शहीद दिवस पर सिर्फ भगत सिंह का नाम अकेले नहीं लिया जाता. जितने सम्मान और आदर के साथ हम भगत सिंह का नाम लेते हैं उतने ही सम्मान और आदर के साथ हम सुखदेव और राजगुरु का भी नाम लेते हैं. शहादत के इतने वर्षों बाद भी ये तीनों आज भी हमारे दिलों में धड़कते हैं. सुखदेव और राजगुरु भगत सिंह के निकटतम सहयोगी और खूब अच्छे मित्र थे.आईये आज देखते हैं सुखदेव और राजगुरु के जीवन की कुछ झलकियाँ
HSRA ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ अपनी मुहीम शुरू कर दी थी. सुखदेव अपने बाकी साथी भगत सिंह, राजगुरु, बटुकेश्वर बत्त और चंज्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेज सरकार की नींव हिलाकर रख दी थी. 1928 में ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के अंडर एक कमीशन का निर्माण किया, जिसका उद्देश्य उस समय भारत की राजनितिक स्थिति का जाँच करना और ब्रिटिश पार्टी का गठन करना था लेकिन भारतीय राजनैतिक फलों ने इस कमिसन का विरोध किया. उस विरोध का नेतृत्व लाला लाजपत राय कर रहे थे. लेकिन लाला लाजपत राय के अहिंसात्मक शांति मोर्चा को ब्रिटिश पुलिस ने हिंसात्मक घोषित किया और जेम्स स्कॉट ने पुलिस अधिकारी को विरोधियो पर लाठी चार्ज करने का आदेश दिया जिसमें विशेषतः लाला लाजपत राय को निशाना बनाया गया. उस लाठीचार्ज में लाला जी का देहांत हो गया. सुखदेव और भगत सिंह इस खबर से बुरी तरह आहात थे. उन्होंने बदला लेने का फैसला किया. इस सारी योजना के सूत्रधार सुखदेव ही थे. सेंट्रल एसेंबली के सभागार में बम और पर्चे फेंकने और फिर गिरफ़्तारी की घटना और अन्य योजनाओं को भले ही भगत सिंह समेत दूसरे क्रांतिकारियों ने अंजाम दिया हो लेकिन इतिहासकार कहते हैं कि सुखदेव इस युवा क्रांतिकारी आंदोलन की नींव और रीढ़ थे।
इतिहासकार ये भी बताते हैं कि एसेंबली में बम फेंकने का जिम्मा पहले भगत सिंह को नहीं दिया गया था. पुलिस को पहले से भगत सिंह की तलाश थी और क्रन्तिकारी साथी नहीं चाहते थे कि भगत सिंह पकड़े जाए. लेकिन सुखदेव भगत सिंह के नाम पर अड़ गए. उनका कहना था कि भगत सिंह अदालत से अपने विचारों और लेखों के जरिये लोगों में जागृति पैदा कर सकते हैं. सुखदेव का तर्क सुनने के बाद भगत सिंह को भी उनकी बात सही लगी.
सुखदेव गांधी को गांधी जी की अहिंसक नीति पर जरा भी भरोसा नहीं था. उन्होंने महात्मा गांधी को जेल से एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर कटाक्ष करते हुए लिखा था “मात्र भावुकता के आधार पर की गई अपीलों का क्रांतिकारी संघर्षों में कोई अधिक महत्व नहीं होता और न ही हो सकता है।” उन्होंने आगे लिखा “आपने अपने समझौते के बाद अपना आन्दोलन (सविनय अवज्ञा आन्दोलन) वापस ले लिया है और फलस्वरूप आपके सभी बंदियों को रिहा कर दिया गया है, पर क्रांतिकारी बंदियों का क्या हुआ? 1915 से जेलों में बंद गदर पार्टी के दर्जनों क्रांतिकारी अब तक वहीं सड़ रहे हैं। बावजूद इस बात के कि वे अपनी सजा पूरी कर चुके हैं। मार्शल लॉ के तहत बन्दी बनाए गए अनेक लोग अब तक जीवित दफनाए गए से पड़े हैं। बब्बर अकालियों का भी यही हाल है। देवगढ़, काकोरी, महुआ बाज़ार और लाहौर षड्यंत्र केस के बंदी भी अन्य बंदियों के साथ जेलों में बंद है। एक दर्जन से अधिक बंदी सचमुच फांसी के फंदों के इंतजार में हैं। इन सबके बारे में क्या हुआ?”
सुखदेव का ये पत्र उनके शहादत के कुछ दिन बाद यंग इंडिया में छपा था.
राजगुरु
शहीद राजगुरू का असल नाम शिवराम हरि राजगुरू था. उनका जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ गाँव में हुआ था. उस गाँव का नाम अब बदल कर राजगुरु नगर कर दिया गया है. राजगुरु के पिता का नाम श्री हरि नारायण और उनकी माता का नाम पार्वती बाई था. वीरता और साहस उनमें बचपन से भरा था, इसके साथ साथ राजगुरु खूब मस्तमौला इंसान भी थे. बचपन से ही भारत माँ से उन्हें प्रेम था और अंग्रेजों से घृणा. वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के वो बहुत बड़े भक्त थे. पढाई लिखाई में उनका ज्यादा मन नहीं लगता था, इसलिए अपने घरवालों का अक्सर तिरस्कार सहना पड़ता था उन्हें.
एक दिन रोज़ रोज़ के तिरस्कार से तंग आकर, अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए वो घर छोड़ कर चल दिए. उन्हूने सोचा कि अब जब घर के बंधनों से मैं आज़ाद हूँ तो भारत माता की सेवा करने में अब कोई दुविधा नहीं है.
बहुत दिनों तक वो अलग अलग क्रांत्तिकारियों से मिलते रहे, साथ काम करते रहे. एक दिन उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आज़ाद से हुई. राजगुरु की असली क्रन्तिकारी यात्रा चन्द्रशेखर आज़ाद से मिलने के बाद ही शुरू हुई. राजगुरु ‘हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ’ के सदस्य बन गए. चंद्रशेखर आज़ाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित थे, और खूब मन से उन्होंने राजगुरु को निशानेबाजी और बाकी शिक्षा देने लगे. जल्द ही राजगुरु आज़ाद जैसे एक कुशल निशानेबाज बन गए. इनके मस्तमौले अंदाज़ और लापरवाही की वजह से अक्सर चन्द्रशेखर आज़ाद राजगुरु को डांट भी देते थे, लेकिन राजगुरु आज़ाद को बड़े भाई मानते थे और उनके डांट का कभी उन्होंने बुरा नहीं मन. बाद में आज़ाद के ही जरिये राजगुरु की मुलाकात भगत सिंह और सुखदेव से हुई थी.
राजगुरु के मस्तमौले अंदाज़ और वीरता के खूब किस्से हैं. एक बार आगरा में चंद्रशेखर आज़ाद पुलिसिया जुल्म के बारे में बता रहे थे तो राजगुरु ने गर्म लोहे से अपने शरीर पर निशान बना कर देखने की कोशिश की थी कि वो पुलिस का जुल्म झेल पाएंगे या नहीं. बात बात पर वो अंग्रेजो से भिड़ने और उन्हें मारने के लिए तैयार हो जाते थे. राजगुरु के मस्तमौला अंदाज़ का भी एक किस्सा खूब मशहूर है – लाहौर में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स हत्याकाण्ड का मुकदमा चल रहा था. मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा. सभी जानते थे की अदालत एक ढोंग है. उनका फैसला तो अंग्रेज़ हुकूमत ने पहले ही कर दिया था. राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अपनी मस्तियों से अदालत में जज को धुल चटाई जाए. एक बार राजगुरु ने अदालत में अंग्रेज़ जज को संस्कृत में ललकारा। जज चौंक गया उसने कहा- “टूम क्या कहता हाय”? राजगुरु ने भगत सिंह की तरफ हंस कर कहा कि- “यार भगत इसको अंग्रेज़ी में समझाओ। यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे”. सभी क्रांतिकारी राजगुरु की इस बात पर ठहाका मारकर हसने लगे.
‘लाहौर षड्यंत्र’ के मामले ही ब्रिटिश अदालत ने राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को मौत की सजा सुनाई. तीनों वीर क्रन्तिकारी को ब्रीटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को फाँसी पर चढ़ा दिया था. फांसी पर चढ़ने के समय भगत सिंह, सुखदेव की उम्र २३ साल थी और राजगुरु की उम्र २२ साल.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’क्या वीरों की आज कूच करने की तैयारी है? ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है…. आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी….. आभार…