संगीत में बड़ी शक्ति होती है, ये बात सभी जानते हैं और मानते भी हैं. लेकिन कभी कभी हम इस बात को भूल से जाते हैं. संगीत लेकिन अपनी इस ताकत को अक्सर हम पर जाहिर कर दिया करता है. वो ये जताते देर नहीं लगाता कि वो चाहे तो आपको दिल्ली के कनॉट प्लेस के किसी कैफे से एक पल में ट्रांसपोर्ट कर के राजबंशी नगर के क्वार्टर संख्या एक सौ तिरानबे बटा चार सौ में ला के पटक सकती है.
टाइम ट्रेवल की मशीन अभी ईजाद नहीं हुई, लेकिन संगीत ने अनगिनत बार ये साबित किया है कि वो जब चाहे आपको टाइम ट्रेवल करवा सकता है.
आपको कभी न कभी तो ऐसा लगा होगा न कि आप सड़कों पर चल रहे हैं, मोबाइल में कोई पुराना गीत सुन रहे हैं और अचानक जैसे सब कुछ ठहर सा गया हो. वक़्त थम सा गया हो, ठंडी हवाएं बहने लगी हों और कोई पुरानी बात याद करते हुए आपके होठों पर यूँ ही एक मुस्कान चली आई हो. है न? होता है न ऐसा?
क्या कहा? नहीं होता क्या ये आपके साथ?
क्या आज मेरी ये बातें अजीब लग रही हैं आपको?
कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे हैं कि मैं इतने दिनों बाद वापस ब्लॉग लिख रहा हूँ और ये कैसी बहकी बहकी सी बातें करने लगा?
घबराइये नहीं. मुझे खुद भी आज अपनी बातें और अपनी चाल भी कुछ अजीब लग रही हैं. ग़ालिब का वो शेर है न “बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या… कुछ कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई ”, वैसी ही फीलिंग आ रही है मुझे. लेकिन वो कहते हैं न कि बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब..कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है… मेरे साथ भी कुछ ऐसी बात हुई है आज.
वैसे मेरे केस में पर्दादारी तो कुछ नहीं है, लेकिन हाँ आज इस बेखुदी का कुछ सबब जरूर है. दरअसल मेरी इस बेखुदी का सबब बड़ी ही मामूली सी एक बात है –
आप में से शायद बहुत लोगों को ये बात पता नहीं हो तो मैं बता देता हूँ कि संगीत की ही तरह एक और ऐसी शय है जो आपको आपके बीते दिनों में ले जा सकती है.
जी नहीं हुज़ूर, मैं किताबों की या आपके किसी निजी डायरी की बातें नहीं कर रहा हूँ. मैं तो आपके चहेते फेसबुक का एक फीचर जो दुनिया में “ऑन दिस डे” के नाम से मशहूर है, उसकी बातें कर रहा हूँ.
हुआ कुछ यूँ कि आज दोपहर मैं कुछ इत्मिनान से बैठा था. एक अरसे के बाद आज की दोपहर ऐसी थी कि मैं बिलकुल खाली सा था. न काम की कोई फ़िक्र न किसी बात की कोई चिंता. मुझे याद आया कि एक जमाने से मैंने फेसबुक के ऑन दिस डे पर नज़र नहीं डाली है, वरना पहले तो कुछ ऐसा होता था कि फेसबुक लॉग इन के बाद सीधा ऑन दिस डे के तरफ ही रुख करता था.
आज ‘ऑन दिस डे’ अर्थात फेसबुक के मिनी टाइममशीन को खोलने के बाद फेसबुक ने कुछ दस बारह बातें याद दिला दी, जिनमें कुछ तस्वीरें भी थी, दोस्तों के कुछ मेसेज और एक दस साल पुराना पोस्ट किया हुआ स्टेट्स था, जिससे मुझे याद आया कि आज से दस साल पहले, जब मेरे मात्र बीस या तीस दोस्त ही फेसबुक पर थे, मैं 24×7 ऑनलाइन रहता था. मतलब उस ज़माने में मैं चौबीस घंटे ऑनलाइन रहता था जब दुनिया एंड्राइड नामक बीमारी से ग्रसित नहीं हुई थी और जब किसी तरह के किसी एप का अस्तित्व दुनिया में नहीं था.
उस स्टेट्स पर आये कमेन्ट से मुझे ये भी याद आया कि उन दिनों संगीत से मेरा बड़ा जबरदस्त कनेक्शन था. संगीत से तो कनेक्शन अभी भी है, ये एक ऐसा रोग है जो मरते दम तक आपके शरीर से चिपका रहता है. लेकिन उन दिनों मेरा म्यूजिक क्रेज अपने चरम पर था. मुझे याद नहीं आता कि बैंगलोर में मेरा कमरा कभी शांत रहा हो. रात को सोते वक़्त भी मेरे लैपटॉप के प्लेलिस्ट पर ग़ज़लें या पुराने गीत लगे होते थे, और वो बंद तभी किये जाते थे जब मैं कमरे से बाहर निकल रहा होता था.
वहीं अब वक़्त ऐसा आ गया है कि मुझे ये भी ध्यान भी नहीं आता कि अपने शौक के लिए मैंने आखिरी बार गाने कब सुने हैं. प्रोफेशनली तो हर रोज़ नए गाने सुनने के लिए कानों को सजा-सी देता हूँ, लेकिन खुद के लिए गाने सुने हुए सच में अरसा हो गया.
मैंने झट से अपना मोबाइल निकाला, और इस उद्देश्य से कि आज ऑफिस से घर लौटते वक़्त जी भर गाने सुनूँगा, मैंने बैग से हेडफोन निकाला, हैडफ़ोन के एक सिरे को मोबाइल में और दूसरे सिरे को कानों में ठूंस के बड़े इक्साइट्मेंट से गाना सुनने के लिए प्ले-लिस्ट ओपन किया.
बाय डिफ़ॉल्ट कुछ ऑडियो फाइल प्लेलिस्ट में थे जो मेरे काम से जुड़े थे. मैंने आल फोल्डर की तरफ रुख किया, लेकिन सिर्फ एक ही फोल्डर था मोबाइल में जिसे मैंने वर्क रिलेटेड पॉडकास्ट के नाम से सेव कर रखा था.
मेरे गाने कहाँ गए? मेरे प्ले लिस्ट में मेरे सिलेक्टेड एक भी गाने नहीं थे. सब गायब थे…
मैं हड़बड़ी में अपने मोबाइल के हर फोल्डर को चेक करने लगा. म्यूजिक का फोल्डर खाली था, मीडिया का फोल्डर खाली था और यहाँ तक कि विडियो का फोल्डर भी खाली था.
मैं हैरान सा हो गया.. सारे गाने कहाँ गए मेरे? मैं सोचने लगा…
मुझे याद आया कि ये मेरा नया फोन है जिसे मैंने करीब तीन महीने पहले खरीदा था, और तब से अब तक मैंने इसमें कोई गाने डाले ही नहीं है.
रियली? आई मीन कैसे पॉसिबल है ये?
कसम से कह रहा हूँ, सर शर्म से झुक गया मेरा…
“एक भी गाने, ग़ज़लें नहीं हैं तेरे फ़ोन में? क्या कर रहा है भाई? ऐसे ज़िन्दगी चलती है क्या?”, मैंने खुद को डांटते हुए कहा और फिर निराश होकर मोबाइल को टेबल पर पटक दिया.
यकायक ध्यान आया, यार ये वो अँधा युग नहीं है जब एक एक गाने को डाउनलोड करने के लिए या म्यूजिक को स्ट्रीम करने से पहले दस बार सोचना पड़ता था. रिलायंस जिओ की कृपा देश पर खूब जोर से बरसी है और सभी मोबाइल ऑपरेटर के साथ साथ मेरा ऑपरेटर एयरटेल भी अपने औकात पर आ गया है, अब म्यूजिक क्या मोबाइल पर फिल्म भी स्ट्रीम कर सकते हैं…
इक्साइट्मेंट फिर से वापस लौट आई…
मैंने झट से मोबाइल उठाया और एक म्यूजिक एप डाउनलोड किया और उसके होमपेज पर ही एक बना बनाया प्लेलिस्ट दिख गया, ‘द गोल्डन निनेटी’.
बस फिर क्या था, मैंने झट से उस प्लेलिस्ट के सारे गाने डाउनलोड कर लिए. थोड़ा आश्चर्य भी हुआ, कि इस एप को कैसे पता मैं नब्बे के दशक के गाने सुनना चाह रहा था अभी?
‘यार, तुम क्या मन की बातें भी पढ़ लिया करते हो?’, मैंने उस म्यूजिक एप से पूछा, लेकिन वो बस मुस्कुरा कर रह गया.
खैर, उस प्लेलिस्ट में जो सबसे ज्यादा गाने थे वो कुछ साल पुरानी एक स्वीट सी फिल्म “रहना है तेरे दिल में” फिल्म से थे. मैंने उस प्लेलिस्ट के सभी गाने के एल्बम को डाउनलोड कर लिया.
यहाँ तक तो सीधी सी बात है, लेकिन इसके बाद जो हुआ वो मेरे लिए एक चमत्कार से कम नहीं था. गाने डाउनलोड करने के बाद कुछ ऐसा हुआ जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी.
कानों में उस प्लेलिस्ट के पहले गाने जो Track1 के नाम से सेव था उसके बोल आये…
“सोनी ओ सोनी सोनी, मेरी मनमोहनी सोनी / सुन गल मेरी सुन, मैं हूँ मुश्किल में / रहना है तेरे दिल में.. रहना है तेरे दिल में..”
मैं आँख बंद कर के गाने सुन रहा था और इस गाने के ये बोल कानों में पड़ते ही मेरी आँख एकदम से खुल गयी —-
हाउ इस इट पॉसिबल?
ये गाना? ये गाना कैसे मिल गया इस एप को? ये गाना जिसके बारे में इसके फिल्ममेकर भी भूल गए हैं, वो इस म्यूजिक एप के हाथ कैसे लग गया?
ज़माने बाद मैंने इस गाने के बोल सुने थे और मुझे अभी तक यकीन नहीं हो रहा था कि मैं सच में इस गाने को सुन रहा हूँ?
आई मीन इज दिस फॉर रियल?
हैंग ऑन!!
हैंग ऑन!!
इससे पहले कि आप कन्फ्यूज होकर, मेरे ब्लॉग से लौट जाए, पूरी बात बता रहा हूँ —
बात पुरानी है, बहुत ज्यादा पुरानी भी नहीं, मेरे इंटर के दिनों की बातें हैं.
जब इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था. ‘रहना है तेरे दिल में’ फिल्म आने वाली थी. उन दिनों किसी ने भी इस फिल्म का नाम नहीं सुना था ना ही किसी को इस फिल्म के बारे में थोड़ी भी जानकारी थी, लेकिन इसके गाने सभी के ज़ुबान पर चढ़े हुए थे. फिल्म के ऑफिसियल म्यूजिक अल्बम लांच के पहले फिल्ममेकर ने म्यूजिक को प्रोमोट करने का एक नायब तरीका ढूँढा था.
फिल्म का ऑफिसियल अल्बम रिलीज़ करने के पहले फिल्ममेकर ने एक मिनी एल्बम रिलीज किया था जिसमें सिर्फ चार गाने थे. ‘रहना है तेरे दिल में’ के चार टाइटल ट्रैक. प्रोडूसर ने एक पब्लिक वोटिंग करवाई थी, कि ये चारो टाइटल ट्रैक में से उस गाने को फिल्म के ऑफिसियल एल्बम में रखा जाएगा जिसे सबसे ज्यादा वोट मिलेंगे. उन दिनों छैयां छैयां के वजह से सुखविंदर का मैं फैन था, और चाह रहा था कि सुखविंदर का गाया ये गाना ‘सोनी सोनी.’ फिल्म के टाइटल ट्रैक में रखा जाए, लेकिन इस गाने को ऑफिसियल एल्बम में जगह नहीं मिली थी.
आज मुद्दत बात मुझे ये गाना सुनने को मिला. मेरे लिए ये किसी आश्चर्य से कम नहीं था, क्यूंकि कुछ साल पहले तक मैंने इन चार गाने के लिए इन्टरनेट का कोना कोना खंगाल डाला था, लेकिन इन चार गानों का नाम-ओ-निशाँ नहीं मिला मुझे और आज इतने ज़माने बाद मैं इन गानों को सुन रहा हूँ. इस बात से सच में मेरा पूरा दिन बन गया था आज.
वैसे सच कहूँ तो ये कोई बहुत बेहतरीन गाना नहीं है, बहुत ही औसत दर्जे का गाना है, लेकिन साहब कभी कभी ऐसा होता है ज़िन्दगी में कि बहुत ही मामूली चीज़ें आपके दिल के बेहद करीब होती हैं और उनकी कोई वजह नहीं होती. बेवजह ही कमाल की बातें होती रहती हैं ज़िन्दगी में..
मैं जानता हूँ, ये सब पढ़ने के बाद आप अभी ये भी सोच रहे होंगे कि यार, खामखां इसने इतनी लम्बी कहानी बना दी, Its not a big deal!, बिना मतलब ये लड़का Carried Away हुआ जा रहा है और क्या क्या बके जा रहा है, इसे खुद भी नहीं पता…
तो हुज़ूर ये बातें बिलकुल सही है. कभी कभी ज़िन्दगी में बेहद मामूली और गैर जरूरी बातों के लिए Carried Away हो जाने में भी अपना अलग ही मज़ा है. है न?
वैसे सही बताऊँ तो इस गाने ने मुझे कुछ बेहद अनमोल पल याद दिला दिए मुझे. अपने छोटे से सरकारी क्वार्टर का वो मकान, वहां की शाम, वहां का बगीचा और जाने क्या क्या.
उन दिनों हमारे क्वार्टर का मेन गेट टूटा हुआ था तो हमने काम चलाऊ लकड़ी का गेट लगा दिया था.. बहुत दिनों तक वो लकड़ी का गेट ही हमारा मुख्य गेट था. बाद में जाकर वहाँ लोहे का गेट लगा था. अभी ये गाना सुनते हुए मुझे अपने घर का वो लकड़ी का गेट भी जाने क्यों याद आ रहा है.
देखिये साहब, म्यूजिक की एक बड़ी ख़राब आदत होती है. वो सिर्फ एक तय समय में आपको ला के नहीं फेंकती. अगर बेहरहमी पर उतर आये तो वो किक मार के आपको और पीछे के तारीख में भेज दिया करती है. इस फिल्म के उस चार गाने ने वही काम किया आज. पहले तो मुझे Late Nineties के दौर में ला कर फेंक दिया इन्होने और उसके बाद एक ज़ोरदार किक मार के सीधे Mid-Nineties में लाकर फेंक दिया मुझे. एक एक छोटी छोटी बातें, स्कूल के दिन, शाम में कोचिंग के लिए जो मास्टर साहब आते थे वो वक़्त, और न जाने कैसी कैसी कमाल की बातें याद आने लगी..सच कहूँ तो यादों का तो जैसे सैलाब सा आ गया था.
खैर,
हम कर भी क्या सकते हैं… ये यादें होती ही हैं ऐसी बेरहम. बे-वक़्त आ जाया करती हैं और आ के अक्सर ऐसा सैलाब उठा जाती हैं, कि हम बस उसमें बहे चले जाते हैं..
लेकिन आप इस बात से ज़रा भी नहीं घबराइए..यादों को मैं कण्ट्रोल कर के यहीं पर समेट लेता हूँ, वरना आप दोबारा इस ब्लॉग का रुख नहीं करेंगे. वैसे भी एक दिन में ज्यादा झटके नहीं खाने चाहिए. है न?
बाकी बातें फिर कभी…
फ़िलहाल,
आप चाहे तो इस गाने को, जिसने आज ये सब कांड करवाया है, उसे यहाँ सुन सकते हैं…
हे भगवान! एकदम फ्लो में पढ़ते हुए कुछ और यादों की गलियों में घूमने का दिल कर रहा था और तुमने आदतन-फिर कभी-का बोर्ड लाकर रास्ते मे खड़ा कर दिया…।
अब फटाफट अगली ब्लॉग पोस्ट लिख डालो, वरना…।
चलो, ये वरना-फिर कभी…☺️
आज भी वही फ्लेवर… आज भी वही रवानी… आज भी वही ताज़गी और आज भी अपने चचा ओ प्रेरित करने वाली स्टोरीटेलिंग!!।लव यू बेटा… अब तो मुझे भी कुछ लिखने का मन करने लगा है!
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन सोहराब मोदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर …. आभार।।