“ऐसा ‘करेक्टर’ घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता”, बिमल-दा ने वहीं रोक दिया.
“बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी ?” सचिन-दा ने पूछा.
बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती ?” बिमल-दा ने दलील दी।
“यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है.”
“तो आँगन में ले जाओ. लेकिन बाहर नहीं गाएगी.””बाहर नहीं गाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा”, सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी.
दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है.
सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई :
ललल ला ललल लला ला
गीत के पहले-पहल बोल यही थे. पंचम ने थोड़ा से संशोधन किया :
ददद दा ददा दा
सचिन-दा ने पिर गुनगुनाकर ठीक किया :
ललल ला ददा दा लला ला
दो-चार…दो-चार…दुई-चार पग पे आँगना-
दुई-चार पग….बैरी कंगना छनक ना-
ग़लत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए :
मोहे कोसो दूर लागे
दुई-चार पग पे अँगना-
चला आया. गुनगुनाता रहा. कल्याणी के मूड को सोचता रहा. कल्याणी के खयाल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हाँ, एक बात ज़िक्र के काबिल है. एक ख़याल आया, चाँद से मिन्नत करके कहेगी :
फौरन ख़याल आया, शैलेन्द्र यही ख़याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं :
कल्याणी अभी तक चाँद को देख रही थी. चाँद बार-बार बदली हटाकर झाँक रहा था, मुस्करा रहा था. जैसे कह रहा हो, कहाँ जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूँगा. सब देख लेंगे. कल्याणी चिढ़ गई. चिढ़के गाली दे दी :
चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई. सोचा, वापस लौट जाऊँ. लेकिन मोह, बाँह से पकड़कर खींच रहा था. और लाज, पाँव पकड़कर रोक रही थी. कुछ समझ में नहीं आया, क्या करे ? किधर जाए ? अपने ही आप से पूछने लगी :
गुमसुम कल्याणी बैठी रही. बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती. इतनी चाँदनी न होती. या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चाँदनी में छलक-छलक जाती. अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढँकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती. लौट आयी बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई. यही गुनगुनाते :
मंजिल जितनी खूबसूरत होती है, उससे कहीं ज्यादा सुन्दर होती है राह!
गीत तक का सुन्दर सफ़र साझा किया, आभार!
गुलज़ार साहब के जन्मदिन पर बेहद सुन्दर प्रस्तुति!
अरे वाह ! अद्भुत , आनंद आ गया पढ़ कर ।
behtreen aur superb…..
ये हुआ न सही सेलीब्रेशन…………….
शुक्रिया अभि………………दिल से शुक्रिया!!!
सस्नेह
अनु
पता था कुछ ख़ास ज़रूर मिलेगा आज यहाँ… आ के निराश नहीं हुई 🙂
शुक्रिया अभि इस खूबसूरत गाने के पीछे की इतनी इंटरेस्टिंग कहानी साझा करने के लिये… गुलज़ार यूँ ही गुलज़ार रहें सदा !
बहुत सुन्दर, सार्थक एवं रोचक लेखन .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (19.08.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी, ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
मैं जब ये पोस्ट कर रहा था, तो मैंने सोचा ही था की आपतक इसका लिंक पहुंचाऊंगा! लेकिन आपने तो खुद ही पढ़ लिया! 🙂
एक संजो कर रखने वाली नायाब पोस्ट
🙂 maja aa gaya… behtareen!!
आज तो यादें का पिटारा ही खोल दिया … गुलज़ार साहब से जुडी लाजवाब …. यादगार बातें … आभार इतना कुछ साझा करने के लिए…
गुलजा़र जी के गीतों का उनके अनूठे प्रयोगों का कोई सानी नही है । यह गीत पहली बार सुना है । गुलजार जी लताजी और बर्मन दा की त्रिवेणी तो अद्भुत होती है । आँधी के गीतों को कौन भूल सकता है ।
बेहतरीन पोस्ट..
गुलज़ार के पास पहुँच कर शब्द अपने आप को व्यक्त करने के लिये व्यग्र होने लगते हैं।
आपकी इस पोस्ट को आज के शुभ दिन ब्लॉग बुलेटिन के साथ गुलज़ार से गुल्ज़ारियत तक पर शामिल किया गया है….