सम मोस्ट इरिटेटिंग जर्नीज़

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मेरी पहली ट्रेन यात्रा कब हुई, ये तो याद भी नहीं, लेकिन लंबी दूरी की पहली ट्रेन यात्रा 2002 के मई महीने में हुई थी, जब मैं इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा देने पहली बार बैंगलोर गया था। ये मेरे लिए पहला ऐसा मौका था जब मुझे दो दिन ट्रेन में सफर करना पड़ा और सच पूछिए तो ये अनुभव मेरे लिए बड़ा ही अलग-सा और मनोरंजक रहा था। बाद में मेरा दाखिला भी कर्नाटक के एक कॉलेज में हुआ और फिर इंजीनियरिंग के बाद बैंगलोर में ही रहना हुआ। पहली बार बैंगलोर जाने से लेकर अब तक मुझे याद भी नहीं कितने दफा मैंने लंबी यात्राएं की होंगी। लेकिन अगर यादगार सफर याद करने बैठूं तो इन दस सालों में गिने-चुने दस-पंद्रह ही ऐसे सफर होंगे जो सच में यादगार थे। यादगार सफर की एक पोस्ट बहुत पहले लिखी थी। कुछ दिलचस्प वाकये और हैं जिन्हें जल्द ही लिखूंगा। बाकी सफर बड़े बोरिंग टाइप के थे, जिन्हें बोरिंग बनाने का पूरा श्रेय जाता है मेरे साथ सफर कर रहे आसपास के सह-यात्रियों को। स्लीपर से लेकर टू-ए.सी. तक, हर जगह हर टाइप के अजीबो-गरीब लोगों से सामना हुआ है मेरा। कभी-कभी तो मुझे ये भी लगता है कि कहीं रेलवे कर्मचारियों को मेरे से या मेरे नाम से कोई दुश्मनी तो नहीं… कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा नाम देखा नहीं लिस्ट में, तो मुझे एकदम बेकार से कम्पार्टमेंट में सीट दे दी। एक दफा जब मैं बैंगलोर से पटना आ रहा था तो सी-ऑफ करते वक्त मेरे दोस्त मनीष सर ने कहा मुझसे “जाओ ऐश करो, देखना आसपास अच्छी- अच्छी लड़कियां होंगी, सफर मजे से कटेगा”। मैंने उनसे कहा, इतना तो मुझे यकीन है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला, और आसपास बेकार किस्म के लोग ही मिलेंगे। मेरा वो यकीन सही निकला था।

यूँ तो ऐसे बहुत से वाकये हैं जब मैं ट्रेन-सफर में बुरी तरह इरिटेट हो चुका हूँ, लेकिन कुछ गिने-चुने सफर जो मुझे याद हैं, का यहाँ जिक्र कर रहा हूँ।

सीन : 1
दिल्ली टू पटना, गरीब रथ एक्सप्रेस
फरवरी 2012

मेरी रिजर्वेशन गरीब रथ से थी। और गरीबरथ में अब तक साइड में तीन बर्थ हैं (जिन्हें बहुत पहले सभी ट्रेनों से हटा दिया गया था)। मैंने अपने बर्थ-प्रेफरेंस में साइड लोअर दे रखा था। जब अपने सीट पे पहुंचा तो देखा कि कम्पार्टमेंट में आठ के बजाए नौ बर्थ हैं और मेरा बर्थ नंबर साइड लोअर न हो कर साइड मिडिल है। मैं परेशान हो गया, ये साइड मिडिल सबसे बेकार सीट होती है। बुझे मन से अपने सीट पे जाकर बैठ गया। कुछ देर बाद किसी से सुना कि सबके सीटिंग अरेंजमेंट बदल गए हैं। मैंने जल्दी से बाहर जाकर लिस्ट में अपना पी.एन.आर चेक किया। देखा तो दिल खुश हो गया, मेरी भी सीट दूसरे कम्पार्टमेंट में कर दी गयी थी, और वो लोअर सीट थी। मैं जाकर अपने सीट पे बैठ गया। आसपास अच्छे-अच्छे लोग दिख रहे थे।

कुछ देर बाद एक महाशय अपनी माँ को छोड़ने आए। उन्हें कहा गया कि भाई-साहब, सीटिंग अरेंजमेंट बदल गयी है, आप अपना नाम लिस्ट में जाकर देख लीजिए। बस ये कहना था और इस छोटी सी बात पर आग-बबूला हो गए। कहने लगे कि लिस्ट से क्या होता है, मेरे टिकट पर जो बर्थ अलॉटेड है उसी पे बैठेंगे। एक व्यक्ति ने बड़े विनम्रता से उनसे कहा कि भाई-साहब, आप तो अपनी माँ को छोड़ने यहाँ आए हैं, और बाद में टी-टी अगर आया और इन्हें सीट बदलने को कहा तो इन्हें ही कष्ट होगा, बेहतर है कि आप जाकर लिस्ट में नाम देख ही लें। महाशय अब बिलकुल क्रोधित हो गए थे और चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे, टी-टी के कहने से क्या होता है, ये यहीं बैठेंगी, टिकट पर जो बर्थ अलॉटेड है उसी पर। किसी ने आगे महाशय से बहस नहीं की। पास बैठे एक सह-यात्री ने मुझसे कहा, देखिए इन्हीं जैसे पढ़े-लिखे इल-मैनर्ड बिहारी लोगों के कारण बाकी लोग बदनाम होते हैं। अंत में जब टी-टी आया तो महाशय की माँ को सीट बदलनी ही पड़ी और उनका सामान दूसरे बर्थ पे पहुँचाने में भी उन्हीं सज्जन ने मदद की, जिनसे वो महाशय उलझ गए थे।

इसी एक वाकये के वजह से मेरा ये पोस्ट लिखने का मन उसी समय बना था।

सीन : 2
कर्नाटका एक्सप्रेस, बैंगलोर टू न्यू दिल्ली
जनवरी 2010

मैं अपनी बहन के साथ घर जा रहा था। सामान काफी था हमारे पास, तो राहुल और मनीष सर हमें सी-ऑफ करने स्टेशन आए हुए थे। मनीष सर ने रिजर्वेशन लिस्ट देखा और कहा, देखो F25 और F27 है तुम्हारे आसपास, जाओ जाकर मजे करो। मजा काहे का, हमारी दो सीट थीं और बाकी की सीट पूरी एक फैमिली की थी। पूरे रास्ते इतना शोर मचाया उन लोगों ने कि दो-तीन दफे टी-टी को आकर उन्हें शांत रहने को कहना पड़ा। पूरे कम्पार्टमेंट को तो उन लोगों ने कचरे का डिब्बा बना दिया था, और चीज़ें ऐसे फैलाए हुए थे कि नीचे बर्थ पे बैठना नामुमकिन था। मेरी बहन और मेरी सीट दोनों ऊपर वाली थीं। हम दोनों दिल्ली पहुँचने तक अपने अपर-बर्थ पे ही रहे। दिल्ली पहुँचते ही मेरी बहन ने कहा, इन्हीं सब जैसे लोगों के कारण मुझे अब दिल्ली और यहाँ के लोग पसंद नहीं आते।

सीन : 3
राजधानी एक्सप्रेस, न्यू दिल्ली टू बैंगलोर
नवंबर 2011

निजामुद्दीन स्टेशन से बैंगलोर के लिए राजधानी एक्सप्रेस करीब सात घंटे लेट थी। कम्पार्टमेंट में किसी कॉलेज के छात्र-छात्राएं भरे हुए थे। शायद किसी ट्रिप पे बैंगलोर जा रहे थे। सबने अपनी तरह-तरह की फरमाईशों से राजधानी के सभी स्टाफों के नाक में दम कर दिया। एक-एक व्यक्ति जबरदस्ती तीन-तीन आइसक्रीम के लिए स्टाफ से बहस करने लगे। उनके साथ एक व्यक्ति भी सफर कर रहे थे। देखने से बड़े भले परिवार के लग रहे थे, वो इन बच्चों को रोकने और डांटने के बजाय, खुद तरह-तरह की फरमाईश कर रहे थे। सुबह के नाश्ते से लेकर टोमाटो सूप से डिनर तक, हर चीज़ में इन्हें एक्स्ट्रा चाहिए होता था। हद से ज्यादा हंगामा किए हुए थे। किस्मत से मेरी साइड वाली बर्थ थी, तो मैं पूरे रास्ते हेडफोन लगा कर लैपटॉप पे फिल्में देखता रहा। जब अंत में स्टाफ बख्शीश मांगने आए, तो उन्होंने यह कह के भगा दिया, की सर्विस तो अच्छी देते नहीं और बख्शीश चाहिए।

सीन : 4
सिकंदराबाद से हावड़ा, फलकनुमा एक्सप्रेस
2005

बहुत से मित्र एक साथ सफर कर रहे थे। मेरी सीट बोगी के पहले कम्पार्टमेंट में ही थी। सामने एक नव-विवाहित जोड़ी बैठे हुए थे। पूरे रास्ते वो अपने प्यार को पब्लिकली बेशर्मों की तरह दिखाते रहे। मेरे बाकी साथियों की सीट अलग-अलग कम्पार्टमेंट और अलग-अलग डिब्बों में थी, लेकिन वो सभी इन दो कपल के प्रेम-सीन को देखने गेट पे जमा हो जाते थे। साइड वाले बर्थ पे एक परिवार भी था, और वो भी दोनों के इस तरह के बर्ताव से बड़ा अनकंफर्टेबल महसूस कर रहा था। दूसरे कॉलेज के लड़के भी उसी ट्रेन से सफर कर रहे थे, और आते-जाते कुछ न कुछ कमेन्ट ठोक के ही जाते थे, लेकिन फिर भी दोनों मियां-बीबी को कुछ फर्क नहीं पड़ा और पूरे रास्ते उनका पब्लिक-रोमांस चलता रहा, जो बाद में अपनी हदें कुछ ज्यादा ही पार कर चुका था।

सीन : 5
पटना से सिकंदराबाद

उन दिनों अमूमन मैं अपने कॉलेज के साथियों के साथ ही सफर करता था, लेकिन घर पे कुछ जरूरी काम से मुझे अकेले पटना जाना पड़ा था। मैं स्लीपर क्लास में सफर कर रहा था। सामने दो व्यक्ति बैठे थे। दोनों हैदराबाद के किसी कंपनी में काम करते थे और संभवतः दोनों ही कंप्यूटर इंजीनियर थे। दोनों ने पता नहीं किस कॉलेज से और कैसी किताबों से कंप्यूटर पढ़ा था। पूरे रास्ते वो अपने अजीबो-गरीब थियोरी एक-दूसरे के सामने रख रहे थे। कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर अगर कोई गलत बात होती है तो वो बातें मेरे से बिल्कुल बर्दाश्त नहीं होती। उनमें से एक विषय कंप्यूटर है और दूसरा फिल्में। ऐसा नहीं कि मैं इन दोनों विषयों में कोई बहुत बड़ा एक्सपर्ट हूँ, बस यह कि बिना लॉजिक की बातें मुझसे बर्दाश्त नहीं होतीं। कुछ देर में उन्होंने फिल्मों का भी जिक्र कर दिया और उनकी बातें इस तरह से बेमतलब और बेफिजूल होने लगीं कि मैं चुपचाप अपने साइड अपर वाले बर्थ पे जाकर सो गया। फिर भी कानों में उनकी फालतू की बकवास सुनाई दे जाती थी, और मैं यही प्रार्थना करता था कि कब ये सफर खत्म हो और इन दोनों की बकवास से मुझे आज़ादी मिले।

सीन : 6
पटना से न्यू दिल्ली, विक्रमशिला एक्सप्रेस
2011

विक्रमशिला एक्सप्रेस दो घंटे लेट थी। और एक महाशय, जो कि पूरे रास्ते आसपास वाले लोगों में अपनी बड़ी-बड़ी पहचान और पहुँच का रौब झाड़ते रहे, वो ट्रेन के दो घंटे लेट हो जाने से इस तरह बौखला गए कि देश की उनके लिए जनसंख्या से लेकर भ्रष्टाचार तक, हर कुछ का जिम्मेदार यह विक्रमशिला एक्सप्रेस और उसके सभी कर्मचारी हो गए। ट्रेन की चाय का दाम पांच रुपया है, यह सभी जानते हैं लेकिन वो महाशय तीन रुपये की चाय पीना चाहते थे और बस इस छोटी सी बात की वजह से पूरे पैंट्री कार वालों से दो घंटे बहस करते रहे। जब रात में खाना आया तो उसपे बहस अलग से। हद तो तब हो गई जब उन्होंने अटेंडेंट से एक एक्स्ट्रा तकिया माँगा और उसने कहा कि अभी कोई भी एक्स्ट्रा तकिया उपलब्ध नहीं है। फिर क्या था, महाशय जी दो घंटे तक जोर-जोर से उस अटेंडेंट से बहस करते रहे, टी-टी से लेकर पैंट्री कार वाले, सभी उन्हें शांत कराने की कोशिश कर रहे थे, अटेंडेंट बेचारा दूसरे बोगी से उन्हें एक एक्स्ट्रा तकिया लाकर दिया भी, लेकिन फिर भी महाशय जी शांत नहीं हुए। दो घंटे पूरे बोगी को बेतरह परेशान करने के बाद भुनभुनाते हुए अपने बर्थ पे चले गए और खर्राटे लेकर सो गए। सुबह फिर से उनका नाटक शुरू, और बाकी सभी परेशान।

सीन : 7
हावड़ा से पटना, दानापुर-हावड़ा एक्सप्रेस

दरअसल यह सफर इरिटेटिंग कम और मनोरंजक ज्यादा था। अब याद करता हूँ तो हंसी ही आती है, लेकिन सफर में मैं बुरी तरह चिढ़ गया था, अपने एक अच्छे दोस्त सौरभ बाबू के ही बर्ताव से, और सफर को इरिटेटिंग बनाने का पूरा श्रेय उसी को जाता है। हम पहले फलकनुमा एक्सप्रेस से हावड़ा तक आए। फलकनुमा में एक सुंदर सी लड़की थी, जिस पर मेरे सभी दोस्तों का दिल आ गया था। दानापुर-हावड़ा एक्सप्रेस में उस लड़की का सीट ठीक हमारे सामने वाला था। सौरभ बाबू के खुशी का तो ठिकाना भी नहीं था। वह लड़की अपने पिता के साथ सफर कर रही थी, और पता नहीं सौरभ बाबू का कौन सा जादू चला कि वह लड़की भी सौरभ के तरफ आकर्षित हो गई। दोनों लोअर बर्थ लड़की और उसके पिता का था। दोनों आमने-सामने थे। लड़की के ठीक ऊपर वाले मिडल बर्थ पर सौरभ बाबू थे, और उसके ऊपर वाले बर्थ पे था अकरम। मैं अकरम के सामने वाले अपर बर्थ पे था। जब सब सो चुके थे तब सौरभ बाबू और उस लड़की की बात, जो पहले आँखों और इशारों से शुरू हुई, वह इतनी बढ़ चुकी थी कि दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए थे। मेरी हालत ऐसी कि कभी मैं इन दोनों को देखता तो कभी लड़की के पिता को, जो गहरी नींद में सोए हुए थे। मैंने दो बार सौरभ को इशारों से कहा, ठीक से रहो, लेकिन वह कहाँ सुनने वाला था। अकरम ने मुझसे कहा, रहने दो यार वह पागल हो गया है, खुद भी पिटेगा, हमें भी पिटवाएगा। पूरी रात उन दोनों का यह एंगल चलता रहा। मुझे सबसे बड़ी चिंता थी कि कहीं लड़की के पिता जाग जाएंगे तो क्या होगा। रात भी बहुत हो गई थी और आखिरकार मैंने फैसला किया, कि अगर लड़की के पिता जाग गए और सौरभ बाबू को लगे पीटने, तो मैं भी ऊपर से दो-तीन हाथ जमा के कहूँगा – ट्रेन में लड़की पटाता है, नालायक। लेकिन सौरभ बाबू की किस्मत अच्छी थी, ऐसा कुछ हुआ नहीं… हाँ, अकरम इतना इरिटेट जरूर हो गया था कि उसी वक्त ऊपर से उसने एक लात सौरभ बाबू को दे मारा और कहा, थोड़ा ढंग से रहो।

Meri Baatein
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  1. यार इस तरह के हादसे तो लगभग हर किसी के साथ होते रहते है , मेरे साथ भी हुए है … पर माफ़ करना इतनी अच्छी तरह से याद कुछ भी नहीं सो सिर्फ़ तुम्हारे ही अनुभव पढ़ का मज़े ले लिए !

  2. many such irritating incidents, in fact, similar ones, have been experienced by me too while I used to travel from jamshedpur to varanasi… through the six years of my graduation and post graduation studies @ B.H.U.

    It is the same as life is… 'a long headache in a noisy street', which is only, at times, interspersed with melodies!

  3. कुछ खट्टे कुछ मीठे अनुभव …….रोचक ढंग से लिख डाले सारे वाकये…..

  4. रेलवे के साथ गहरा सम्बन्ध होते हुए और इतने रेल के सफर में इतने सारे वाकये हैं कि कया कहें.. दरअसल ट्रेन का डिब्बा अपने आप में एक पूरी दुनिया होता है और इसमें भांति-भांति के लोग पाए जाते हैं.. घटनाएं जो तुमने लिखी हैं वो कमोबेश हमारे साथ भी हुई हैं, लेकिन "कहते हैं कि अभिषेक है अंदाजेबयां और"…
    मगर एक बात नहीं समझ में आया.. इस पोस्ट का शीर्षक होना चाहिए था "सम मोस्ट इरिटेटिंग जर्नीज़"!! मगर कोई बात नहीं, दिल खुश हो गया, सारा सीन आँख के सामने आ गया!! जीते रहो!!

  5. कुछ खास ही नहीं बेहद खास है तुम्हारा यात्रा-रिपोतार्ज .. मुस्कराहट रुक ही नहीं रही है ..क्या प्रार्थना करूँ तुम्हारे लिए..हाँ! इससे भी मजेदार वाकया होता रहे ताकि हमें भी मजा आये..

  6. भाई असली जीवन ट्रेन के अन्दर ही है ! मै तो रोज जुड़ा हूँ और यात्राओ के समय और भी रोचक हो जाता है , जब कोई यह जान जाते है की मै लोको पायलट का कार्य करता हूँ ! तरह – तरह के प्रश्न और अजूबे आन्नद ! बेहद सुन्दर जी !

  7. घुमक्कडी में वाकये तो ऐसे बहुत होते हैं पर तुम्हारी तरह याद नहीं रहते.:(.

  8. अभिषेक जी आपके यात्रा-संस्मरण रोचक व जाने पहचाने से हैं । मैं भी साल में दो-तीन बार बैंगलोर जाती हूँ और हर बार नए कभी कभी कुछ खास अनुभव होते हैं । एक-दो लिखे भी हैं पर एक मैं भी यहाँ आपके साथ बाँट रही हूँ ।वैसे मुझे यात्रा करना कभी उबाऊ नही लगता लेकिन एक बार जब मैं बैंगलोर से ग्वालियर लौट रही थी ऐसा पहली बार हुआ जब पूरे कोच में एक भी हिन्दी-भाषी नही था । पूरे छत्तीस घंटे मैं या तो किताबें पढती रही या बच्चों से बातें करती रही । पर सबके बीच ऐसा करना भी कितना कठिन रहा होगा ।

  9. अगली बार बंगलोर से जाते समय इस पक्ष का विशेष ध्यान रखा जायेगा। हमारे अनुभव बड़े रोचक होते हैं, अगली बार आप हमारे साथ चलियेगा, आपको अभी बहुत सीखना है श्रीमानजी।

  10. @प्रवीण भैया..

    "अगली बार आप हमारे साथ चलियेगा, आपको अभी बहुत सीखना है श्रीमानजी।"

    आपकी ऐसी बातें बड़ी Doubtful होती हैं, मुझे बड़ा डर सा लगता है 😛

  11. प्रवीण जी के ब्लॉग से यहाँ तक पहुंचे …कभी- कभी ऐसी यात्रायें भी होती है ….
    रोचक वर्णन !

  12. रेल यात्रा संस्मरण समग्र -कब होगी विमोचित यह पुस्तक ? मुझे प्रतीक्षा रहेगी! 🙂 सच्ची !

  13. क्या बात है। यात्राओं के अनुभव तो हमेशा मजेदार होते हैं। 🙂

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