मार्च की शाम और हलकी नोस्टाल्जिया वाली एक कॉफ़ी

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मार्च की शाम है..सर्दियां बहुत पहले चली गयी हैं। घरों में पंखे खुल गए हैं। हालांकि एयरकंडीशन नही चालू हुए हैं. ये ठीक भी है… मौसम को अपना लिहाज तो करना चाहिए न. होली के बाद ही गर्मी अपने पूरे शबाब पर होती है और होली अभी पंद्रह दिन दूर है, ऐसे में एयर  कंडीशन अभी से ही चलना अजीब लगेगा. हमें भी और होली को भी.. 🙂

आज शाम कुछ सामान लेने घर से निकले थे, पटना के मौर्या लोक शौपिंग काम्प्लेक्स में. जहाँ हम खरीदारी करने आये थे, उसके पास ही एक रेस्तरां था. पटना शहर का काफी पुराना और नामी रेस्तरां – बसंत बिहार.

एक समय था जब यहाँ खाना स्टेट्स की बात हुआ करती थी. पहले पटना में कोई भी आता तो बिना बसंत बहार के डोसा को खाए लौटता भी नहीं था. और थोड़ा ये शो ऑफ करने वाली बात भी होती थी – यार आज बसंत बिहार का डोसा खाने गए थे.

आज की शाम थोड़ी हसीन भी थी. हम रेस्तरां के बहार खड़े भी थे और कॉफ़ी पीने की तलब भी जाग गयी थी. तो सोचा क्यों न मौके के इस्तेमाल कर ही लिया जाए.

बसंत बिहार की एक बड़ी जानी पहचानी खुशबु होती है…शायद किसी परफ्यूम या रूम फ्रेशनर की. एकदम वैसी ही खुशबु आज भी महसूस हुई. लगा एकदम पहले के दिनों वाली बात है, जब हम यहाँ गर्मियों की दोपहर कोल्ड कॉफ़ी पीने यहाँ आया करते थे.

भीड़ कम थी और हम एक कोने वाले टेबल पर आकर बैठ गए. एयरकंडीशन की हलकी ठंडी हवा और रेस्तरां की हलकी खुशबु एक तगड़े नोस्टाल्जिया को जगा रही थी.

बड़ी गज़ब की पुराने दिनों की फीलिंग आ रही थी। सब कुछ तो वैसा ही था… वही रेस्तरां..वही कुर्सी और टेबल.. वही सफेद लिबास में बैरे। हाँ पर स्वाद वैसा न था जिसके लिए कभी इस रेस्तरां का नाम हुआ करता था। शायद न वो समय रहा और न वैसे कारीगर अब रहे होंगे। फिर भी जो महसूस हुआ वो अच्छा सा था।

बाहर जब निकले तो मौसम खूब सुहावना हो चुका था। निक्की से मैंने कहा कि देखों कहीं सर्दियां फिर से आकर धप्पा न बोल दे, गर्म कपड़े कहीं फिर न निकालने पड़े। निक्की ने तुरंत जवाब दिया ‘नॉट पॉसिबल, ईट्स मार्च ऑलरेडी’।

मैंने बस एक ठंडी आह भरी और मन ही मन कहा – मार्च में कोई भी चमत्कार मुमकिन है। क्या पता अगली सुबह आंख खुल और खिड़की के बाहर कोहरा दिखाई देने लगे, ठीक वैसे ही जैसे आज से दस साल पहले मार्च की एक सुबह अचानक कोहरे ने दस्तक दे दिया था।

  1. हम जागे हुए सुन रहे थे फ़साना
    सुनाते हुए लो तुम्हें नींद आ गई…
    कुछ ऐसा ही लगा आखिर में…उस कोहरे की कहानी भी तो सुना देते तो मज़ा दुगुना हो जाता…।

  2. हम जागे हुए सुन रहे थे फ़साना
    सुनाते हुए लो तुम्हें नींद आ गई…
    कुछ ऐसा ही लगा आखिर में…उस कोहरे की कहानी भी तो सुना देते तो मज़ा दुगुना हो जाता…।

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