जगदम्बा स्थान – पटना से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर माँ जगदम्बा का एक बहुत ही प्रसिद्ध देवी स्थान है जहाँ प्रत्येक मंगलवार और शनिवार भक्तों की अपार भीड़ लगती है। जगदम्बा स्थान करौटा में स्थित है। मुझे इसके बारे में आज से करीब चार साल पहले पता चला था जब पहली बार वहां गया था, पापा-माँ, नानी, मामी और भाई-बहन के साथ। वैसे हम तो घूमने के इरादे से ही गए थे, और माँ, नानी, मामी पूजा करने के इरादे से :)। इस जगह में निश्चित ही कोई चुंबकीय शक्ति है जो हमेशा मुझे अपनी तरफ खींचती है। पहली बार में ही इस जगह से मुझे प्रेम हो गया था।
जनवरी 2008 में पहली बार हमलोग जगदम्बा स्थान गए थे। शायद माँ-पापा भी इससे पहले कभी गए नहीं थे वहां। जगह के बारे में भी सही से कुछ पता नहीं था। जानकारी के नाम पर बस इतनी सी बात पता थी कि बख्तियारपुर रेलवे स्टेशन के पहले आता है करौटा, और एन.एच 30 से ही कोई रास्ता निकलता है जो सीधा करौटा के मंदिर को जाता है। पूछते-पुछाते हम भी आखिरकार पहुँच ही गए जगदम्बा स्थान। जाड़े का मौसम था और बहुत ही अच्छी नर्म धूप खिली हुई थी। आसपास इतने पेड़-पौधे और हरियाली थी कि देख कर मन प्रसन्न हो गया। मंदिर के बगल में एक छोटा सा गार्डन बना हुआ था जिसमें बड़े ही सुंदर गुलाब के फूल खिले हुए थे। गुलाब के फूलों ने मुझे काफी आकर्षित किया, इतने खूबसूरत गुलाब के फूल मुझे बहुत कम जगह देखने को मिले थे। यहीं एक छोटा सा तालाब भी था और गार्डन में चारों तरफ बैठने के लिए लकड़ी के बेंच लगे हुए थे। गुलाब के अलावा तरह-तरह के फूल पत्तों से गार्डन भरा पड़ा था। काफी खूबसूरत लगा मुझे ये गार्डन। मंदिर के सामने एक धर्मशाला बना हुआ था, जिसका कम्पाउंड बहुत बड़ा था। और धर्मशाला के कम्पाउंड में माहौल किसी मेले जैसा। मुझे धर्मशाला का कम्पाउंड भी बहुत खूबसूरत लग रहा था। सोचने लगा कि कैसा होता अगर यहीं रहते हम। जाड़ों की धूप में पूरा दिन इसी कम्पाउंड में बैठा करते, सामने मंदिर और आसपास मेले जैसा माहौल। यहाँ के वातावरण से मुझे प्यार हो गया था…दिल में तो आया कि यहीं रुक जाऊं एक दो दिन। माँ, नानी और मामी तो पूजा करने में व्यस्त रहीं, और मैं इधर-उधर घूमने में और आसपास के इलाकों को देखने में।
२००८ जनवरी की तस्वीर
सुनने में आया मुझे कि वसंत के समय यहाँ मेले लगते हैं, और लगभग उसी आसपास हम भी पहुंचे थे, शायद इसलिए भी चहल-पहल एकदम मेलों जैसी लगी मुझे। मुझे इस जगह के हर हिस्से से प्यार हो गया था। चाहे वो सड़कें हों जो एन.एच से निकलकर सीधा मंदिर तक आती हैं और दोनों तरफ विशाल तार के पेड़ एक लाइन से लगे हुए हों या फिर मंदिर के कम्पाउंड का वो विशाल पेड़, जिसमें सब लोग कुछ मन में प्रार्थना लिए धागा बांधते हैं। मैं इससे पहले भी कई मंदिर गया हूँ, लेकिन यहाँ की बात अलग थी। मेरा मन मोह लिया था इस मंदिर ने। आसपास की दुकानों में भी बड़ी चहल-पहल थी। गरमा-गरम गुलाबजामुन, लाइ, जिलेबियाँ और समोसे मिल रहे थे। तीन घंटे यहाँ बिताने के बाद हम गर्म-गर्म जिलेबियाँ और लाइ बंधवा के, एक खूबसूरत याद लिए वापस चल दिए।
बैकटपुर मंदिर के अंदर
वापसी में माँ ने कहा कि पास में ही एक और मंदिर है, बैकटपुर स्थित बैकटपुर शिव मंदिर। वहां भी हम गए दर्शन के लिए। ये मंदिर भी काफी प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर है। मंदिर अंदर से विशाल है और काफी शांत। सफाई भी अच्छी खासी है यहाँ। मंदिर के कम्पाउंड में बड़े-बड़े पीपल के दो पेड़ हैं, और वातावरण एकदम शीतल। वैसे तो मंदिर में दर्शन करने के लिए काफी लोग आते हैं, लेकिन उस दिन ज्यादा लोग नहीं थे मंदिर में, इसलिए हम अच्छे से घूम सके भी। मंदिर का कम्पाउंड तो बहुत बड़ा था ही, मंदिर के दीवारों पे तरह-तरह के चित्र बने हुए थे…काफी अच्छी कलाकारी थी, एकदम खजुराहो के जैसी। मंदिर के ऊपरी दीवारों पे काफी चिड़ियाँ बैठी हुई थी। ये देख के भी बड़ा अच्छा लग रहा था। इस मंदिर के बारे में जानकारी तो उस वक्त किसी किस्म की नहीं मिली, लेकिन बाद में मैंने जब इंटरनेट पे सर्च किया तो पता चला कि 17वीं सदी में सम्राट अकबर के सेनापति राजा मानसिंह की माता ने इस स्थान पर अपना शरीर त्यागा था। उन्हीं की याद में मानसिंह ने इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
बैकटपुर का मंदिर जगदम्बा स्थान से काफी विशाल और बड़ा था और यहाँ आकर मुझे खुशी भी काफी हुई, लेकिन फिर भी जो प्रसन्नता मुझे जगदम्बा स्थान में हो रही थी, वो अलग थी। बैकटपुर और करौटा जाने के समय मेरी बहन साथ नहीं थी, उसके एम्.एस.सी के सेमेस्टर एक्जाम चल रहे थे। फोन पे ही मैंने उसे इन जगहों के बारे में इतना सुना दिया था कि वो कहने लगी, पटना आउंगी तो तुम लोगों को फिर से चलना पड़ेगा। जब वो परीक्षा दे के पटना आई, तो प्लान बना गाँव जाने का। हमलोगों का गाँव सिंघोल, बेगुसराय जिले में पड़ता है और बेगुसराय-पटना के बीच में आता है करौटा। तय ये हुआ कि गाँव से लौटते वक्त हम करौटा में माँ के दर्शन करते हुए वापस आएँगे। मेरी बहन को भी ये जगह उतनी ही पसंद आई थी जितनी मुझे।
फिर कई दिन हो गए, दो-तीन साल बीत गए, वहां हम नहीं जा पाए। इस जनवरी में मेरी बहन की शादी थी, शादी के बाद यहीं एक दिन मैंने माँ से कहा कि चलो चलते हैं जगदम्बा स्थान। लेकिन घर में शादी के बाद कुछ न कुछ काम लगे ही रहते हैं, फुर्सत ही नहीं मिल पाई हमें और फिर मैं वापस बैंगलोर आ गया। मई में फिर से घर जाना हुआ तो वहां जाने का प्लान बना। लेकिन इस बार वहां जाना मंदिर के दर्शन कम, एडवेंचरस ज्यादा हो गया।
हुआ ये कि जब हमने कार्यक्रम बनाया जगदम्बा स्थान जाने का, उसके एक दिन पहले से ही एन.एच 30 पे दो दिनों से भारी जाम लगा हुआ था। इस तरह का जाम अधिकांश लोगों ने ना पहले कभी सुना न देखा। हमें इस बात की हल्की सी भी खबर नहीं थी, लोकल न्यूज़ भी किसी ने ध्यान से सुना नहीं। सुबह करीब साढ़े पांच बजे मैं, माँ, पापा और नानी निकले मंदिर के लिए। सोचा तो था कि हद से हद इग्यारह या बारह बजे तक वापस घर पहुँच जाएंगे। जैसे ही पटना बाईपास पे हमारी गाड़ी पहुंची, जाम के दर्शन शुरू हो गए। मुझे लगा बाईपास पे तो जाम हमेशा लगा ही रहता है, कोई खास बात नहीं। लेकिन जैसे जैसे आगे बढ़ते गए वैसे वैसे जाम और बढ़ता गया। वैसे आगे तो बस हम नाम के बढ़ रहे थे। गाड़ी दूसरे या हद से हद तीसरे गियर में चल रही थी। फतुहा तक पहुँचते पहुँचते हमें ये लग गया कि इस बार अच्छे खासे चक्कर में पड़ गए हैं। इधर से जाने वाले लेन में तो फिर भी गाड़ी थोड़ी बहुत आगे बढ़ रही थी और इसी तरह हम लोग फतुहा तक पहुंचे, लेकिन उधर से आने वाले लेन में तो ट्रक सब एकदम रुकी हुई थी, एक लाइन से लगी हुई। एकदम स्टैटिक। एक भी ट्रक आगे नहीं बढ़ रही थी। हम इतने बुरे फंसे हुए थे कि आगे बढ़ने के अलावा कोई और रास्ता भी नहीं था। चाह के भी गाड़ी पीछे नहीं मोड़ सकते थे। कोई ऑल्टरनेट रूट भी नहीं था कि हम वापस घर पहुँच सकते। बस एक ही रूट थी, बाईपास की, जिसपे इस तरह की भयानक जाम लगी हुई थी। उधर से आने वाले लेन में तो ट्रकें ही ट्रकें लगी हुई थी और सब बस लगी ही हुई थी, पटना बाईपास से लेकर लगभग बैकटपुर तक, ट्रकें एक लाइन से लगी हुई थी, खड़ी थीं। सड़कें भी इतनी कम चौड़ी थीं कि एक दो गाड़ियां आगे पीछे हो जाए तो जाम और गहरा जाता। लोग इधर उधर दाएं बाएं कर के अपनी गाड़ियां निकाल रहे थे। मैंने भी जैसे तैसे गाड़ी निकाली। करौटा पहुँचने के करीब दस किलोमीटर पहले लगा कि इधर से जाने वाली लेन क्लियर हुई। लेकिन उधर से आने वाली लेन तो फिर भी थी, और ट्रक स्टैटिक लगे हुए। यह हम लोगों के लिए परेशानी की बात हो गई थी। बैकटपुर के कुछ पहले, करीब करौटा से पांच-छः किलोमीटर पहले जाम क्लियर हुआ, राहत मिली। लेकिन फिर भी ये चिंता बनी हुई थी कि वापस में कहीं फिर जाम न मिले।
सुबह साढ़े पांच बजे हम घर से निकले थे, और मंदिर पहुँचते पहुँचते हमें साढ़े बारह बज गए थे। थोड़ा सुकून मिला मंदिर पहुँच के। लेकिन मंदिर की खराब सफाई और रख-रखाव देख बहुत गुस्सा भी आया, दुःख भी हुआ। मंदिर के एक हिस्से में लगे मार्बल पे इतनी ज्यादा फिसलन थी कि सीढ़ियों से उतरने या चढ़ने में आपने हल्की सी भी असावधानी की तो फिसले। पिछली बार जब जाड़ों में गया था तो यहाँ की हालत ऐसी नहीं थी, उस वक्त साफ़ सुधरा हुआ करता था मंदिर। मंदिर के फर्श से लेकर कम्पाउंड तक, हर जगह पानी, कीचड़ और गंदगी थी। छह सात घंटे जाम में फंस कर दिमाग वैसे ही अच्छा खासा इरिटेट हो चुका था, और उसपे मंदिर की ऐसी व्यवस्था। पिछले बार जब गया था तो मंदिर के बगल में एक खूबसूरत गार्डन था, जो इस बार बंद था। और अंदर की दुर्दशा ऐसी कि मुझे कहीं गुलाब दिखे ही नहीं। पिछली बार गार्डन बड़ा खूबसूरत दिख रहा था, और बीच में एक छोटा सा तालाब भी था। मैं तो सोच के गया था कि इस बार जाऊँगा तो गार्डन के गुलाबों की तस्वीर निकालूँगा। पिछले बार तो अच्छा कैमरा भी पास नहीं था, मोबाइल से ही फोटो निकाले थे। लेकिन इस बार मंदिर वालों ने गार्डन भी बंद रखा था। वैसे अगर गार्डन खुला भी होता तो भी उसकी दुर्दशा ऐसी थी कि मैं अंदर जाता भी नहीं। मंदिर के सामने ही एक मंदिर कंट्रीब्यूशन ट्रस्ट का बोर्ड लगाए कुछ आदमी बैठते हैं, जहाँ आप अपनी इच्छा अनुसार दान कर सकते हैं। मंदिर में दान राशि भी अच्छी खासी मिलती होगी, लेकिन फिर भी मंदिर की ऐसी हालत, ये बात बहुत तकलीफ दे गई।
इन सब कारणों के बावजूद मुझे यहाँ आकार बड़ा अच्छा लग रहा था। पक्के तौर पे कह सकता हूँ कि ये जगह सम्मोहित करती है, नहीं तो इतनी खराब व्यवस्था के बाद भी आपको कोई जगह अच्छी लगे, ये कोई आसान बात नहीं। उस दिन गर्मी भी अच्छी खासी थी, केवल पसीने ही चल रहे थे। और उसी गर्मी में हम मंदिर के पास दुकान में बैठ के गरमा गरम समोसे और जलेबियाँ खा रहे थे। अच्छी खासी भूख लगी हुई थी, और इस बात से कुछ फर्क नहीं पड़ रहा था कि इतनी गर्मी है.. पसीने चल रहे हैं उसपर गर्म गर्म समोसे और जलेबी। करीब दो ढाई घंटे के बाद हम वहां से चले.. माँ ने कहा कि इतने देर में तो जाम भी खत्म हो ही गया होगा, लेकिन मेरे मन में दुविधा अब भी थी।
करौटा से निकलने के बाद करीब दस किलोमीटर तक सड़कें एकदम खाली मिली.. हम सब बड़े ही खुशी खुशी वापस आ रहे थे, कि चलो जाम भी समाप्त हो गया और दर्शन भी हो गए। लेकिन फतुहा के ठीक कुछ पहले ही फिर से वही जाम, ट्रकों की वैसी ही लाइन। हमारी गाड़ी फिर वैसे ही रुक रुक के चलने लगी। रुक ज्यादा रही थी, और चल कम रही थी। हम लोगों ने ये मान लिया था कि घर पहुँचते पहुँचते रात हो ही जाएगी। जब थोड़ा आगे बढ़े हम तो देखा कि फतुहा मोड़ पे कुछ ट्रैफिक पुलिस वाले खड़े हैं जो किसी दूसरे रूट में गाड़ियों को डाइवर्ट कर रहे हैं। हम भी उनके बताए हुए डाइवर्जन पे चल दिए। वो दनियावां जाने वाला स्टेट हाइवे था। सब गाड़ियां इधर से ही जा रही थी, करीब तीन चार किलोमीटर तक जाने के बाद पापा को ये ख्याल आया कि किसी से पूछ लेनी चाहिए ये सड़क किधर निकलती है, वैसे पापा को मालूम तो था कि ये स्टेट हाइवे किधर निकलती है लेकिन पटना तक यही रूट जाती भी है या नहीं ये कन्फर्म करना था.. एक ऑटो रिक्शा वाले से पता करने पे मालूम हुआ कि ये हिलसा के तरफ जाती है और पटना इस रूट से करीब 70 किलोमीटर पड़ेगा। फिर उसी ने हमें ये बताया कि जिस तरफ से हम आ रहे हैं, वहीं फतुहा मोड़ से एक कच्ची सड़क निकली है जो की बाद में पटना जीरो माईल में जाकर मिलती है। हम वापस उसी मोड़ पे पहुंचे, तो देखा कि ट्रैफिक पुलिस वाले वहां खड़े थे और छोटी गाड़ियों को उस कच्ची सड़क के तरफ मोड़ रहे थे। हम भी उसी तरफ मुड़ गए।
वो कच्ची सड़क ऐसी थी कि इधर गड्ढा तो उधर… एकदम ऊँची नीची सड़क… कहीं कहीं अचानक से सड़क उठ जाती तो कहीं कहीं खाई सी एकदम नीचे जाती… उसी सड़क से जैसे तैसे लेकर गाड़ी निकाल ही रहा था कि उसी बीच जबरदस्त जोरदार आंधी चलने लगी। एकदम धूल भरी आंधी। आंधी इतनी जोरदार थी कि गाड़ी कुछ देर के लिए रोकनी पड़ी। कुछ भी दिखाई नहीं दे पा रहा था। गाड़ी की हालत तो ऐसी कि हर कोने पे धूल ही धूल भरी हुई थी। उसी कच्ची सड़क पे दो तीन किलोमीटर चलने के बाद पक्की सड़क मिली। हम लोग जिस कच्ची सड़क को पकड़ के चले थे, वो एकदम खेत खेत होते हुए जा रही थी। आदमी या किसी बस्ती का कोई नामोनिशान नहीं दिख रहा था। नजर आ रहा था तो केवल वो गाड़ियां जो डाइवर्जन की वजह से इस रूट से जा रही थी। पक्की सड़क बहुत अच्छे बने हुए थे। खेतों और समतल मैदानों से सड़क की उचाई कम से कम दस फीट रही होगी।
धूल भरी आंधी के बाद बारिश होने लगी थी। मौसम भी अच्छा हो गया था। और सही कहूँ तो इन सड़कों पे गाड़ी चलाना मुझे अच्छा लग रहा था। दूर दूर तक केवल मैदान और सड़क, ना कोई बस्ती न गाँव। कुछ दूर चलने पे एक बोर्ड दिखा कि “चंडासी गाँव सत्रह किलोमीटर”। पूछने पे पता चला कि चंडासी से ही सड़क पटना जीरो माईल में मिलती है। पूरे सत्रह किलोमीटर तक न कोई गाँव दिखा न कोई इंसान.. आगे पीछे केवल गाड़ियाँ थीं जो डाइवर्जन के वजह से इस रास्ते जा रही थीं। सड़कें भी एकदम जिलेबी की तरह, घुमावदार। ऐसा लगता था कि जहाँ से हम चले वहीँ पहुँच गए। अगर एक सीधा स्ट्रेच पे सड़कें रहती तो दूरी कम लगती और समय भी बचता। आगे उसी सड़क पे एक जगह एक बस नीचे मैदानों में गिरी दिखी। वहाँ पुलिस के दो जीप भी लगे थे (बाद में घर आने पे न्यूज़ में ये बस गिरने की खबर भी आई थी)। सड़कें अच्छी थीं लेकिन छोटी, केवल छोटी गाड़ियों को ही इस रास्ते आने की इजाजत थी, लेकिन बस वाले इधर भी जबरदस्ती बस घुसा के ला रहे थे। शायद इसी वजह से बस भी नीचे मैदानों में गिरी होगी। वो सड़क आगे जाकर गौरीचक इलाके में मिली। तब जाकर हमें सुकून आया, कि चलो कम से कम पटना के किसी इलाके में तो पहुंचे।
गौरीचक पहुँचने के बाद भी राहत नहीं मिली। आगे चलके फिर से जाम में फंसना पड़ा। लेकिन इस बार ज्यादा देर के लिए नहीं। देखा कि सड़कों के नीचे एक कच्ची सड़क फिर से जा रही थी, हम फिर से उसी कच्ची सड़क में गाड़ी उतार दिए। पूछने पे पता चला कि ये सड़क “कृष्णा निकेतन” स्कूल में जा मिलती है। ये बहुत राहत वाली बात थी हमारे लिए। कृष्णा निकेतन स्कूल मतलब पटना मेन पहुँच जाना। खैर, इसी रास्ते आगे बढ़ते रहे, कुछ बड़ी गाड़ियाँ से थोड़ी परेशानी और तकलीफ हुई लेकिन आख़िरकार हम पटना बाईपास पे पहुँच गए। जाम तो इधर भी लगा हुआ था और गाड़ी हम बाईपास से होते हुए कंकरबाग के इलाके से निकाल लिए। जब शहर में पहुंचे तब जाकर कहीं राहत मिली।
सुबह साढ़े पाँच बजे का शुरू किया सफर हमने शाम चार बजे घर पहुँच के पूरा किया। नानी, पापा, माँ सबने कहा कि ऐसा जाम उन्होंने जिंदगी में कभी नहीं देखा। घर जाकर पता लगा कि वो विशाल जाम दो तीन दिन से लगा हुआ था। और जाम क्लियर होने में कुछ 90 घंटे लगे थे। घर पहुँच के दिमाग में ये बात तो जरूर आई थी कि अगर हमें डाइवर्जन नहीं मिलता तो क्या होता।
ये सफर एक यादगार सफर बन गया हमारे लिए। 🙂
ek baar main panshi thi trafic jam men.while going to hyderabad. 🙁 bhot irritating hota hai. i knw :/
newaiz itz kind of a exp you will neva forget. 😛 dh pics are nice..esp d last one :-))
सारी पोस्ट तो पढ़ ली पर मन जलेबी में अटका रहा।
हम्म जलेबी ….पोस्ट भी वैसी ही है मीठी.
यात्रा वृत्तांत भी बहुत अच्छा लिख लेते हो तुम.. रोचक और रूचि बनाए रखने वाली शैली है!!
दिल में आस्था हो तो बाधाये स्वतः दूर हो जाती है !यह माँ की अनुकम्पा ही थी ! जो समय से निकल कर समय से घर वापस आ गएँ ! बहुत सुन्दर गर्मी का अनुभव
अभी भाई, मुझे जलेबी दिखाई नहीं दे रही है, भिजवाओ ना,
बच गये नब्बे घंटे फ़ंसने से
बहुत बढ़िया रही पोस्ट और फोटो…. और जलेबी
लगता है जलेबी काफी फेमस हो गए हैं पोस्ट में….:) कमेंट्स में केवल जलेबी ही जलेबी…अब तो मुझे भी फिर से मन करने लगा जलेबी खाने का 😛
i totally agree with praveen ji, mera mann bi jalebi main attka rha!!!
nice post! pics bhi awesome hai, u look a lot like your dad!
@स्नेहा, जिन्होंने भी देखा है मेरे पापा की और मेरी तस्वीर, सब ऐसा ही कहते हैं 🙂
आभार।
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तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
…ये ब्लॉगिंग की ताकत है…।
ऐसा लगा जैसे हम भी हो आये जगदम्बा स्थान…पटना में थी तो एक बार दशहरे में जाना हुआ था…अब याद नहीं है…बहुत साल हो गए. हाँ ये पोस्ट पढ़ कर ऐसा जैसे पटना को छू आये हैं, सालों की यादों के धीरे धीरे चलने वाले जाम से गुजरकर.
हाँ…जलेबी हमारे भी मन में अटक गया 🙂
सुन्दर संस्मरण … आपके लिखने की शैली में रोचकता बरकरार रहती है ..
यात्रा वृत्तांत ….बहुत अच्छा विवरण