याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके – बिस्मिल और अशफ़ाक़ की शायरी

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ram prasad bismilअक्सर हम अब अपनी ज़िन्दगी में और बेवजह के मसलों में ऐसा उलझ कर रह जाते हैं, कि बहुत सी बातें हम भूलते चले जाते हैं. वे बातें जिन्हें याद रखना शायद बहुत जरूरी है. हमें हर किस्म के “डे” तो याद रहते हैं लेकिन हमारे “रियल हीरो”, वे जिन्होंने हमारे आज के लिए अपना वर्तमान कुर्बान कर दिया, उन्हें और उनसे जुड़े तारीखों को हम भूलते जा रहे हैं. बाकी लोगों से क्या शिकायत करूँ, खुद से ही थोड़ा खफा रहता हूँ मैं, कि अक्सर मैं भी ऐसे दिनों को भूलता जा रहा हूँ, जो कभी मेरे लिए बहुत महत्त्व रखते थे.

वे दिन अब भी मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन अब उन्हें उस तरह से याद न रख पाने से बहुत दुःख होता है. आज की बात करूँ तो, ग्यारह जून जन्मदिन होता है पंडित राम प्रसाद बिस्मिल का. आज सुबह से मन में ग्यारह जून का दिन अटका था. मुझे बार बार ये एहसास हो रहा था कि कोई ख़ास दिन तो है आज. लेकिन न किसी का जन्मदिन, न मैरिज एनिवर्सरी, न कोई स्पेशल डे.. फिर आज के दिन में क्या ख़ास बात है? मैं समझ नहीं पा रहा था. मुझे लगा कि शायद मेरा वहम होगा, आज का दिन भी बाकी दिनों की तरह ही सामान्य सा दिन है. ये सोच कर मैं ऑफिस के लिए निकल गया.

कुछ देर बाद फेसबुक पर जब मैंने लॉग इन किया, तो अचानक पिछले साल का एक पोस्ट “ऑन दिस डे” के केटेगरी वाला सामने वाल पर ही दिखा. एक शेर पोस्ट किया था मैंने,

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके

पंडित राम प्रसाद बिस्मिल का शेर था ये. अचानक से मुझे याद आया, आज पंडित जी का जन्मदिन है. कुछ देर के लिए तो मैं बस इस शेर को पढ़ता रह गया. लगा जैसे पंडित जी सार्कैस्टिक अंदाज़ में मुझसे कह रहे हों, “भूल गये न तुम सब मुझे…”

बड़ी शर्म महसूस हुई उस समय. कैसे भूल सकता हूँ मैं पंडित जी का जन्मदिन? मुझे कैसे याद नहीं रहा आज का दिन. आपको शायद ये भी लगेगा कि ओवरस्टेटमेंट वाली बातें हैं, लेकिन सच में जितना मैंने लिखा है, उससे कहीं ज्यादा शर्म और गुस्सा खुद के प्रति आया था मुझे.

मन पूरी तरह बुझ गया था मेरा. फेसबुक पर पंडित जी से जुड़ी एक पोस्ट लगा कर मैंने महीनों से बंद पड़े अपने ब्लॉग की तरफ रुख किया. भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, आज़ाद, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक पर जितने भी पुराने पोस्ट इस ब्लॉग पर लिखे हैं, वो सब पढ़ डाला. कुछ ऐसे नोट्स भी मिले जो ड्राफ्ट्स में इकट्ठे कर रखे थे मैंने.

उन्हीं ड्राफ्ट्स में से पंडित राम प्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की शायरी के कुछ किससे भी मौजूद थे जो मैंने कभी कहीं पढ़े थे और उन्हें अपने ब्लॉग के ड्राफ्ट में सुरक्षित कर रख लिया था.

अशफाक और बिस्मिल की दोस्ती और उनकी शायरी मुझे हमेशा से बड़ा फैसनेट करती है. दोनों पक्के यार  और गज़ब के शायर थे. एक दुसरे पर दोनों जान छिड़कते थे. वे दोनों की दोस्ती थी भी तो ऐसी कि जिनकी आज तक मिसालें दी जाती हैं. उनकी दोस्ती में उन दोनों की शायरी के प्रति प्रेम साफ़ दीखता है. दोनों अक्सर शायरी में बातें करते थे.

दोनों की शायरी की बातें करें तो आप देखेंगे कि दोनों की शायरी में रत्ती भर का भी फर्क नहीं नज़र आता है. बिस्मिल पहली मुलाकात से ही अशफाक के मुरीद हो गये थे. एक बार एक मीटिंग में बिस्मिल और अशफाक दोनों मौजूद थे. बिस्मिल ने अपनी शायरी शुरू की. उन्होंने अपना एक शेर पढ़ा –

“बहे बहरे-फना में जल्द या रब! लाश ‘बिस्मिल’ की।
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शमशीर कातिल की।।”

अशफाक को बिस्मिल का ये शेर काफी पसंद आया. उन्होंने “आमीन” कहा और अपने सबसे पसंदीदा शायर जिगर मुरादाबादी का एक शेर जवाब में पढ़ा…

“जिगर मैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारी कैफियत दिल की।।”

ठीक इसी तरह एक वाकया और भी है. पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के “सरफरोशी की तमन्ना” तो हर लोगों के जुबां पर रहता ही है, लेकिन इससे जुड़ा किस्सा भी कम मजेदार नहीं है. एक दिन अशफाक शाहजहाँपुर स्थित आर्य समाज मंदिर में बिस्मिल से मिलने किसी काम से आये थे. वहाँ टहलते हुए अशफाक ने जिगर मुरादाबादी की ये ग़ज़ल गुनगुनाई..

“कौन जाने ये तमन्ना इश्क की मंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।”
इस शेर पर बिस्मिल ने कुछ कहना चाहा लेकिन बस वो मुस्कुरा कर रह गये. अशफाक को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होमे बिस्मिल से पूछा, “भाई क्या मैंने कोई मिसरा गलत कह दिया क्या?”बिस्मिल ने हँसते हुए जवाब दिया, “अरे नहीं मेरे कृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं है. मैं भी जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगर उन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडा तीर मार लिया. कोई नयी रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता.”अशफाक इस बात से थोड़ा चिढ़ से गये. आखिर जिगर साहब उनके सबसे पसंदीदा शायर जो थे. उन्होंने बिस्मिल से चुनौती भरे स्वर में कहा, “तो राम भाई! अब आप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिब से भी परले दर्जे की है”.
बिस्मिल फिर से मुस्कुराने लगे. उसी वक़्त जवाब में उन्होंने ये शेर कहा,
“सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

देखना है जोर कितना बाजु-कातिल में है?”

शेर सुनते ही अशफाक उछल पड़े. उन्होंने बिस्मिल को गले से लगाया और कहा, “राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं…”

बिस्मिल और अशफाक दोनों ही कमाल के शायर थे, और सबसे मजेदार बात ये है कि दोनों की शायरी खूब मिलती भी है एक दुसरे से.दोनों में अक्सर होड़ सी लगी रहती थी एक से बढ़कर एक उम्दा शेर कहने की. दोनों एक दुसरे के शेर का जवाब भी शेर से ही दिया करते थे. देखा जाए तो दोनों के शेर लगभग एक ही सुर के होते थे. नीचे लिखे कुछ चंद मिसरे देखिये, आप खुद ब खुद जान जायेंगे कि दोनों के शेर और जज्बातों में एक ही रूप दीखता है..

राम प्रसाद बिस्मिल का बड़ा मशहूर शेर है –

“अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझते हैं।
मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?”

अशफाक की शायरी में भी देखिये वही रंग मौजूद है..

“मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?
वतन हमारा रहे शादकाम और आबाद,
हमारा क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे।।”

बिस्मिल का लिखा एक और शेर देखिये –

“तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसद से थी,
उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।”

और इसी पर अशफाक की शायरी –

“वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ! हाँ! उसी उजडे गुलिश्ताँ की।”

वतन की बर्बादी पर बिस्मिल और अशफाक के दर्द भी देखिये एक से नज़र आते हैं..

बिस्मिल – “गुलो-नसरीनो-सम्बुल की जगह अब खाक उडती है,
उजाडा हाय! किस कम्बख्त ने यह बोस्ताँ मेरा?”

अशफाक – “वो रंग अब कहाँ है नसरीनो-नसतरन में,
उजडा हुआ पडा है क्या खाक है वतन में?”

राम प्रसाद बिस्मिल की मशहूर ग़ज़ल “उम्मीदें सुखन” की ये पंक्तियाँ हैं जिसमें बिस्मिल कितनी शिद्दत से वतन की आज़ादी का सपना देखते हैं –

“कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्ताँ होगा।
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।”

उनका ये शेर अशफाक को बड़ा पसंद आया था. इसी बहर में उन्होंने अपनी अप्रकाशित डायरी में ये पंक्तियाँ लिखीं –

“बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।”

और अंत में चलते चलते, पढ़िए पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की ये कविता और बस महसूस कीजिये, समझिये  –

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर,
हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर ,
वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर,
गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर ,
तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को !

अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था,
रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था ,
किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था,
हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था ,
दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को !

अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है,
मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है ,
कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है,
कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है ,
मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को  !

नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके,
याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके ,
आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के,
और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके ,
पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को !

एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में,
अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें ,
सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में,
भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में ,
बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को !

सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं,
पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं ,
खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं!
खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं ,
जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को !

नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो,
खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो ,
देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो ,
फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो ,
देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को ?
– पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल 

Meri Baatein
Meri Baateinhttps://meribaatein.in
Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, २ महान क्रांतिकारियों की स्मृतियों को समर्पित ११ जून “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !

  2. वाह ! दो महान क्रांतिकारियों की देशभक्ति के जज्बे में डूबी हुई उम्दा शायरी पढ़वाने के लिए शुक्रिया..

  3. इन दोनों की गहरी दोस्ती का एक और बहुत प्यारा किस्सा है और मेरा पसंदीदा भी…किसी दिन सुन लेना हमसे…। कल सुबह तक हमको भी याद था ये दिन…और अफसोस की बात ये कि फिर ऐसा भूले कि आज सुबह याद आया…। अब अपने पर गुस्सा करूँ या शर्म, नहीं पता…लेकिन तुम्हारी इस पोस्ट ने आज मन बहुत बेहतर कर दिया…।
    अपने रियल हीरोज को नमन…।

  4. बहुत सुन्दर!दो क्रांतिकारियों की बेमिसाल दोस्ती और उनकी शेरो-शायरी. बस मुझे एक बात कहनी है. 10 वर्ष पूर्व तक मैं 'सरफ़रोशी की तमन्ना' नज़्म को पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की रचना समझता था किन्तु यह अब प्रमाणित हो चुका है कि यह नज़्म पटना निवासी बिस्मिल अज़ीमाबादी (पटना का एक नाम अज़ीमाबाद भी है) की है. यह नज़्म पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथी अक्सर गुनगुनाते थे.

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