लॉकडाउन डायरीज 1 – ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज़

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कल से जहाँ देश में लॉकडाउन  खुल गया है, तब से मन में लगातार कुलबुली उठ रही थी कि ब्लॉग के लॉकडाउन का भी कुछ किया जाए. अक्सर एक दो महीने में ब्लॉग की याद तो आ ही जाती थी, इस बार लेकिन मामला कुछ ज्यादा लम्बा हो गया. 

जब लॉकडाउन शुरू हुआ था तब सोचा था कि ब्लॉग को नियमित रूप से लिखा जाएगा लेकिन इस मौसम-ए-वहशत में कुछ लिख पाना इतना भी आसान नहीं है. जब मन में हजारों फ़िक्र हों, बाहर वबा का माहौल हो तब खुशनुमा यादें या पुरानी बातें लिख पाना थोड़ा मुश्किल हो जाता है. पूरे लॉकडाउन में आज-कल-आज करते हुए ब्लॉग का लिखना बस टलता ही रहा, अब जब बंदी खत्म हो गयी है, तब ख्याल आया कि मैंने तो सोचा था लॉकडाउन के दौरान कुछ लिखने का, जो हो नहीं पाया. 

खैर, देर से ही सही, पोस्ट अब लिखी जा रही है. 

आज फरवरी का एक किस्सा याद आ रहा है, जिसके याद आते ही अब हँसी आ जाती है. फरवरी इस साल का शायद आखिरी ऐसा महीना रहेगा जब सबकी ज़िन्दगी नार्मल थी. 

फरवरी  के आखिरी कुछ दिनों की बात है, होली में हमारे पटना जाने का टिकट बुक हो चूका था.लेकिन हमें बार बार ये ख्याल आ रहा था कि पटना में हमारा स्टे कम दिनों का है, यही सोच कर हमने टिकट को एक्सटेंड करवा दिया. 16 मार्च का टिकट बढ़ा कर 23 मार्च कर दिया. सोचा था ऐसा करने से कुछ दिन और पटना में रहने का मौका मिल जायेगा. उस वक़्त हमें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि पटना में हमारा स्टे ‘कुछ दिन’ नहीं बल्कि ‘कुछ महीने’ एक्सटेंड होने वाला है. 

देश में पहले तो जनता कर्फ्यू और बाद में लॉकडाउन होने की वजह से जो जहां है, वहीं रुक गया. इंसान, मोहल्ला या शहर नहीं, बल्कि इस काल में पूरी दुनिया एकाएक रुक सी गयी. इस अचानक हुए देशबंदी से बहुत लोग परेशान हुए, बहुत ऐसे भी परिवार थे जो दो शहरों में बँट गए, अटक गए और उनकी चिंताएँ बढ़ गयी. हम भी अटक गए थे, लेकिन अपने ही शहर में. 

वैसे तो जहाँ बहुत से ऐसे लोगों के लिए, जो अलग अलग जगह अटके हुए रह गए, ये लॉकडाउन उनके और उनके परिवार के लिए चिंता का सबब बन गया था, लेकिन हमारा पटना में अटकना ‘ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज़’ से कम नहीं था. 

अब सोचता हूँ तो लगता है कि अगर फ़रवरी में टिकट एक्सटेंड करवाया न होता, तो हम दिल्ली सोलह मार्च को ही लौट गए होते और तब लॉकडाउन होता तो घरवालों को हमारी ज्यादा फ़िक्र होती और हम घरवालों की फ़िक्र में परेशान रहते. ऐसे में हमारा पटना में अटक जाना हमारे लिए बहुत बड़ा एडवांटेज था. 

वो जो कहते हैं न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है. हमारे लिए ये बात सच साबित हुई. 

हम घर पर थे, सब एक साथ थे, बस बहन दिल्ली में थी लेकिन वो भी अपने परिवार के साथ थी, तो ज्यादा चिंता वाली बात नहीं थी. लेकिन फिर भी शुरूआती दिंनों में मेरी वजह से घर में अचानक थोड़ा  तनाव वाला माहौल बन गया था.  

जिस दिन से लॉकडाउन शुरू हुआ, उसके ठीक एक दिन पहले मेरी तबियत ख़राब हो गयी. सर्दी और भयंकर वाली खाँसी. मन में तो जाने कैसे कैसे ख्याल आने लगे थे. सिर्फ मेरे ही नहीं, परिवार वाले भी थोड़ा चिंतित हो गए थे. वैसे तो सर्दी खाँसी होना चिंता का सबब नहीं होता, लेकिन ये एक ऐसा वक्त है जब मन में बहुत से बुरे ख्याल आने लगते हैं.

डॉक्टर के क्लिनिक बंद थे, ऑनलाइन एप की मदद से डॉक्टर से कंसल्ट कर सारे लक्षण विस्तार से उन्हें बताया, डॉक्टर ने कहा कि परेशान होने की बात नहीं बस मौसमी सर्दी खाँसी है. डबल चेक करने के लिए एक दूसरे डॉक्टर से भी कंसल्ट किया. जब उन्होंने भी यही बात दोहराई तब थोड़ी राहत महसूस हुई. करीब एक सप्ताह का वक़्त लग गया था मेरी तबियत सुधरने में, तब तक मन जाने कितना कैलकुलेशन कर चुका था, कि कहाँ कहाँ गया था, किस किस से मिला था वगैरह वगैरह. जब तबियत सुधरी तब थोड़ी हँसी भी आई खुद पर कि कैसा समय आ गया है अब, इंसान क्या क्या सोचने पर विवश हो गया है.  

अप्रैल के पहले सप्ताह में जब तबियत ठीक हुई तो मैंने एक लिस्ट तैयार की, कौन कौन से काम मेरे अटक गए हैं. लिस्ट लम्बी चौड़ी बन गयी थी. पहले तो सोचा था कि लॉकडाउन खुलने के बाद दिल्ली पहुँच कर सब निपटा लूँगा, लेकिन इधर लॉकडाउन बढ़ता चला गया उधर मेरे पेंडिंग कामों की लिस्ट भी बढ़ती चली गयी. पर्सनल से लेकर प्रोफेशनल काम जो भी थे, सब के शिड्यूल बिगड़ते चले गए. जो जो भी सोचा था, वे सारे काम अब तक लटके हुए हैं और अब मैंने उन पेंडिंग कामों के बारे में सोचना छोड़ दिया है. 

ये सिर्फ मेरे साथ नहीं, इस वक़्त के गवाह जितने लोग हैं, शायद उन सब के साथ हुआ है. सब के कितने ऐसे काम हैं जो इस वक़्त की भेंट चढ़ गए हैं.  

जहाँ इस ‘चीनी वबा’ के वजह से हर तरफ चिंताएँ थीं, समाज के हर वर्ग के लोग अपने अपने संघर्ष कर रहे थे. बहुत से कड़वे सच, सामाजिक व्यवस्थाएँ इक्स्पोज़ हो रहे थे, वहीं हम घर में एक खुशनुमा माहौल बनाने को प्रयत्नशील थे. ये लॉकडाउन लम्बा वक़्त तक होने वाला है, इसका एहसास हमें था. सभी काम करने वाले व्यक्ति घर में थे और सबका सारे काम एक साथ रुक जाना और घर में लॉक हो जाना आसान नहीं था. फिजिकली और मेंटली फ्रेश और एक्टिव रहने की ज़रूरत थी, और किसी भी किस्म के नेगटिव थॉट से बचने की जरूरत थी.

मेरे घर में मैं बहुत बड़ा मूवी बफ हूँ, मेरी पत्नी निक्की भी फ़िल्में पसंद करती है, लेकिन कुछ हद तक. माँ-पापा फिल्मों के ज्यादा शौक़ीन नहीं हैं. लेकिन देशबंदी में सब घर में थे, तो मैंने हर दिन चुन चुन कर कॉमेडी और घर पर देखे जाने लायक फ़िल्में दोपहर बाद टीवी पर लगानी शुरू कर दी, कि जिससे सबका मनोरंजन होता रहे. 

पहले के ज़माने में अगर घर पर सबके साथ देखने वाली फ़िल्में देखना हो, तो ज्यादा सोचना नहीं पड़ता था. लगभग सभी फिल्मों को आप घर पर देख सकते थे. लेकिन अब बहुत दिमाग लगाना पड़ता है, कि कौन सी नई फिल्म ऐसी है जो परिवार में आप बेझिझक देख सकें. 

फिल्मों के साथ साथ एक और एक्सपेरिमेंट हुआ इस लॉकडाउन में घर में. हालाँकि ये एक्सपेरिमेंट मेरे घर में नहीं बल्कि देश में अधिकतर लोगों के घरों में हुआ. ये था अलग  अलग स्वादिष्ट पकवान बनाने का एक्सपेरिमेंट. पूरे लॉकडाउन में लगभग हर दुसरे दिन कुछ न कुछ डिश घर में बनते ही रहे, और कुछ हर सप्ताह रिपीट होते गए. 

इन तीन महीनों में एक परमज्ञान की भी प्राप्ति हुई हमें, कि वे सारे पकवान जो हम बाहर से मँगवा कर खाते हैं जैसे मोमोज, समोसे, जलेबी, पास्ता, चाऊमीन , मिठाइयाँ इत्यादि…यहाँ तक कि ब्रेड भी घर में ही बहुत ही कम कीमत और सीमित संसाधनों में बन जाते हैं और स्वाद भी बेहद लजीज. वैसे तो ये कोई गूढ़ रहस्य नहीं था, बस इस लॉकडाउन में हमें इस बात का अच्छे से एहसास हो गया.

सच कहूँ तो इस पूरे लॉकडाउन में शायद हमारे लिए सबसे प्रोडक्टिव चीज़ यही निकल कर सामने आयी. घर में माँ तो बहुत सालों से तरह तरह के पकवान बनाती आई है. दिवाली में तो हमारे घर में एक भी मिठाई बाज़ार से नहीं आती है, सब घर में बने होते हैं. इस लॉकडाउन में सालों बाद माँ ने इतने एक्टिवली इतने सारे डिश बनाये थे. माँ को अच्छा सपोर्ट निक्की से भी मिला, जिसनें इस पूरे लॉकडाउन में बहुत कुछ माँ से सीखा भी, और बहुत से नए रेसिपी बनाये भी. इन दोनों को बनाते देख कुछ कुछ मैंने भी सीख ही लिया. 

इन तीन महीनों में कुछ ख़ास दिन भी आये, कुछ व्रत-त्यौहार भी आये, और सबको हमने घर में ही सेलेब्रेट किया. किसी भी कीमत पर हमने लॉकडाउन के नियम को तोड़ा नहीं, ये बात हम गर्व से कह सकते हैं. बस बहुत जरूरी सामान लेने के लिए ही बाजारों का रुख किया हमने.

कुछ ख़ास दिन, जैसे अप्रैल के अठारहवें दिन भी हमने लॉकडाउन का पालन किया. वैसे तो यह तारीख बहुत लोगों के लिए मायने न रखती हो, लेकिन मेरे लिए तो बेहद ख़ास तारीख है. दो साल पहले इसी तारीख को निक्की से रिश्ता जुड़ा था. यानी हमारी शादी हुई थी. 

वैसे तो इस साल एनिवर्सरी पर हमने घरवालों के साथ वैष्णो देवी जाने का कार्यक्रम बना रखा था, लेकिन वहां जाने का प्लान तो  इस ‘चीनी बला’ की भेंट चढ़ गया. फिर भी कुछ तो ख़ास करना ही था इस दिन, वो भी लॉकडाउन के नियम के साथ चलते हुए और सोशल डिस्टेंस का ख्याल रखते हुए.

घर में ही हमने अपने तरीके से अपने इस ख़ास दिन को सेलेब्रेट किया. यहाँ भी माँ और निक्की के पाक-कला के एक्स्पर्टीज़ देखने को मिले. माइक्रोवेव ख़राब था, तो इन्होने ब्राउनी और केक बिना ओवन के ही बना दिया. 

थोड़ा दुःख तो इस बात का था कि ये हमारी दूसरी एनिवर्सरी है लेकिन जैसा हमनें सोचा था वैसा नहीं सेलिब्रेट कर पाए, लेकिन इस बात की ख़ुशी ज्यादा थी कि हम घर पर पापा और माँ के साथ थे. एनिवर्सरी के दिन हम यही बात सोच भी रहे थे, कि अगर हम पटना में अटक नहीं गए होते, और दिल्ली चले गए होते तब अप्रैल का यह अठारहवाँ बहुत ही फीका फीका गुज़रता. इस लिहाज से भी यह लॉकडाउन और इसकी टाइमिंग हमारे लिए ब्लेस्सिंग इन डिस्गाइज़ रहा.  

..जारी

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