटा डाकघर खोल लिया. महेंद्र सिंह, जो दादाजी के हमेशा साथ रहते थे, और दादाजी के शिष्य थे, उन्हें दादाजी ने पहला डाकिया नियुक्त किया.
जब ये डाकघर खोलने का अप्रूवल आया, तब दादाजी बेगुसराय पोस्टऑफिस जाकर वहां से डाक के सारे सामान खुद अपने खर्चे पर खरीद लाये. लिफ़ाफ़े, अंतर्देशिये, फॉर्म वगैरह वो सब खरीद लाये. घर के बारामदे में ही उन्होंने एक छोटा पोस्टऑफिस बना लिया था, वही बरामदे के एक कोने में एक अल्मारी रखने लगे जिसमें लोगों के डाक रखे जाते थे. पूरे गाँव में ये खबर सबको उन्होंने करवा दिया कि इस गाँव में अब एक नया डाकघर खुल चूका है और वो अब यहीं से अपने डाक वैगरह भेज सकते हैं. हमारे गाँव सिंघौल के साथ साथ ये नया डाकघर बाकी तीनों गाँव विनोदपुर, अमरौर और महातपुर का भी डाकघर बन गया.
धीरे धीरे ये पोस्टऑफिस अपनी रफ़्तार पकड़ने लगा…लोग आने लगे और डाक का काम बहुत तेज़ी से बहुत अच्छे से यहाँ से होने लगा. लोगों के डाक उनतक पहुँचने लगे और उनके डाक मेन पोस्टऑफिस तक आराम से पहुँचने लगे.
कुछ ही समय में इस छोटे डाकघर में काम ज्यादा बढ़ गया. उस समय तक बेगुसराय को भी जिला का दर्जा मिल गया था, और बेगुसराय का मुख्य डाकघर बेगुसराय पोस्टऑफिस हो गया..मुंगेर पोस्टऑफिस से अब इसे कोई लेना देना नहीं था. बेगुसराय पोस्टऑफिस में दादाजी के कुछ अपने परिचय थे और उन्हीं परिचय की मदद से उन्होंने सिंघौल पोस्टऑफिस में मनीआर्डर की सुविधा भी शुरू करवा दी.
तब तक सिंघौल डाकघर को भी लगभग एक डाकघर का दर्जा हासिल हो चूका था, और पोस्टल डिपार्टमेंट ने भी इसे एक डाकघर के रूप में स्वीकार कर लिया था. काम का दबाव लेकिन कुछ ज्यादा हो गया था, और दादाजी को लगा कि अब डाकघर का काम घर से चलाना मुश्किल है. उन्होंने डाकघर को दुसरे जगह ले जाने का फैसला किया. गाँव में ही दुर्गा स्थान के पीछे एक कमरा उन्होंने भाड़े पर लिया और इस डाकघर को बरामदे से उठाकर वहां लेकर चले गए जहाँ डाकघर का दफ्तर बना.
लेकिन पोस्टल डिपार्टमेंट के तरफ से इसे एक डाकघर के रूप में स्वीकार करने के बाद भी इस डाकघर का कोई भी खर्च पोस्टल डिपार्टमेंट नहीं उठा रहा था, और एक दूसरी जगह पोस्टऑफिस को सेट करने में जो भी खर्चे थे, वो सभी दादाजी को उठाने पड़े थे. डाकघर में टेबल कुर्सी के इंतजाम से लेकर रँगाई पुताई, बोर्ड लगाना वगैरह सारे काम दादाजी ने खुद से किये. डाकघर दफ्तर के आगे एक बोर्ड भी उन्होंने लगवा दिया “सिंघौल डाक-घर” के नाम से. सिंघौल का अब एक डाकघर अपने स्थायी पते के साथ तैयार हो चूका था. दादाजी वहीं बैठकर पोस्टमास्टर का काम सँभालने लगे. काम काज एक नए रफ्तार के साथ चल निकला, और देखते देखते इस पोस्ट ऑफिस को उसी वक्त रजिस्ट्री की सुविधा भी मिल गई थी. रजिस्ट्री के काम के लिए ही दादाजी के पास वो तराजू था जिसका जिक्र मैं पोस्ट के शुरुआत में किया था. उस पीतल के तराजू के साथ साथ पीतल के ही एक ग्राम से लेकर दो सौ ग्राम तक के बाट(Weight) थे जो रजिस्ट्री का वज़न नापने के इस्तेमाल में लाया जाता था. रजिस्ट्री का कितना वज़न है और उसपर कितने के टिकट लगेंगे इसके लिए दादाजी अपना तराजू अपने पास रखते थे.
रजिस्ट्री की सुविधा मिलने के कुछ ही महीनों बाद दादाजी को लगा कि इस डाकघर का कुछ और विस्तार होना चाहिए. उन्होंने फिर से बेगुसराय में अपना पर्सनल अप्रोच किया और सिंघौल डाकघर को पोस्टल सेविंग बैंक की भी सुविधा मिल गयी. गाँव के लोग थोड़े थोड़े पैसों से सेविंग अकाउंट खोलने लगे, धीरे धीरे इस पोस्टल सेविंग बैंक का भी बहुत ही अच्छा विकास हुआ और देखते ही देखते गाँव के बहुत से लोगों के पोस्टल सेविंग अकाउंट खुल चुके थे.
सिंघौल डाकघर अब एक पूर्ण विकसित डाकघर बन चूका था. एक समय के बाद जब दादाजी को जब लगा कि अब उनके लिए पोस्टऑफिस चलाना आसान नहीं है, तो दादाजी ने अपने एक और शिष्य राजेंद्र प्रसाद सिंह जो कि दादाजी के साथ हमेशा रहा करते थे, उन्हें गाँव का दूसरा पोस्टमास्टर बना दिया.
सोचता हूँ कभी तो लगता है दादाजी को क्या जरूरत थी एक पोस्ट ऑफिस की शुरुआत करने की…? अपने पैसे लगाकर एक नया डाकघर चलाना आसान काम थोड़े ही है…लेकिन उन्होंने ये काम गाँव के लोगों के भलाई के लिए की थी, बिना किसी लालच या बिना किसी फायदा का सोच कर. एक डाकघर खुलने से गाँव वालों के काम कितने आसान हुए होंगे ये आप सोच सकते हैं. डाक घर के अलावा दादाजी होमोपैथी की दवा भी गरीबों में मुफ्त बांटा करते थे. दादाजी होमोपैथी के डॉक्टर थे. बाकायदा होमोपैथी की डिग्री थी उनके पास. गरीबों में वो दवा मुफ्त बांटते थे और बाकी लोगों को भी बहुत मामूली दाम पर होमोपैथी की दवा देते थे. पापा के पास एक होमोपैथी की मोटी सी किताब है, जो की दादाजी अपने पास रखा करते थे, उस किताब में जगह जगह दादाजी के दस्तखत और स्टैम्प हैं….जब कभी वो दस्तखत देखता हूँ तो हमेशा मुसकराहट आती है चेहरे पर की दादाजी के दस्तखत कितने स्टाईलिश हुआ करते थे उस ज़माने में भी…पापा से सुनते आया हूँ कितने ही किस्से दादाजी के…वो भजन कीर्तन करते, बाकायदा मण्डली लगाते वो, नाटक मण्डली भी वो देखते और जाने गाँव के लोगों के लिए कितने ही काम किया करते थे और वो भी बिना किसी फायदे या लालच के. सोचता हूँ ऐसे ही कई किस्से अपने ब्लॉग पर सहेजता रहूँगा, अपने दादाजी के किस्सों को..!
और ये तराजू की तस्वीर….मुझे अब भी इस तराजू से खेलना बहुत अच्छा लगता है..
इसी छोटे बॉक्स के अन्दर तराजू है. ये देखने पर एक किताब सा लगता है न?
ये तराजू का निचला हिस्सा, इसे बक्से पर जो एक छेद है, उसमे लगाया जाता है

 

और ये ऊपर वाले के हिस्से के ऊपर फिर किया जाता है
कुछ ऐसे खड़ा होता है ये तराजू
तराजू का ये हिस्सा फिर उसपर चढ़ाया जाता है, जिसे एक
डोर या पतले सिक्कड़ से बाँध कर कसा जाता है
इस तरह तराजू खड़ा होता है, देखिये अगर तो इसके एक तरफ शीशे
का प्लेट चढ़ा है, जिसपर रजिस्ट्री रख कर वजह की जाती थी
और तराजू का टॉप-व्यू
Meri Baatein
Meri Baateinhttps://meribaatein.in
Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. कमाल का कनेक्शन है ना… मेरे दादाजी भी जी.पी.ओ. में असिस्टेण्ट पोस्टमास्टर के पद से रिटायर हुये. और उनकी मृत्यु 31 मार्च 1989 को कदमकुँआ पोस्ट ऑफिस में किसी के लिये पोस्ट ऑफिस का काम करते हुए ही हुई थी. वे सही माने में अंग्रेज़ों के ज़माने के पोस्टमास्टर थे. लिफ़ाफे पर किस कोने में टिकट लगाना है, किस ओर पता लिखना है, कहाँ पर भेजने वाले का पता लिखना, सब उन्होंने सिखाया. बहुत सारे डाकटिकट के पहले एडिशन भी थे हमारे पास.
    तुम्हारा यह संसमरण उस ज़माने के लोगों का अपने काम के प्रति जुनून दर्शाता है और लगन अपने काम और लोगों के प्रति. एक बहुत ही प्रेरक संसमरण. नमन है उन महान और कर्मठ व्यक्ति को!!

  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की ९५ वीं बरसी – ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !

  3. इनमे से लगभग सारी ही बातें तो हमें पता ही थी रे…पर आज सिलसिलेवार पढ़ कर और भी अच्छा लगा…| जैसा तराजू है न ये, वैसी पुरानी यादे समेटे चीज़े देखना…उनसे खेलना हमें भी बहुत अच्छा लगता है…|
    सलिल चचा की बात से सहमत हैं, उस समय सच में लोगों में अपने काम के लिए एक समर्पण की भावना थी…|
    दादा जी के और बहुत सारे किस्सों को सुनने का इंतज़ार रहेगा…उनकी यादों को नमन के साथ…|
    🙂

  4. पोर्टेबल तराजू..बहुत बढ़िया पोस्ट..मजा आ गया..

  5. दादा जी के काम के साथ यह तराजू बहुत पसंद आया , संभाल के रखना !! मंगलकामनाएं

  6. कहाँ गए वे लोग ?
    वे लोग जो समाजहित और परमार्थ के लिये अपने हानि-लाभ या सुख-सुविधाओं की परवाह नही करते थे , वे लोग जो नाम कमाने से निस्पृह रह कर नींव के पत्थर की तरह इमारत की मजबूती के लिये प्रतिबद्ध रहते थे और वे लोग जो सिर्फ जीना नही ,सार्थक होकर जीना जानते थे ,वे अब कहाँ हैं । दादाजी के परिश्रम और त्याग के आगे नतमस्तक हूँ । और सह सोचकर गर्वित हूँ कि मेरा भी किसी न किसी रूप में ऐसे ही त्यागशील व उच्चादर्शों वाले लोगों से जुडाव रहा है । आपको आश्चर्य होगा कि डाकघर वाली घटना हमारे परिवार से काफी कुछ मिलती है । मेरे छोटे ताऊजी के रिटायर होने तक डाकघर हमारे ही 'बडे बँगला' नाम से जानी जाती कच्ची पाटौर में चलता था । आपका संस्मरण बहुत ही आत्मीय लगा ।

  7. वाह, बड़ी ही रोचक कथा, चाह से राह निकलती है, सूचना का प्राथमिक आधार रहा है डाकघर।

  8. एक नायाब और बेहतरीन पोस्ट. हर लिहाज से ..
    पहले लोगों में पर हित की भावना स्वाभाविक रूप से पाई जाती थी. अब तो किसी को खुद से ही फुर्सत नहीं.
    पूरी पोस्ट एक फिल्म की तरह दिख गई. आभार अभि, और लिखो, खूब लिखो.

  9. ऐसे धुन के पक्के लोग ही जीवन में सार्थक कार्य कर सकते हैं- उन्हें हमारा नमन !

  10. रोचक पोस्ट ….हम सबके लिए पठनीय और आपके लिए इन स्मृतियों से जुड़ा सब कुछ सहेजने योग्य….. शुभकामनायें

  11. अभि , तुम्हारा कान तो पकड़ने का बहुत बार मन होता है पर ज्यादा रोने लगोगे तो तुम्हे भी टॉफी-गुब्बारा देना पड़ेगा..फिर तो तुम भी शहजादे हो जाओगे.. बहुत ही अच्छा लिखा है .

  12. आपने जो अपना संस्मरण लिखा है ओ बहुत ही आत्मीय है ,दादा जी द्वारा किये गए अतुलनीय कार्य को आपने बड़े ही प्रभावशाली तरीके से क्रम बध्द किया है ………
    मैं भी अपने आप को बड़ा ही गर्वित महसूस करता हूँ क्योंकि मैं भी एक महान स्वतंत्रता सेनानी (स्वर्गीय श्री गंगा प्रसाद चौधरी) के परिवार पला बढ़ा हूँ | आपकी पोस्ट पढ़ कर मुझे अपने परदादा जी की याद आ गयी ,जो पहले स्वतंत्रता के लिए लड़े और बाद में गांव के पहले प्रधान भी बने ,वे ११ वर्षों तक गांव के प्रधान रहे ,उन्होंने अपने कार्यकाल में गांव में प्राथमिक विद्यालय खुलवाया जो की एक अध्यापक और छप्पर के नीचे शुरू हुआ |इस तरह कई कार्य किये उन्होंने
    आपकी पोस्ट ने फिर से हमें उनकी खो दिया| पुरानी बातों को आपने सहेज कर रखा …….धन्यवाद

  13. पोस्टमास्टर साहब की लगन, उस जमाने का मोबाइल तराजू और एक पोते का अपने दादाजी के कृतित्व को गर्व से याद करना, मन पुलकित हुआ।

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