इस दो महीने के लॉकडाउन का एक छोटा सा फायदा यह भी हुआ कि घर के कुछ ऐसे गैरजरूरी काम जो बस टलते आ रहे थे, वो पूरे हो गए. हर किसी के घरों में ऐसे जाने कितने कोने होते हैं जहाँ पुरानी यादें छिपी होती हैं. ज़रा सा हाथ लगाओ तो जाने क्या खज़ाना निकल कर सामने आ जाए. जिसके बारे में आपने वर्षो से सोचा न हो, या यह कहे कि जिसके होने का घर में आपको रत्ती भर उम्मीद न हो वो भी आपको दिख जाती है.
कुछ ऐसा ही हुआ इस बार. एक इतवार को जाने क्या धुन चढ़ी मुझपर, घर के पुराने दराज़ जो वर्षो से खुले नहीं थे और जो जाम हो गए थे, उन्हें खोलने की सनक सवार हुई. सोचा कि देखूं तो क्या क्या रखा हुआ है?
एक दराज़ मेरी बहन के सामानों से भरा पड़ा था. इसमें मेरी बहन ने अपने शादी से बहुत पहले, शायद अपने स्कूल या कॉलेज समय में अपने कुछ सामान रख दिए थे और जिसे वो खुद भी भूल चुकी थी. दराज़ खोलने में मेहनत तो काफी लगी, लेकिन जब खुला तो देख कर मैं हैरान रह गया. बहुत से ऐसे छोटे छोटे चीज़े थीं, ख़ास कर पुराने स्टेशनेरी जिसके होने की मुझे ज़रा भी उम्मीद नहीं थी.
स्कूल के समय इस्तेमाल होने वाले स्टीकर्स, कॉपी और किताबों पर जिल्द चढ़ाने के लिए उस वक़्त के ब्राउन पेपर के शीट्स, पुराने नोटबुक और डायरी, स्कूल के रिजल्ट कार्ड, स्लैम बुक, ऑटोग्राफ बुक और भी न जाने क्या क्या.
यह सब चीज़ें नब्बे के दशक के ज़्यादातर स्टूडेंट्स के पास होते ही थे. यह सारी चीज़ें मेरी बहन के थे, जिसे उसनें बड़ा संभाल कर रखा हुआ था. देखा जाए तो इन चीज़ों को घर में रखे रहने की कोई वजह नहीं थी. अधिकतर लोग इसे रद्दी के सामान में फेंक देते हैं. फिर भी मेरी बहन मोना ने इसे संभाल कर रखा था.
मैं अगर अपनी बात करूँ, तो स्कूल के समय शायद मैं इन चीज़ों को उतने अच्छे से संभाल कर रख नहीं पाता जितने अच्छे से मोना ने इसे रखा हुआ था. ये सारे गैर-जरूरी सामान जब अचानक से आँखों के सामने आया गए तो लगा जैसे सच में कोई पुराना मौसम लौट आया हो.
बहन के सामान में मुझे कुछ चीज़ें अपनी भी मिल गयीं, जैसे एक पुरानी डायरी, स्कूल के दिनों में इस्तेमाल किये जाने वाला एटलस, एक पॉकेट डायरी, पेन, टूर गाइड और कुछ पुराने ट्रेवल पोस्टकार्ड्स.
डायरी जो शायद मेरे दसवीं क्लास के आसपास की थी, उसमें उन दिनों मैं अपनी मन की बातें लिखा करता था. इसे पढ़ते ही मुझे बड़ी जोर की हँसी आई थी. ऐसे बकवास ख्याल मैंने लिखे थे जिसे पढ़ कर मैं सोचने लगा कि क्या पहले मैं इतना बेवकूफ था या फिर नासमझ?
मेरे ख्याल से एक वक्त होता है जब हम सभी भयानक किस्म के उलजुलूल और इलाजिकल बातें करते हैं. यह डायरी शायद इसी बात का सबूत है. अन्दर के पन्नों में भयानक किस्म के गार्बल्ड थोट्स लिखे पड़े हैं. कभी किसी अख़बार या मैगजीन में कोई लाइन अच्छी लग गयी तो उसे भी इस डायरी में लिख देता था. उन दिनों के काफी ऐसे वाकये इस डायरी में लिखे हुए हैं जिसे पढ़ कर अब यकीन नहीं हो पाता कि उन दिनों मैं ऐसा भी करता था.
डायरी के एक पन्ने पर लिखा था ‘इंडिया लॉस्ट द मैच टुडे, इट्स लाइक आई लॉस्ट माय लाइफ’. जाने किस मैच के बारे में मैंने यह लिखा था. इस लाइन को पढ़ते हुए आश्चर्य भी हुआ कि कभी मैं ऐसी हरकतें भी करता था. वैसे एक बात तो है, उन दिनों मैं क्रिकेट मैच को बेहद गंभीरता से लेता था. इस बात का अंदाज़ आप ऐसे लगा लीजिये कि अगर कोई बेहद क्लोज मैच हो रहा हो, तब माँ मुझे मैच देखने नहीं देती थी.
उन दिनों की बातें थीं ये…
कुछ पुरानी किताबें भी मिली थीं इस डायरी के साथ जैसे जयशंकर प्रसाद और शरतचन्द्र की किताबें. मैंने सबसे पहले इन्हीं दोनों को पढ़ना शुरू किया था. पटना के गाँधी मैदान में उन दिनों बुक फेयर लगता था, और वहीं से मैंने यह किताबें खरीदी थी.
मेरी डायरी जो मिली थी मुझे, उसे देखिये…उसपर फेरारी जीटीओ का एक स्टीकर लगा हुआ है. यह उस वक़्त के मेरे स्टीकर्स प्रेम को दर्शाता है.
उन दिनों मुझे स्टीकर्स जमा करने का ओबसेशन था. मेरे पास कई स्टीकर्स शीट्स रखे होते थे. पचास पैसे से लेकर एक रूपये, दो रुपये और पाँच रुपये तक के स्टीकर्स. फिल्म, क्रिकेट, गाड़ियों और बाइक के स्टीकर्स मेरे पास होते थे. स्टीकर्स के साथ साथ मुझे अलग अलग नेमप्लेट वाले स्टीकर्स खरीदने भी पसंद थे. मैं अपने नोटबुक पर अक्सर स्टीकर्स बदल दिया करता था. मोना के दराज़ से नेमप्लेट वाले यह स्टीकर्स भी मिले मुझे.
इन्हें भी मोना ने संभाल कर अपने चीज़ों के साथ रख दिया था. ये स्टीकर्स कार थीम के थे, तो इस वजह से मुझे लगता है जरूर ये मेरे होंगे. मोना के स्टीकर्स गुड़ियों, परियों और फूलों के थीम वाले होते थे.
मोना के उस पोटली में मुझे हैदराबाद शहर का एक टूर गाइड बुकलेट भी मिला और साथ ही कई ट्रेवल पोस्टकार्ड. बहुत से लोगों के तरह मुझे भी ट्रेवल पोस्टकार्ड कलेक्ट करने का खूब शौक था. मैंने कॉलेज तक पोस्टकार्ड खरीदें भी हैं और खतों के साथ भेजे भी हैं.
वैसे अगर इस हैदराबाद के टूर गाइड बुक की बात करूँ तो इसे निश्चित रूप से 2003में मैंने खरीदा होगा, जब मैं पहली बार हैदराबाद गया था. रेलवे स्टेशन के सामने फूटपाथ से ये गाइड खरीदा था. उस वक़्त गूगल मैप्स नहीं मौजूद थे तो ऐसे गाइड का बड़ा सहारा था जिससे कम से कम बस रूट आसानी से पता लग जाता था. हैदराबाद के अलावा मेरे पास दिल्ली, चेन्नई, बैंगलोर और कलकत्ता के भी गाइड मौजूद थे. मेरे ख्याल से उन दिनों घुमने वाले अधिकतर लोग इस गाइड की अहमियत अच्छे से समझ सकते होंगे.
हैदराबाद का टूर गाइड देख कर मुझे याद आया हैदराबाद में अबिड्स में घूमते हुए मैंने वहां लन्दन, न्यूयॉर्क और जाने कितने शहरों के पतले गाइड खरीदे थें, यह सोच कर कि जब भविष्य में यहाँ जाना हुआ तब ये गाइड मेरे काम आयेंगे.
गज़ब की सोच थी. है न? 🙂
मोना के अलमारी में मिले उस पोटली में से मुझे आर्ट एंड क्राफ्ट का एक कॉपी भी मिला जिसे देख कर मुझे वो समय याद आया जब स्कूल में आर्ट एड क्राफ्ट का एक फिक्स्ड पीरियड हुआ करता था और मुझे यह पीरियड बहुत पसंद था.
वैसे तो आमतौर पर धारणा ये थी कि आर्ट एंड क्राफ्ट के प्रति लड़कियों का ज्यादा झुकाव होता था, लेकिन मुझे भी ये सब्जेक्ट पसंद आता था. हमें एक जर्नल बनाना होता था, जिसमें जो भी आर्ट हमनें बनाया है, उसके स्टेप्स लिखने होते थे. मुझे यह जर्नल बनाना और इसे सजाना बड़ा अच्छा लगता था.
इस तस्वीर में जो जर्नल है वो मोना की है, लेकिन ठीक ऐसी ही एक जर्नल मेरे पास भी थी जिसे मैंने भी इसी प्रकार से सजाया था. जहाँ तक याद आ रहा है शायद मोना के इस जर्नल पर ये कलाकारी और शेलोफिन शीट का कवर मैंने ही लगाया था(हो सकता है मैं गलत भी हूँ. इस बात की पुष्टि मेरी बहन कर सकती है, अगर उसे याद हो तो).
मुझे नहीं पता कि अब स्कूल में आर्ट एंड क्राफ्ट के पीरियड होते हैं या नहीं और अगर होते हैं तो ऐसे जर्नल लिखे जाते हैं या नहीं. पर यह हमारा एक्स्ट्राकरीकुलर एक्टिविटी था.
बहन के इस जर्नल के इस पेज पर जो स्टेप्स लिखे हैं वह एक पेपरवेट बनाने के स्टेप्स हैं. मज़ेदार बात ये है कि ये पेपरवेट अब तक मेरे पास मौजूद है. (अगर आप नब्बे के दशक के या उससे पहले के विद्यार्थी हैं तो ‘पेपरवेट’ का अर्थ अवश्य जानते होंगे लेकिन अगर आप आज के विद्यार्थी हैं तो इसका अर्थ समझने के लिए गूगल न करें, अपने घरवालों से पूछ लें).
मोना के दराज़ से निकली पोटली में बड़े एहतियात से बांध कर मोना की ही एक पुरानी घड़ी रखी हुई थी. जहाँ तक मुझे याद है शायद 1998 के आसपास का वक़्त होगा जब पापा हमें हमारी पहली घड़ी दिलाने ले गए थे. उन दिनों मैक्सिमा नाम की टाटा की नयी घड़ी लांच हुई थी जो बड़ी अफोर्डेबल थी. मेरी मैक्सिमा की वो घड़ी तो बहुत पहले गुम हो गयी थी, लेकिन मोना ने इसे अब तक संभाल कर रखा हुआ है.
बहन के इस जादुई पोटली में इन सब के अलावा और भी बहुत कुछ मिला जिसमें कुछ कॉपियां, ड्राइंग शीट्स, पुराने स्कूल के आईकार्ड वगैरह थे. अगर सोचा जाए तो इन सामानों की अब कोई जरूरत नहीं है और यह रद्दी में फेंके जा सकते हैं. लेकिन फिर भी मोना ने इसे संभाल कर रखा हुआ था.
इन सामानों को देख कर वो हमारा वक़्त नज़रों के सामने आ गया. बड़ी जोर की ईच्छा हुई कि अगर टाइममशीन जैसी कोई शय है दुनिया में तो उसकी मदद से एक बार जरूर उन बीतें दिनों में जाना चाहूँगा.
मैंने अपनी बहन की इस पोटली को और भी अच्छे से बाँध कर, समेट कर वापस उसी दराज में रख दिया है और इस बार उस दराज़ को थोड़ा ठीक भी कर दिया है ताकि वो फिर से जाम न हो जाए और जब मर्ज़ी उसे आराम से खोल सकूँ.