पुराना सचिवालय और झील

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बस ऐसे ही जाना हो गया था उधर. कोई उद्देश्य नहीं था. सुबह  ऑफिस जाते वक़्त माँ ने कहा था कि आज लौटते वक़्त झील के पास से होते आयेंगे. इस बात पर मेरी ख़ास प्रतिक्रिया नहीं थी. मैं ज्यादा एक्ससितेद नहीं था झील जाने की बात से. शायद होता भी एक्ससितेद, लेकिन वक़्त ऐसा है कि वहां जाने का अर्थ भी बस इतना था कि देखो वो झील है, और फिर लौट आओ. 

माँ का ये कहने के पीछे वजह भी थी. इतने सालों से पापा और माँ सचिवालय में काम करते हुए आये थे. बहुत बार माँ को ऑफिस पहुचने और लाने मैं ही गया था, लेकिन फिर भी कभी सचिवालय के चारो तरफ या उसके कैंपस में कभी घूम नहीं पाया था. अब माँ के सेवानिवेती होने में कुछ महीने बाकी हैं, तो ऐसे में माँ इ कहा कि चलो देख लो कम से कम, फिर तो इधर आना शायद ही हो.

गाड़ी सड़क के किनारे खडी की थी, और फिर हम दोनों निकल गए झील के तरफ. पुराना सचिवालय का कैंटीन नज़र आया, माँ ने बताया कि ये अंग्रेजों के समय का बना हुआ है. आसपास के बहुत से ऑफिस जो बैरक में बने थे वो सब टूट गए हैं और वहाँ अब नया कुछ बन रहा है. पापा पहले जनसंपर्क में थे तो यहीं ऑफिस था. 

दोपहर में पापा ऑफिस की बातें बता रहे थे. और शाम को मैं इधर आ गया था. मैंने उस समय को नहीं देखा, जब पापा यहाँ काम करते थे. लेकिन फिर भी एक तस्वीर मन में बनती जाती थी जब भी पापा से पुरानी कहानियां सुनता था. वे सब तस्वीरें सजीव होकर मेरे आँखों के सामने चली आई थी. 

मुझे यकायक लगने लगा कि क्या खूबसूरत वक़्त होगा जब पापा माँ यहाँ काम करते होंगे. पापा ने बताया कि एक वक़्त यहाँ इतने पेड़ थे कि बारिश में भी आप पेड़ों के नीचे बिना भींगे चल सकते थे. मैं उस दृश्य को भी इमागें करने लगा. आज के कंक्रीट के जंगलों के बाशिंदे शायद इस बात पर यकीन नहीं कर पाए कि क्या ऐसा संभव है कि ऐसा घना पेड़ हो सकता है, लेकिन मैंने खुद बैंगलोर में देखा था. अब तो खैर बैंगलोर में भी पड़ें काट दी गयी हैं, उसे खूबसूरत बनाने के लिए. 

माँ और पापा ने बताया कि कैसे वे लोग इधर आते थे दोपहर का वक़्त बीताने. मैं सोचता रहा क्या कमाल का वक़्त रहा होगा न, जब ऐसी भागदौड़ नहीं थी और फुर्सत ज्यादा थी लोगों को. इधर वैसे भी पापा जब भी पुरानी ऑफिस की कहानियां बताते हैं तब कभी कभी यकीन भी नहीं हो पता कि वक़्त किस कदर बदल चूका है अब. 

मैं बमुश्किल वहाँ दो मिनट खड़ा रहा हूँगा, लेकिन फिर भी मुझसे बिना तस्वीर लिए वापस नहीं आया गया. एक लकड़ी की कुर्सी वहाँ रखी थी. शायद कोई बैठा हुआ था वहाँ. इतनी शान्ति थी वहाँ कि उस पल मुझे भी बैठ जाने को दिल करने लगा. शायद कोई और वक़्त होता तब माँ को कहता कि कुछ देर यहाँ बैठे हम. लेकिन अभी तो वबा कहर बरसा रही है. 

बहुत कुछ ऐसी चीज़ें दिखी उस झील के पास जाने में जो शायद अब आने वाले समय में अन्तिक में शामिल हो जाएँ. बेंत वाली टूटी कुर्सियां, एक विल्लिएस का जीप जो बेतरह बर्बाद हो गया था और अस्थिपंजर निकल आई थी  उसकी, पुराने लकड़ी के अलमीरा जो जाने कितने सालों से एक बिल्डिंग के बाहर पडा होगा… कभी कभी होता है न कुछ ऐसे चीज़ों पर नज़र पड़ जाती है जिसे देख कर लगता है कि जाने ये कितने ज़माने से यहीं पड़ा हुआ है..

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