पन्द्रह अगस्त और कुछ यादें, बातें मेरी – नास्टैल्जिया

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पंद्रह अगस्त…जाने क्या क्या यादें जुड़ी हैं इस एक दिन से. ये दिन सच में ख़ास होता है, मन का मौसम चाहे कैसा भी रहे, आज के दिन मन हमेशा खुश ही रहा है, वजह भी होती है. हमारे आज़ादी के जश्न का दिन होता है तो मन का खुश रहना लाजमी है. हाँ, आसपास कुछ ‘जीनियस’ किस्म के लोग होते हैं जो आज का दिन मनाने में संकोच करते हैं, जिन्हें आज के ही दिन तमाम खामियां नज़र आने लगती है देश की. लेकिन मेरे लिए और मेरे जैसे सैकड़ो भारतवासियों के लिए आज का दिन किसी पर्व से कम नहीं.याद नहीं आता कब से शुरू हुआ है ये, लेकिन जब से याद है पंद्रह अगस्त की मेरी सुबह हमेशा पूजा से शुरू हुई है. दिन पूरा किसी जश्न से कम कभी नहीं रहा. जब तक पटना में रहा, लगता था पंद्रह अगस्त कोई ख़ास एक दिन है. जश्न मना रहे हैं सब…आज़ादी का पर्व मन रहे हैं. सुबह जब से आँख खुलती थी दिन कुछ ख़ास लगने लगता था. बाहर सड़कों पर निकलो तो सभी बच्चे स्कूल जाते दीखते, हाथ में तिरंगा लिए. सड़कों किनारे झंडे बिकते रहते, स्कूल के कैम्पस को सजाया संवारा जाता पंद्रह अगस्त के मौके पर…झंडारोहण  होता, और फिर सांस्कृतिक कार्यक्रम और कागज़ के ठोंगे में मिली जलेबी, लड्डू, बुन्दिया, सिंघाड़, कचौड़ी और सेव. पंद्रह अगस्त सच में कोई उत्सव लगता था. सड़कों से निकलो तो आसपास लाउडस्पीकर्स से देशभक्ति के  गाने बजने की आवाज़ आती..मिठाई के दुकानों पर लम्बी कतार दिखती, हलवाई सुबह से ही अपने दुकान में जलेबियाँ छानने लगता और लोग खरीदने के लिए कतार में लग जाते. इतनी चहल पहल रहती सड़कों पर, माहौल ऐसा होता था की लगता था कोई उत्सव  है आज. पटना से जब इंजीनियरिंग करने के लिए बसव्कल्याण आया था, तो मुझे खासकर दो दिन, पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन पटना की कमी बड़ी खलती थी, वहां ये पंद्रह अगस्त आम दिन के तरह ही होता, बैंगलोर जाने के बाद भी और दिल्ली आने के बाद भी ये कमी मुझे हर जगह खली. यहाँ पंद्रह अगस्त सड़कों पर कम और मॉल वागैरह में ज्यादा दीखता है, जहाँ पंद्रह अगस्त के मौके पर पूरे मॉल को सजाया जाता है, लेकिन मॉल के बाहर सब शांत. बैंगलोर या दिल्ली की बात क्या करूँ, दो तीन साल पहले पंद्रह अगस्त पर पटना में था. मुझे पटना भी पहले के मुकाबले बड़ा शांत शांत सा लगा. शायद बदलते समय का असर हो, हाँ जलेबियाँ कचौड़ी के दुकानों पर अब भी वैसी ही भीड़ दिखती है जैसे पहले दिखती थी.

मेरे लिए सबसे ख़ास पंद्रह अगस्त तब रहा जब मैं नवीं  क्लास में था. वो ख़ास पंद्रह अगस्त सिर्फ इस वजह से रहा है कि मैं पहली बार स्कूल में स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम में शामिल हुआ था. उसकी एक वजह भी थी. मेरी शुरूआती पढ़ाई, सातवीं क्लास तक संत कैरेंस स्कूल में हुई थी. वहां कभी पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी मनाया नहीं गया. हमेशा  हमारी छुट्टी होती थी, जब भी सुनता था मोहल्ले के दोस्तों से कि वो स्कूल गए थे पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम में तो मेरा हमेशा बड़ा मन करता था कि मैं भी जाऊं वैसे कोई कार्यक्रम में. बड़ा गुस्सा भी आता था स्कूल वालों पर कि वो क्यों स्कूल में पंद्रह अगस्त सेलिब्रेट नहीं करते. आठवीं क्लास में मेरा दाखिला पटना सेन्ट्रल स्कूल में हुआ था. यहाँ पंद्रह अगस्त और छबीस जनवरी दोनों सेलिब्रेट किये जाते थे, बाकायदा झंडारोहण और प्रोग्राम होता था. मुझे आज भी याद है, आठवीं क्लास में पंद्रह अगस्त के कार्यक्रम में मैं  भाग नहीं ले पाया था, लेकिन नवीं  क्लास में मैं पंद्रह अगस्त के दिन स्कूल गया था. बड़ा खुश था मैं स्कूल जाकर उस दिन. उसके बाद से लेकर हर साल पंद्रह अगस्त, (नवीं  दसवीं और ग्यारहवीं-बारहवीं क्लास) में हर कार्यक्रम में स्कूल जाता रहा था. दसवीं में तो मुझे याद है, अपने स्कूल के कार्यक्रम में तो गया ही था, साथ ही साथ मेरे स्कूल के पास जो एक दूसरा स्कूल था, उसका कार्यक्रम देखने के लिए वहां भी चला गया था, अपने स्कूल से नाश्ते  के पैकेट तो मिले थे ही, उस स्कूल से भी दो तीन  नाश्ते के पैकेट हमने उड़ा लिए थे. हाँ, स्कूल का नाश्ता  खासकर पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के दिन ख़ास होता था. कागज़ के ठोंगे में जलेबी समोसा सेव कचौड़ी और लड्डू और कभी कभी आलू चौप भी मिलते थे. हम अपना नाश्ता  तो लेते ही थे, घर के लिए भी एक दो पैकेट चुपके से बैग में रख लिया करते थे.

सच में क्या दिन थे वो. याद है मुझे, हर पंद्रह अगस्त के दिन मेरे कुछ कार्यक्रम तय होते थे. जाने कब से, शायद दसवीं क्लास में रहा हूँगा तब से ही, एक आदत बन गयी थी. पंद्रह अगस्त के दिन अपने दोस्त प्रभात के घर जाना और उसके टेपरिकॉर्डर पर गाने सुनना. खासकर देशभक्ति गीत. शाम में अपने तीन दोस्त दिव्या, सुदीप और शिखा से मिलना. २००२ और २००३ का पंद्रह अगस्त ख़ासतौर से इसलिए भी याद है कि मेरी दोस्त दिव्या ने अपने घर पर ही सब दोस्तों को बुलाया था. उसके घर के छत पर हम सब जमा हुए थे,  और छोटा सा कार्यक्रम हम सब दोस्तों  ने मिलकर किया था जिसमें दिव्या के मोहल्ले के भी उसके कुछ दोस्त शामिल थे. मुझे आज भी पंद्रह अगस्त पर कोई और फ़ोन करे न करे, कोई और बात करे न करे, ये दो दोस्त.. दिव्या और प्रभात जरूर फोन करते हैं, और अगर किसी कारणवश ये कॉल न कर पाए तो मैं ही इनसे बात कर लिया करता हूँ.

आज सुबह एक मेसेज व्हाट्सएप  पर आया – ‘अपनी प्रोफाइल में तिरंगा लगाओ न लगाओ लेकिन सोलह अगस्त की सुबह रास्ते पर पड़ा तिरंगा जरूर उठा लो’. ये एक वाकई अच्छा सन्देश है. इस सन्देश को आज सुबह व्हाट्सएप में देखते ही मुझे दो वाकये याद आ गए. पहला २००३ के पंद्रह अगस्त की बात, हम दिव्या के घर पर ही पंद्रह अगस्त सेलिब्रेट कर रहे थे. शाम का समय था, हमारा छोटा कार्यक्रम खत्म हो गया था. सब लोग वापस घर जा रहे थे. हम भी अपने घर के लिए निकल रहे थे. दिव्या गेट तक हमें छोड़ने आई. उसकी नज़र सड़क पर गयी…सड़कों पर कुछ झंडे बिखरे पड़े थे. दिव्या  बिना कुछ इंतजार किये झंडों को सड़क से उठाने लगी. दिव्या के चाचा वहीँ खड़े थे, वो थोड़ा डांटे भी, क्यों हाथ गंदे कर रही हो. लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया उनकी बातों का. दिव्या को देखकर हम चारो दोस्त सड़क से झंडे उठाने लगे थे. दिव्या की उस पहल का असर ये हुआ था कि सुदीप और मैं जब वापस आ रहे थे, तो जितने भी झंडे दिखाई दे रहे थे हमें हम सड़कों से उन्हें उठाते चल रहे थे. दूसरा वाकया भी इसी तरह का है जब मैं अपने पूरे परिवार के साथ वाघा बॉर्डर गया था. वहां बीटिंग रिट्रीट का समारोह देखने हम गए थे. जितने दर्शक थे वहां सभी हाथों में तिरंगा लहरा रहे थे. समारोह तो शानदार था, और बेहद यादगार. लेकिन समारोह के बाद लोग जब वापस गए तो उसी तिरंगे को जिसे वो गर्व से कुछ देर पहले हाथों में लिए लहरा रहे थे, उसे ज़मीन पर इधर उधर फेंक कर चले गए. मेरी बहन मोना ने ये जैसे ही देखा वो सड़क पर बिखरे तिरंगों को हाथों से उठाने लगी. जितना संभव हो सका उसने उठा लिए. ये दोनों वाकये मेरे लिए काफी इंस्पायरिंग  रहे हैं.

ऐसी यादें इस दिन की जाने कितनी हैं, लेकिन इन यादों और बातों के साथ एक दूसरी बात भी है जो मन को थोड़ी खटकती है, आज के दिन हमारे देशवासियों की ये प्रथा रही है कि देशभक्ति गाना सुनेंगे, देशभक्ति फ़िल्में देखेंगे, फेसबुक ट्विटर पर देशभक्ति से जुड़े स्टेट्स अपडेट करेंगे और अगले ही दिन सब भूल जायेंगे. फिर अगर देशभक्ति याद आई भी तो छब्बीस जनवरी के दिन या पन्द्रह अगस्त के दिन. भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, चन्द्रशेखर आजाद, उधम सिंह,राम प्रसाद बिस्मिल जैसे नाम तो आमतौर पे हम लोग को पन्द्रह अगस्त ओर छब्बीस जनवरी के दिन ही याद आते हैं, बाकी दिन तो हम इन्हें भूले रहते हैं.दोस्तों, आज का दिन तो सेलिब्रेट करना ही चाहिए और वो भी पूरे मन से, लेकिन साथ ही साथ अपने देशभक्ति को बस एक दिन तक सीमित न रखें. हमें तो चाहिए कि नयी पीढ़ी जो हमारे महान नायकों जैसे बाल गंगाधर तिलक, उधम सिंह, बटुकेश्वर दत्त,राम प्रसाद बिस्मिल के बारे में बहुत कम जानते हैं या फिर जानते ही नहीं उन्हें इनके बारे में बताएं. हमारी आज़ादी का महत्व  खुद हम समझेंगे तभी हम अपने आने वाली पीढ़ी को भी इसका महत्व समझा पायेंगे. सिर्फ देशभक्ति गाने सुने ही न बल्कि उन्हें महसूस करें. और ज्यादा बड़ी बड़ी बातें मैं नहीं करूँगा, लेकिन बस इतना कहना जरूर है कि ये अपने देश पर और हमें मिली आज़ादी पर हमें गर्व करना चाहिए. इसका महत्व समझना चाहिए. ये आज़ादी बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है हमारी, हमारे महान नायकों ने जिस तरह के भारत का सपना देखा है उसे पूरा करना ही शायद सबसे बड़ीश्रद्धांजलि होगी उन लोगों को जिन्होंने आज़ादी के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए.

आज के दिन कवि  प्रदीप का लिखा और लता मंगेशकर का गया वही गीत फिर से सुना रहा हूँ, जो हम हर साल गुनगुनाते हैं. महसूस कीजिये –

ऐ मेरे वतन के लोगों , तुम खूब लगा लो नारा
ये शुभ दिन है हम सब का , लहरा लो तिरंगा प्यारा
पर मत भूलो सीमा पर, वीरों ने है प्राण गँवाए
कुछ याद उन्हें भी कर लो
जो लौट के घर न आये…

ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आँख में भर लो पानी
जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुरबानी

जब घायल हुआ हिमालय , खतरे में पड़ी आज़ादी
जब तक थी साँस लड़े वो ,फिर अपनी लाश बिछा दी
संगीन पे धर कर माथा, सो गये अमर बलिदानी
जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुरबानी

जब देश में थी दीवाली , वो खेल रहे थे होली
जब हम बैठे थे घरों में, वो झेल रहे थे गोली
थे धन्य जवान वो आपने, थी धन्य वो उनकी जवानी
जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुरबानी

कोई सिख कोई जाट मराठा, कोई गुरखा कोई मदरासी
सरहद पर मरनेवाला, हर वीर था भारतवासी
जो खून गिरा पर्वत  पर, वो खून था हिंदुस्तानी
जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुरबानी

थी खून से लथ-पथ काया, फिर भी बन्दूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा, फिर गिर गये होश गँवा के
जब अन्त-समय आया तो, कह गये के अब मरते हैं
खुश रहना देश के प्यारों, अब हम तो सफ़र करते हैं
क्या लोग थे वो दीवाने, क्या लोग थे वो अभिमानी
जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुरबानी

तुम भूल न जाओ उनको , इस लिये कही ये कहानी
जो शहीद हुए हैं उनकी , ज़रा याद करो क़ुरबानी

जय हिन्द… जय हिन्द की सेना
जय हिन्द… जय हिन्द की सेना
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द !!

Meri Baatein
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Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. 'अपनी प्रोफाइल में तिरंगा लगाओ न लगाओ लेकिन सोलह अगस्त की सुबह रास्ते पर पड़ा तिरंगा जरूर उठा लो'
    सुन्दर सन्देश…

    खूब लिखा है यादों को… स्मृतियाँ संचित रहे… !!

    जय हिन्द!

  2. बाल-सुलभ उत्सवप्रियता, छोटी छोटी प्रेरणायें, बड़े बड़े प्रण, उर उन सबसे आगे वे अग्रज जुझारू देशप्रेमी जिनके कारण आज हमारी स्वतन्त्रता संभव हुई, इन सबको नमन। जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द!

  3. जिन्हें संकोच होता है , शर्म आती है उन्हें एक तरफ हटाओ और आजीवन इस दिन के लिये ऐसा ही भाव रखो . बहुत ही प्यारा संंस्मरण है .

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