मैंने निर्मल वर्मा को पढ़ना बहुत बाद में शुरू किया. शायद सबसे बाद. 2008 का ही वो साल था जब मैंने पहली बार उनकी कोई कहानी पढ़ी थी. पहले भी कितने लेखकों को पढ़ते आया था, लेकिन शायद निर्मल वर्मा पहले ऐसे लेखक थे जिन्हें पढ़ने के बाद पहली बार मन किया कुछ लिखने का. आप कह सकते हैं मेरे लिए कुछ भी लिखने की प्रेरणा सिर्फ और सिर्फ निर्मल वर्मा ही रहे हैं. उनकी हर कहानी में खुद को कहीं न कहीं खोज ही लेता हूँ मैं. सबसे बड़ी खूबी होती है निर्मल वर्मा की कहानियों की कि आपको एक ऐसा माहौल मिलता है, एक ऐसा दृश्य जहाँ आप विश़ूअलाइज़ कर सकते हैं. खुद को वहाँ लेकर जा सकते हैं. जैसे “वे दिन”पढ़ते हुए लगता है कि आप भी प्राग की गलियों में घूम रहे हैं…
बहुत लोग कहते हैं कि निर्मल वर्मा की कहानियां अवसाद और उदासी से भरी होती हैं. लेकिन जाने क्यों मुझे इनमें बड़ा सुकून महसूस होता है. इनकी कहानियों में खुद को बड़े आसानी से रिलेट कर लेता हूँ मैं. वो अवसाद और उदासी, पात्रों का वो अकेलापन मुझसे बातें करता है. निर्मल वर्मा की कहानियां मेरे जैसों को इस कदर पसंद आने के पीछे शायद बहुत सी वजहें भी हैं… उनकी कहानियों में अपने दुखों से जूझते..घर को याद करते..एक अजीब से व्याकुलता.. बेचैनी और तड़प से जूझते युवा हैं तो वहीँ एक तरफ उनकी कहानियों में चाहना भी है. एक सबसे बड़ी खूबी है निर्मल वर्मा की कहानियों की, कि ये लोगों के सुख और दुःख को पहचानना चाहती है. सुख क्या है और दुःख क्या है इसके बीच के अंतर को समझाती है. ना होते हुए भी होना, जब कोई नहीं होता है तो हम क्या करते हैं.. उस ऐब्सन्स को खोजती है इनकी कहानियाँ. आइसलेशन और विरह भी खूब अच्छे से दीखता है इनकी कहानियों में. एक अजीब टाइप की वीरानी भी महसूस होती है. लेकिन इन सब वीरानियों, आइसलेशन और दुखों के बावजूद निर्मल वर्मा की कहानियां बेहद शान्त, ठहरी हुई और कुछ सोचती हुई सी लगती है, जहाँ हम कहीं न कहीं सुकून पा लेते हैं, कहीं न कहीं खुद को खोज लेते हैं. एक अलग तरह की फ्रेशनेस महसूस होती है निर्मल वर्मा की कहानियों में, शायद सबसे अलग शैली में लिखी होती है इनकी कहानियाँ और यही वजह भी है कि सभी साहित्यकारों में निर्मल वर्मा बिलकुल अलग नज़र आते हैं..आज उनके जन्मदिन पर उनकी कुछ बातें शेयर कर रहा हूँ…
“इस दुनिया में कितनी दुनियाएं खाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग गलत जगह पर रहकर सारी जिंदगी गंवा देते रहती हैं.”
“अगर मैं दुःख के बगैर रह सकूँ, तो यह सुख नहीं होगा, यह दूसरे सुख की तलाश होगी, और इस तलाश के लिए मुझे बहुत दूर नहीं जाना होगा, वह स्वयं मेरे कमरे की देहरी पर खड़ा होगा, कमरे की खाली जगह को भरने..”
“मैं कभी कभी सोचता हूँ, इंसान जिंदा किसलिए रहता है – क्या उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं मिला?”
“मुझे इश्वर में विश्वास नहीं है, फिर भी जाने कैसे एक विचित्र स्नेहिल-सी कोमलता मेरे अस्तित्व के गहनतम तल में भाप-सी उठने लगती है, जब मैं अपने लेखन में कभी ‘इश्वर’ का नाम लिखता हूँ!”
“देखिए मुझे नहीं लगता कि मैंने समझ-बूझकर हिन्दी में लिखना तय किया । मेरे लिए उस भाषा में लिखना ही सहज था जिसमें मैं अपने परिवार वालों से बात करता था और फिर मेरी परवरिश भी इस तरह से हुई थी कि तमाम महत्वपूर्ण प्रभाव, मेरा धर्म और वे महत्वपूर्ण उत्सव जिनमें मैं भाग लेता था, सभी की जड़ें उस भाषा के परिवेश में गहरी गड़ी थीं जिसने मेरे भावनात्मक संसार को प्रभावित किया । इसलिए संसार को देखने के इन दो तरीकों से मुझे कोई विरोधाभास नहीं दिखा-एक तो उस अंग्रेजी के माध्यम से जिसमें मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई और दूसरा उस हिन्दी के माध्यम से जिसमें अपनी गहन भावनाओं को व्यक्त करने का भारी दबाव मेरे अन्दर मौजूद था। तो चुनाव करने जैसी बात नहीं थी-”
“यदि कोई मुझसे पूछे कि मैं लिखने से क्या कहना चाह रहा हूँ तो मैं कहूँगा, कि मैं अपनी निजी, प्राइवेट अनुभूति को एक ऐसे चरम बिंदु तक खींच ले जाना चाहता हूँ, जहां वह ‘सार्वजनिक कर्म’ बने बिना भी, दुनिया की सतह पर एक प्रेत-छाया की तरह प्रकट होती रहे, कुछ-कुछ उन दिवास्वप्नों-सी, जिन्हें लोग सड़क पार करते हुए, बस की प्रतीक्षा करते हुए या सिर्फ़ अकेले में बैठे हुए देखते रहते हैं…”
“कभी कभी मैं सोचता हूँ कि जिसे हम अपनी ज़िन्दगी, अपना विगत और अपना अतीत कहते हैं, वह चाहे कितना भी यातनापूर्ण क्यों न रहा हो, उसमें हमें शान्ति मिलती है. वह चाहे कितना उबड़खाबड़ क्यों न रहा हो, हम उसमें एक संगती देखते हैं. जीवन के तमाम अनुभव एक महीन धागे में बिंधे जान पड़ते हैं. यह धागा न हो, तो कहीं कोई सिलसिला नहीं दिखाई देता, सारी जमापूँजी इसी धागे की गाँठ से बंधी होती है, जिसके टूटने पर सबकुछ धुल में मिल जाता है. उस फोटो अल्बम की तरह, जहाँ एक फोटो भले ही दूसरी फोटो के आगे या पीछे आती हो, किन्तु उनके बीच जो खाली जगह बची रह जाती है, उसे भरनेवाला “मैं” कब का गुज़र चूका होता है. वे हमारे वर्तमान के नेगेटिव हैं..सफ़ेद रौशनी में पनपनेवाले प्रेत…जिन्हें हम चाहें तो बंद स्मृति की दराज से निकालकर देख सकते हैं. निकालने की भी जरूरत नहीं..एक दृश्य को देखकर दूसरा अपने आप बहार निकल आता है, जबकि उनके बीच का रिश्ता कब से मुरझा चुका होता है..”
“इन पहाड़ों के पीछे जाने क्या होगा?” जब हम छोटे थे, तो अपने घर के बरामदे में खड़े होकर अक्सर एक दूसरे से यह प्रश्न पूछा करते थे. उन दिनों छुट्टी लेकर पहाड़ों पर जाने की जरूरत महसूस नहीं होती थी – वे हमेशा हमारे संग थे, हमारे खेलों में, हमारे सपनों में. तब पहाड़ों की शक्ल, उनकी भाव-भंगिमा बिलकुल अलग, दूसरे किस्म की थी, जैसे माँ की शक्ल जो बच्चों की आँखों में होती है, वह दूसरों के लिए नहीं होती. उसकी पहचान ही अलग होती है. शिमले का वह घर बरसों पहले छुट चूका है, उसके बाद न जाने कितने छोटे-बड़े हिल-स्टेशनों के होटलों में रहना पड़ा है, किन्तु आज भी जब किसी अकेली, निर्जन पगडण्डी पर चढ़ता हुआ घास के किसी अनजाने द्वीप पर साँस लेने ठिठक जाता हूँ, तो आँखें असीम विस्मय से भर उठती हैं. पहाड़ों की अलंघ्य, अभेद्य उचाईयों की तरह इस प्रश्न की रहस्यमयता आज भी वैसी ही बनी है, जैसे कभी बरसों पहले बचपन में थी.”
“एक उम्र होती है जब आदमी एक औसत सुख के दायरे में रहना सीख लेता है. उसके परे देखने की फुर्सत उसके पास नहीं होती, यानी उस क्षण तक महसूस नहीं होती जब तक खुद उसके दायरे में…आपने अक्सर देखा होगा कि जिसे हम सुख कहते हैं वह एक ख़ास लम्हे की चीज़ है – यों अपने में बहुत ठोस है, लेकिन उस लम्हें के गुज़र जाने के बाद वह बहुत फीका और कुछ कुछ हैंगओवर सा धुंधला लगता है. किन्तु जिसे हम दुःख या तकलीफ या यातना कहते हैं, उसका कोई ख़ास मौका नहीं होता…मेरा मतलब है वह हुबहू दुर्घटना के वक़्त महसूस नहीं होती. ऐन दुर्घटना के वक़्त हम बदहवास से हो जाते हैं, हम उससे पैदाहोने वाली यातना के लिए कोई बना-बनाया फ्रेम नहीं ढूँढ पाते जिसमें हम उसे सही-सही फिट कर सके. किसी दुर्घटना का होना एक बात है…उसका सही सही परिणाम अपनी पूरी ज़िन्दगी में भोगना या भोग पाने के काबिल हो सकना – बिलकुल दूसरी बात. यह असंभव है..ऐसा होता नहीं. मेरा मतलब है..अपने को बार-बार दूसरे की स्थिति में रखकर उतने ही कष्ट के कल्पना करना, जितना दूसरे ने भोग था.”
“उपन्यास लिखना एक तरह से आँखमिचौनी का खेल है, किंतु उसके नियम उस खेल से बिलकुल उलटे हैं जो हम बचपन में खेलते थे. लिखते हुए हम घंटों इधर-उधर भटकते रहते हैं, जो ढूँढ रहे हैं, वह कहीं दिखाई नहीं देता, फिर अचानक वह किसी झाड़ी की ओट में, किसी चट्टान के पीछे बैठा दिखाई दे जाता है, किन्तु यह वह नहीं है जिसे हम ढूँढ रहे थे, यह वह है जो हमारी तलाश में बैठा था…”
“कहानी लिखते समय महसूस होना कि तुम मृत्यु के इस ओर से ज़िन्दगी को देख रहे हो, इन समस्त खंडित टुकड़ों को याद करते हुए जिनसे तुम्हारी ज़िन्दगी की संरचना बनी है – उन्हें तरतीब देना, जो दरअसल जीने के क्षणों की तरतीब नहीं है, बल्कि एक ऐसा प्राइवेट पैटर्न है, जो तुमसे पहले के चारों तरफ फैले संसार को एक अनूठी अर्थवत्ता में बाँधता है, एक आर्कीटाइप छविओं का जला, जिसे हर कहानी अपने भीतर तानती है. मैं उस जले के भीतर हूँ, जितना भीतर हूँ, उतना सच है. मेरा सच नहीं, उस कहानी का सच, जिसके भीतर मैं हूँ..”
“हर आदमी को अपनी ज़िन्दगी और अपनी शराब चुनने की आज़ादी होनी चाहिए..दोनों को सिर्फ एक बार चुना जा सकता है बाद में हम सिर्फ उसे दोहराते रहते हैं, जो एक बार पी चुके हों या एक बार जी चुके हैं…”
निर्मल वर्मा को पढ़ना…जैसे हलक से घूँट-घूँट करते किसी ऐसी रूमानी कविता का उतरना, जिससे पहले तो तुम्हारे अंदर सब कुछ झुलसा लगेगा, फिर तुम्हारी जीभ पर उसका जो अनोखा स्वाद आएगा, उसका आनंद तुम बता नहीं सकते, बस महसूस कर सकते हो…।
निर्मल वर्मा को पढ़ना…जैसे हलक से घूँट-घूँट करते किसी ऐसी रूमानी कविता का उतरना, जिससे पहले तो तुम्हारे अंदर सब कुछ झुलसा लगेगा, फिर तुम्हारी जीभ पर उसका जो अनोखा स्वाद आएगा, उसका आनंद तुम बता नहीं सकते, बस महसूस कर सकते हो…।
निर्मल वर्मा जी को पढ़ना मतलब सुराही के शीतल जल को घूँट घूँट कर जीना ….
निर्मल वर्मा जी को पढ़ना मतलब सुराही के शीतल जल को घूँट घूँट कर जीना ….
निर्मल वर्मा जी की जन्मदिन पर सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार!