ब्लॉगिंग के वे बड़े अच्छे दिन थे जब किसी ने एक पोस्ट लिखा, और आपको कुछ अपना उस पोस्ट से याद आ जाता था और आप जवाब में एक और पोस्ट लिख दिया करते थे। मेरे लिए कुछ अपने लिखने के इंस्पिरेशन के स्रोत रहे हैं – प्रशांत, शिखा दीदी, रश्मि दीदी और प्रियंका दीदी। इन लोगों के कई पोस्ट पढ़कर कुछ याद आया, उसे यहाँ ब्लॉग पर लिख डाला। कितनी बार ऐसा भी हुआ कि मेरी पोस्ट को पढ़कर भी इन लोगों में से किसी को कुछ याद आया और उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा। इधर इन दिनों ब्लॉगिंग से दूर हूँ, ना पढ़ पा रहा हूँ, ना सही से लिख पा रहा हूँ, लेकिन लिखने का अब मन फिर से कर रहा है।
कुछ दिन पहले प्रशांत को यूँ ही छेड़ रहा था कि, “यार, तुम लिखते नहीं इन दिनों,” और उसने आज सुबह ही सरप्राइज दिया, एक खूबसूरत पोस्ट से। पोस्ट को पढ़ते हुए कुछ याद आया मुझे भी, उसे यहाँ शेयर कर रहा हूँ आज।
बात हमारे बचपन की है, जब हम सब छोटे थे और बच्चों पर हमारे बड़े हुक्म चलाते थे। हुक्म चलाने में वैसे तो कई काम होते थे – “ये कर दो ज़रा, वो कर दो ज़रा।” हम बच्चे उस वक्त सोचते थे कि बड़े होने पर ऐसे ही हुक्म चलाने को मिलेगा और भगवान से प्रार्थना करते थे कि हमें जल्दी से बड़ा कर दें ताकि हम भी दूसरों पर हुक्म चला सकें। मजाक मत समझिएगा, यह हम सब की सीरियस वाली ख्वाहिश थी।
एक आदत घर में सब बड़ों को लगी हुई थी – पैर दबवाने की आदत। हम में से किसी को भी जब भी आवाज़ दी जाती – “अप्पू ज़रा इधर आओ… मोना ज़रा इधर आओ,” और हम जब कमरे में आकर देखते कि आवाज़ किसने दी – मामा ने, मौसी ने या किसने – और जिसने आवाज़ दी, वो बिस्तर पर लेटे हुए हैं, हमें समझने में बिलकुल देर न लगती कि हमें क्यों बुलाया गया है। हम उनके पास आते और वही हुक्म होता जो हम एक्सपेक्ट करते थे – “ज़रा पैर पर चढ़ो तो।”
वैसे तो हमें यह पैर पर चढ़कर पैर दबाने में कोई तकलीफ नहीं थी, मज़ा ही आता था, लेकिन हम तब उदास हो जाते थे जब देखते थे कि बाहर बाकी बच्चे घर के बाहर खेल रहे हैं और हम पैर पर चढ़े हुए हैं। हम बाहर जाने को खेलने के लिए उत्सुक हो जाते, रिक्वेस्ट करते कि, “बाद में पैर दबा दें?” मामा कहते, “ठीक है, चले जाना… पाँच बार इस पैर पर, पाँच बार उस पैर पर ऊपर-नीचे टहल लो और उसके बाद चले जाना।”
हम भी जल्दी-जल्दी पैर दबाने लगते… और जैसे ही दस की अपनी गिनती होती, हम कूद कर बाहर खेलने चले जाते थे। उस वक्त हम यह भी सोचते थे कि जब हम बड़े हो जाएँगे, तो उस समय घर में जो बच्चे रहेंगे, उन पर हम ऐसे ही हुक्म चलाया करेंगे और उनसे पैर दबवाएँगे।
घर में यह पैर दबवाने की आदत सबको थी – तीनों मामा को, यहाँ तक कि मौसी को भी और कभी-कभी नानी के पैर पर भी हम चढ़ते थे। बस पापा को यह आदत नहीं थी। पापा के पैर हमने बहुत कम दबाए हैं।
अभी कुछ महीनों पहले सुधा मौसी, जिन्हें खूब आदत थी हमसे पैर दबवाने की, उनसे फोन पर बात हो रही थी। मौसी अपनी बेटी अंशिका से कह रही थी, “तुम लोग इतना नखरे करते हो पैर पर चढ़कर पैर दबाने में, इन लोगों को देखो। बचपन में ये लोग कितना पैर दबाते थे हमारा और एक बार भी नखरा नहीं करते थे। अब भी अगर अप्पू या मोना को बोलेंगे, तो तुरंत पैर दबा देंगे ये।”
मौसी ने फिर आगे मुझसे कहा, “अब के बच्चे कहाँ इतना बात मानते हैं। तुम लोगों को जितने अधिकार से बोल देते थे, वैसे अब के बच्चों को बोल सकते हैं क्या? अब तुम्हारी बीवी को सोचो, क्या ऐसे अधिकार से बोल सकेंगे पैर दबाने को? तुम्हारी बीवी को क्या, उस वक्त तुम्हें भी नहीं बोलेंगे न।”
मैंने इधर से कहा, “अरे, यह क्या बात हुई? क्यों नहीं बोलोगी? पैर दबाने को उसे भी हुक्म देना। हम मानते हैं तुम्हारी बात, तो वो भी मानेगी।”
मौसी ने फिर पूछा, “अरे वाह रे… वो दबाएगी पैर?” मैंने कहा, “अरे हाँ, क्यों नहीं दबाएगी? तुम बस हुक्म देना।” मौसी तो यह बात सुनकर खुश हो गई।
आज यूँ ही प्रशांत के ब्लॉग को पढ़कर यह छोटी-सी बात याद आ गई, तो इसे अपने ब्लॉग पर ले आया। इस ब्लॉग पोस्ट की इस कड़ी की शुरुआत भी प्रशांत के “दो बजिया बैराग्य” से ही हुई थी।
🙂
पैर दबवाने की बात पर कई और भी किस्से हैं मेरे पास.. जैसे मेरे भैया ने उनकी शादी के ठीक बाद पापा जी का पैर दबाया था, सांकेतिक रूप से सिर्फ ये कहने के लिए की अब शादी हो तो इसका ये मतलब नहीं की आप मुझे अधिकार से मेरी बीवी के सामने पैर दबाने के कहना बंद कर दीजिये.
पहले ये बताओ…तुम्हारी सीरियस ख्वाहिश पूरी हुई कि नहीं…???
btw…आज सुबह से मेरा पैर भी बहुते दर्द कर रहा…:P