कुछ पुरानी यादों के नशे में – जाड़े का मौसम

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kuch kuch hota hai

तुम पास आये, यूँ मुस्कुराए..तुमने न जाने क्या सपने दिखाए.. अब तो मेरा दिल जागे न सोता है..क्या करूँ हाय..कुछ कुछ होता है..

कुछ कुछ होता है फिल्म का कोई भी गीत जब कभी सुनता हूँ तो एकदम से तेरह साल पीछे चला जाता हूँ..1998 के सर्दियों में. उसी समय यह फिल्म रिलीज हुई थी. वैसे तो नानी का घर पास रहने के कारण हम हफ्ते में एक दो बार तो वहां पहुँच ही धमकते थे..लेकिन उस साल सर्दियों में, साल के आखिरी कुछ दिनों में हम वहीं रुके हुए थे. क्या कारण था, यह याद नहीं..लेकिन यह याद है कि क्रिसमस से एक दो दिन पहले और एक जनवरी के दो तीन दिन बाद तक हम वहीं जमे हुए थे. उस साल सर्दियों में ही यह फिल्म रिलीज हुई थी..फिल्म देखने या गाने सुनने का शौक उन दिनों मुझे नहीं था..लेकिन इस फिल्म का बुखार तो उस समय अधिकतर लोगों के सिर चढ़ के बोल रहा था..तो हम भी कुछ आकर्षित से हो गए थे इस फिल्म के गानों की तरफ. हमें भी इस फिल्म के गानों को सुनने का दिल करने लगा, लेकिन सुनते कैसे? घर में तो मामा का स्टीरियो रखा हुआ था लेकिन कैसेट बहुत सीमित से थे..ज्यादातर पुराने गानों के कैसेट..ऐसे में हमारे पास बस एक ही ऑप्शन था कि गुड्डू भैया(जो बगल में रहते थे) उनसे कैसेट माँगा जाए. उनके पास नए फिल्मों के कैसेट रहते थे..हम पहुँच गए उनके घर कैसेट मांगने..और डबल फायदे में भी रहे. ‘कुछ कुछ होता है’ के कैसेट के साथ-साथ हमें ‘सोल्जर’ फिल्म का भी कैसेट मिल गया. अब तो नॉन-स्टॉप हम लोग इस फिल्म के गाने सुनने लगे. बीच वाले रूम में फ्रिज के बगल वाले टेबल पे स्टीरियो रखा रहता था और हम पलंग पे रजाई के अंदर घुसे रहते थे. मैं इस फिल्म के गानों से इतना प्रभावित था..प्रभावित क्या, उस समय कम ही नए गाने सुनता था तो इस फिल्म के गाने कुछ ज्यादा ही अच्छे लगने लगे थे. मैंने गानों के बोल एक पेपर पे नोट कर के रख लिया था. शायद यह पहला मौका था जब मैं किसी भी गाने के बोल नोट कर रहा था. उन दिनों कैसेट के जो कवर होते थे, वो भी बड़े लंबे से होते थे..और मुझे कैसेट के कवर को देखने में बड़ा मजा आता था. उसी समय मैंने पहली बार जतिन-ललित का नाम सुना. ‘कुछ कुछ होता है’ में जतिन ललित ने ही संगीत दिया था. इसके पहले शायद सुना भी हो इनका नाम, लेकिन याद नहीं था. इस फिल्म के गाने सुनने के बाद से ही मैं ‘जतिन-ललित’ का फैन बन गया. आज भी नए ज़माने के मेरे सबसे पसंदीदा संगीतकार जतिन-ललित ही हैं.

बहुत लोग कहते हैं कि मेरी यादाश्त अच्छी है, शायद मैं भी मानता हूँ कि पढ़ाई के अलावा और बाकी कोई भी छोटी से छोटी बात हो या बड़ी से बड़ी बात, याद रह जाती है मुझे. उस साल की भी जैसे एक एक बात अच्छे से याद है अभी तक. जाड़े की छुट्टियों में बड़े मामा, मामी और दोनों बहनें पटना आई थीं. उस समय मामा ‘गया’ में पोस्टेड थे. शाम के वक्त मामा पहुंचे थे, बाहर कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. हम सब आग सेंक रहे थे..स्टीरियो पे ‘कुछ कुछ होता है’ फिल्म का गाना बज रहा था..पता नहीं कैसे क्या बात उठी, मामी ने कहा कि “तुम लोग भी इस फिल्म का गाना सुन रहे हो, ये दोनों(निमिषा और दीप्ती) भी रास्ता भर इसी फिल्म का गाना गाते हुए आई हैं..ये लोग को तो यह फिल्म इतना अच्छा लगा कि फिर से दिखाओ तो आराम से देख लेगी”. मामी का यह कहना था कि मेरी बहन(ऋचा) उछल पड़ी कि यह फिल्म देखना ही है..वैसे तो हमारे घर में फिल्मों का किसी को वैसा शौक नहीं है लेकिन पता नहीं कैसे प्लान बन गया कि अगले दिन वी.सी.पी लाया जाएगा और यह फिल्म देखा जाएगा. अगले दिन वी.सी.पी आया भी, लेकिन यह फिल्म का कैसेट नहीं मिल पाया. जहाँ तक मुझे याद है ‘बड़े मियां छोटे मियां, ज़ख्म, मेहंदी, चाइना गेट’ और सोल्जर फिल्में लायी गयी थीं..जाड़े के मौसम में रजाई में घुस के पूरे परिवार के साथ फिल्म देखना…आग सेंकना और लिट्टी-चोखा खाना…प्योर ब्लिस!

उन दिनों नानी के घर में जाड़े का मौसम एकदम अलग दीखता था..इतना की उस समय की हर बात दिमाग पे छपी हुई हो जैसे. जाड़े का मौसम उतना खूबसूरत फिर मुझे कभी नहीं दिखा. धूप हुई तो दिन भर छत पे बैठे रहना या फिर बाहर गेट के आगे कुर्सी, चटाई निकाल के बैठ जाना..और अगर दिन भर धूप नहीं निकला तो सामने के मैदान में गुड्डू भैया के साथ क्रिकेट खेलना. खाना खाने से लेकर लगभग हर काम चाहे पढ़ाई हो या कुछ और, सब धूप में बैठे-बैठे ही होता था. मम्मी की अगर छुट्टियाँ रहती तो वो दिन भर धूप में बैठकर स्वेटर बुनती रहतीं…हम कभी पढ़ाई करते तो कभी कॉपी पे फ़ालतू की चित्रकारी तो कभी कुछ खेलने लगते. खेल में भी अक्सर हम धूप में बैठे-बैठे लूडो खेलते. लूडो उस समय हम लोगों का प्रिय खेल था. रात को भी छोटी मौसी के साथ रजाई में बैठे-बैठे हम लूडो खेलते. स्टीरियो पे कोई गाना लगा देते. कैसेट कम थे..लेकिन घुमा फिरा के हम उन्हीं सब कैसेट को सुनते रहते. गुलज़ार साहब से भी मेरी पहली मुलाकात उन दिनों ही हुई थी. मामा के कलेक्शन में एक कैसेट था “फुर्सत के रात दिन – गुलज़ार”..उस कैसेट में गुलज़ार साहब के चुने हुए कुछ गाने थे जैसे ‘नाम गुम जाएगा’, ‘एक अकेला इस शहर में’, ‘मेरा कुछ सामान’…कह सकते हैं कि इसी एक कैसेट ने उस समय मुझे इंसटंटली गुलज़ार साहब का भक्त बना दिया था.

बॉर्डर फिल्म का कैसेट भी उन दिनों मामा के चुनिंदा कैसेट कलेक्शन में था. अभी यह पोस्ट लिखने के दौरान यूंही फेसबुक रिफ्रेश किया तो देखा रुचिका ने अपने किसी फोटो के कैप्शन में इस फिल्म का एक गाना ‘मेरे दुश्मन, मेरे भाई मेरे हमसाए’ लगाकर रखा था. उसने तो अनजाने में यह कैप्शन लगा दिया होगा, लेकिन मैं एकदम से वहीं उस कैप्शन पे टंग सा गया. एकटक उस कैप्शन को पढ़ता रहा और फिर तुरंत प्लेलिस्ट में वो गाना लगा दिया. नानी के घर में भी मैं यह गाना बहुत सुनता था. साइड बी का आखिरी गीत था यह. यह गाना किन कारणों से मुझे अच्छा लगता है यह तो नहीं पता लेकिन इतना जरूर है कि जब भी इस गाने को सुनता हूँ या इस गाने का जिक्र होता है, मैं एकदम से 1998 के दिसंबर में पहुँच जाता हूँ. इस गाने के अलावा और एक गाना जो इन्हीं कुछ कारणों से मुझे बेहद पसंद है वह है फिल्म ‘हू तू तू’ का गाना ‘छई छप्पा छई’. ये दोनों ऐसे गाने हैं जो अक्सर मुझे नॉस्टैल्जिक कर जाते हैं.

उन दिनों साल के आखिर में लोग एक और जो काम में व्यस्त रहते थे वह था ग्रीटिंग्स कार्ड खरीदने का काम. हम पर भी ग्रीटिंग्स कार्ड का अजब भूत चढ़ा हुआ था. ग्रीटिंग्स खरीदते तो थे ही, साथ में ग्रीटिंग्स बनाते भी थे और कई जगह दो ग्रीटिंग्स पोस्ट करते थे…एक हाथ से बना हुआ और दूसरा खरीदा हुआ. कहाँ-कहाँ कार्ड भेजना है हम पहले ही इसकी एक लिस्ट तैयार कर लेते थे, और फिर निकलते थे कार्ड खरीदने. ग्रीटिंग्स कार्ड खरीदने हमेशा हमारे साथ हमारी छोटी मौसी ही जाती थीं(जहां तक मुझे याद है, इनके अलावा और किसी के साथ हम कभी गए नहीं कार्ड खरीदने). एक से एक डिज़ाइन के कार्ड उपलब्ध रहते..उन दिनों म्यूजिक वाला कार्ड काफी चलन में था. कुछ कार्ड ऐसे होते थे कि खोलो तो अंदर पूरा एक ताजमहल जैसा कुछ कलाकारी किया होता था. हमें घंटों लग जाते थे कार्ड पसंद करने में. दो रुपये वाला कार्ड भी जबरदस्त बिक्री होता था. मुझे वो बहुत क्यूट सा लगता था. एकदम छोटा सा कार्ड..मैं अपने दोस्तों को देने के लिए वैसा ही कोई छोटा सा प्यारा सा कार्ड खरीदता था. कार्ड खरीदने तक ही बात सीमित नहीं रहती, कार्ड के अंदर क्या लिखना है, कुछ कोटेशन, कुछ विशेज़ या कोई मैसेज…बहुत सोचने का काम होता था..एक अजब तरह का उत्साह रहता था कार्ड भेजने में. जितना उत्साह कार्ड भेजने में रहता था उससे दुगना उत्साह कार्ड पाने में रहता था. कोई पोस्टमैन घर के आसपास चक्कर लगता तो कार्ड की उम्मीद बंध जाती..और अगर कहीं से कोई बहुत अच्छा कार्ड आता तो शाम को मम्मी-पापा को वो कार्ड दिखाने की उत्सुकता रहती. ग्रीटिंग्स कार्ड का चलन तो अब भी है, लेकिन वह अलग समय था, अलग बात थी उन दिनों की. अब के बच्चे कभी उस अहसास को महसूस नहीं कर पाएंगे जो हम लोग करते थे. बच्चों को तो छोड़िए, हम भी ग्रीटिंग्स कार्ड भेजने की उस आदत को कब का त्याग चुके हैं, जबकि अब भी ग्रीटिंग्स कार्ड आसानी से उपलब्ध होते हैं.

ग्रीटिंग्स कार्ड, कैसेट, जाड़े की धूप, नानी का घर…इतनी बातों के जिक्र पे तो मुझे अब लग रहा है कि काश कोई एक ऐसा टाइम मशीन होता जिससे मैं फिर से उन्हीं दिनों में वापस पहुँच जाता.

  1. LUDO…CHESS..was my two fave games…god i miss those dayz like hell…
    aur greetings card ke liye to mere bhai aur mere mein ladai hoti thi…ki kaun rakhega greetings card 😀

    bht bht kuch yaad aaya n bht bht achha laga 🙂

    by d way tumko moviez ke naam yaad thein kon kon se dekhe the us time??????
    anywyz
    waiting desperately for 2nd part 🙂

  2. बहुत सारी यादें एक साथ उमड़कर छा गयीं, सब की सब भिगोने को आतुर। उस उन्मुक्तता का केवल अनुभव किया जा सकता है, बखान नहीं।

  3. arre waah . iss post ne toh bachpan ki yaad dila de. even i loved playing ludo big time!!!

    and i loved that line, jahan aapne likha ki padhai ki siva baki har choto choti baat apko yaad rehti hai!! 😛

  4. ऐसा एक टाइम मशीन तो हमें भी चाहिए जिससे उन दिनों की जाड़ों की कुनकुनी धुप और मस्ती में जाया जा सके फिर से.
    वैसे हम झेलने को तैयार हैं 🙂 लिखते रहो.

  5. क्या क्या याद दिला दिया अभी….वो जाड़ों की नर्म धूप…और छत पर ढेर सारी कारगुजारियां….
    रात-रात भर जाग कर फिल्मे तो हमने भी खूब देखी हैं…पर एक साथ तीन फिल्म देखने के चक्कर में सुबह किसी फिल्म का कुछ भी याद नहीं रहता ..सब गड्ड मड्ड हो जाते .

    बड़ी अच्छी-अच्छी बातें याद दिलाईं…और अभी भी जारी हैं…देखें कितनी यादें यकसाँ हैं 🙂

  6. काश हम उन दिनों को फिर से जी पाते..बहुत सुन्दर पोस्ट. नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

  7. सब कुछ तो नहीं लकिन थोडा बहुत याद है पटना आने क बाद इस मूवी को देख कर ही वापस गए थे गया … अच्छा पोस्ट है पुरानी यादें ताज़ा हो गयी..

  8. अभी जी , पोस्ट नहीं पढ़ी क्योकि आज सुबह ही कसम खाई थी की जिस पोस्ट में जाड़े ठण्ड का जिक्र होगा वो नहीं पढूंगी ऐसी पोस्ट पढ़ पढ़ मुड बन जाता है ठंडी का और पोस्ट ख़त्म होते याद आता है पंखा अभी भी पांच पर ही चल रहा है छोडो मुड ख़राब हो जाता है |

  9. @anshumala जी
    हा हा हा.. अरे सोचिये, मैंने तो पोस्ट लिखी है और मुझे कैसा लगता होगा…क्यूंकि जिस तरह के ठंड का मैंने जिक्र किया है यहाँ वैसी ठंड से तो बैंगलोर वाले एकदम अनजान से हैं…:) सोचिये शाम में ऑफिस से आता हूँ तो बस एक सर्ट पहन के…रोज बड़े मन से जैकेट ले जाता हूँ लेकिन पहनता नहीं 🙁
    😛

  10. नमस्कार अभी जी,
    बहुत अच्छी लगी आपकी यादें..मुझे भी बहुत कुछ याद आगया!
    सुन्दर प्रस्तुति!

  11. बस इतना ही कह सकता हूँ …

    इस रिश्ते को यूँही बनाये रखना,
    दिल में यादो के चिराग जलाये रखना,
    बहुत प्यारा सफ़र रहा 2010 का,
    अपना साथ 2011 में भी बनाये रखना!
    नव वर्ष की शुभकामनायें!

  12. बढियां मेमायर !
    मुझे भी एक स्मृति है ..जब मेरे मित्र ने उस फ़िल्म का पहला शो देखकर मुझे अरसे बाद फोन किया था ..हेलो बोलकर पूछा .पहचाना …..मैंने कहा कुछ कुछ ..उधर से आयी आवाज -हाँ कुछ कुछ होता है न ? मैं एम्बरासद …..बाद में कहकहे ….

  13. आपकी लेखन शैली बहुत पसंद आई है.. और पुरानी यादें और वाकई में इस जाड़े के मौसम में — यहाँ बहुत जड़ा है थोड़ी कुनकुनी धूप निकल जाये तो अच्छा है ..लूडो भी खूब याद दिलाया आपना..बचपन याद आ गया … मै आपकी पोस्ट चर्चामंच में रखना चाहती हूँ ..किन्तु वंदना जी ने पूर्व में ये पोस्ट रखी है अतः नयी पोस्ट का इन्तजार रहेगा.. शुभकामना…

  14. अभि…कभी कोई टाइम मशीन मिले तो एक मेरे लिए भी…:)
    ज़िंदगी के बहुत सारे पल हम फिर से जीना चाहते हैं…हम में से हर कोई…|
    जगजीत सिंह की ग़ज़ल याद आ गयी…ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी…मगर मुझको लौटा दो वो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती , वो बारिश का पानी…|

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