दिल्ली में हूँ और गर्मियां शुरू हो गयी हैं…कई सालों बाद मैं उत्तर भारत की गर्मी को अनुभव कर रहा हूँ..पिछले आठ-नौ सालों से कर्नाटक में रहने के कारण उत्तर भारत की गर्मियों से पाला ही नहीं पड़ा। वैसे कर्नाटक में भी गर्मी अच्छी खासी पड़ती है, लेकिन इधर से बिलकुल अलग। वैसे मुझे गर्मियों से कोई खास प्यार नहीं है, और ना तो कोई खास नफरत लेकिन गर्मियों के मौसम में अपने बचपन के बिताए दिनों की याद आती है। थोड़ा नॉस्टैल्जिक सा मौसम होता है ये मेरे लिए। गर्मियों की याद सिर्फ और सिर्फ मेरे बचपन की ही है, क्यूंकि पटना से बाहर जाने के बाद शायद ही ऐसी कोई गर्मियों के दिन हों जिसका जिक्र यहाँ किया जा सके।
बचपन के गर्मियों की बात ही कुछ और थी, वो बात अब कहाँ..गर्मियों की सुनसान दोपहर में स्कूल से आने के बाद हम लोग कान लगाये रहते थे कि कब आईस-क्रीम वाले की आवाज़ सुनाई दे..और फिर जैसे ही दोपहर या शाम को गली से आईस-क्रीम वाले की ‘ढप-ढप’ या आवाज़ सुनाई देती तो बस हमारे अंदर आईस-क्रीम खाने की इच्छा कुलबुलाने लगती और घरवालों से कितना रिक्वेस्ट वगैरह करने के बाद हमारी आइसक्रीम खाने की इच्छा पूरी होती थी। उन्हीं दिनों एक नयी तरह की आईसक्रीम (कुल्फी) पटना में बिकनी शुरू हुई (या शायद पहले से बिकती हो), मटका-कुल्फी। ये हम बच्चों के लिए एकदम नये तरह का आईसक्रीम था (हमने कभी इसे कुल्फी कहा ही नहीं बल्कि हमेशा पीला वाला आइसक्रीम ही कहा)। कुल्फी वाले भैया अपने ठेले से कुल्फी निकालते जो कि एक ग्लास जैसे बर्तन में रहता और फिर चाक़ू से उसे चार भाग में काट कर एक स्टिक लगा कर चार अलग कुल्फियां निकालते। हम ये सब उन दिनों बड़े हैरत से देखते और बड़ा अच्छा लगता था इस तरह से कुल्फी को काट कर निकलते देखना। मटका-कुल्फी के आने से हमारी आईसक्रीम खाने की रिक्वेस्ट जल्दी पूरी हो जाती थी, क्यूंकि घरवालों भी खाते थे मटका-कुल्फी। वैसे हमारी रिक्वेस्ट को घरवालों कभी कभी ये समझा कर टाल भी देते थे कि ज्यादा आईस-क्रीम खाना सेहत के लिए अच्छा नहीं। हम तो बच्चे थे, बड़ों की चिकनी चुपड़ी बातों में आसानी से आ जाते थे। उस समय ये सोचते थे कि जब बड़े होंगे तो आईस-क्रीम खाने के लिए कम से कम इतना रिक्वेस्ट तो किसी से नहीं करना पड़ेगा..और अब देखिये कि जब कभी भी, कहीं भी आईस-क्रीम खा सकते हैं, तो वो बचपन याद आता है जब आईसक्रीम खाने के लिए कितनी मिन्नतें और नाटक करनी पड़ती थी।
जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ और स्कूल में गर्मियों की छुट्टी होती थी तो दूरदर्शन पे बहुत सारे बच्चों के कार्यक्रम आते थे, जो कि मुझे बहुत पसंद थे..’गायब-आया’ टाइप्स सिरियल मैं बड़े चाव से देखता था। गर्मियों की छुट्टी में मेरा एक और काम होता था, अपना पुराना ‘मर्फी’ का टू-इन-वन ठीक करना। मैं पुराने पुराने कैसेट निकालता, उन्हें साफ करता और फिर टू-इन-वन में लगाकर टेस्ट करता। उन दिनों मैं छोटा था, और शायद आठवीं या नवमी क्लास में पढ़ता था, लेकिन टू-इन-वन के हर टेक्नीकल भाग की जानकारी थी। 1999-2000 की गर्मियां भी मेरे लिए खास रहीं, इन दिनों बहुत से नए दोस्त बने, बहुत कुछ सीखा मैंने और ये मेरे सबसे अच्छे दिनों में से थे। निन्यानवे की गर्मियों में ही मेरे घर में मेरा एक नया दोस्त आया। मेरा नया बी.पी.एक का टू-इन-वन स्टीरेओ। इस स्टीरेओ पर न जाने कितने नए-पुराने गाने और ग़ज़लें सुने मैंने। बाद के सालों की कोई गर्मियों वाले दिन यादगार रहे, ये याद नहीं आता।
गर्मियों के दिन की एक खास बात और थी..गर्मियों में छुट्टी के दिन अक्सर सुबह सुबह ही आसपास के सारे भैया मैदान में क्रिकेट खेलने पहुँच जाते थे, और पीछे पीछे दौड़ते हुए हम भी वहाँ क्रिकेट खेलने पहुँच जाते थे। गर्मियों के शाम की भी अच्छी बात ये रहती थी कि हम देर तक क्रिकेट खेल सकते थे। उन दिनों मैं था तो बच्चा ही, तो एक बच्चों वाला बेतुका और बेवकूफी वाला लॉजिक भी मेरे दिमाग में रहता था, वो ये कि मैं गर्मियों में अच्छा बैटिंग करता हूँ, लेकिन सर्दियों में मेरी फॉर्म गड़बड़ा जाती है, और तब मैं उन दिनों सोचता था कि शायद क्रिकेट के लिए सबसे अनुकूल मौसम गर्मियों की ही है। 🙂
बचपन और गर्मियों के किस्से इतने ही नहीं, और भी बहुत सारे हैं। गुलज़ार साहब ने ‘दिल्ली की दोपहर’ के बारे में कुछ लिखा है, कमोबेश हर शहर की वही तस्वीर है, लेकिन अभी की नहीं, पहले ज़माने की। हमारे बचपन में भी कुछ हद तक शहर की तस्वीर ऐसी ही थी और पता नहीं क्यों मैं जब भी इसे पढ़ता हूँ तो डायरेक्ट अपने बचपन के उन दिनों में पहुँच जाता हूँ :
सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहाँ अब
धुप में आधी रात का सन्नाटा रहता था
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
‘चार पाई’ बुनने वाला जब,
घंटा घर वाले नुक्कड़ से,कान पे रख के हाथ,इक हांक लगाता था
“चार..पाई…बनवा लो…”
खस-खस की टटीयों में सोए लोग अंदाजा कर लेते थे…डेढ़ बजा है!
दो बजते बजते जामुनवाला गुजरेगा
“जामुन…ठन्डे..काले…जामुन”
टोकरी में बड के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
बंद कमरों में….
बच्चे कानी आँख से लेटे लेटे माँ को देखते थे,
वो करवट लेकर सो जाती थी.
तीन बजे तक लू का सन्नाटा रहता था
चार बजे तक “लंगरी सोटा” पीसने लगता था ठंडाई
चार बजे के आसपास ही हापड के पापड़ आते थे
“लो..हापड़..के…पापड़…”
लू की कन्नी टूटने पर छिड़काव होता था
आँगन और दुकानों पर!
बर्फ की सील पर सजने लगती थी गंडेरियाँ
केवड़ा छिड़का जाता था
और छतों पर बिस्तर लग जाते थे जब
ठन्डे ठन्डे आसमान पर
तारे छिटकने लगते थे!
गर्मी के बहाने क्या क्या याद कर लिया उसपर गुलजार की दिल्ली की दोपहर …बोले तो गर्मी की शाम बना दी बालक ! :).
This nostalgic post of yours made me nostalgic too:)
बहुत बढ़िया गर्मी वर्णन, अद्भुत, और वैसे कुल्फ़ी तो हमें भी बहुत पसंद है, आज भी कम से कम दो खाते हैं 🙂
यादें गर्मी के बहाने….. बहुत सुंदर पोस्ट…
bahut sunder!
दिल्ली की सर्दी की तरह गर्मियों के भी अपने ही मज़े हैं… मटका कुल्फी की तो बात ही कुछ और है!
गर्मी पर भी इतनी शीतलता भरी पोस्ट।
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ओह अब समझ में आया कल जो आप जिक्र कर रहे थे .. बचपन की आइसक्रीम का… देखिये न कितनी ट्रेजडी भरी बात है..बचपन में मम्मी पापा के इंकार के बद सोचा करते थे ढेर साडी आइसक्रीम खाया करेंगे ..जब बड़े होंगे… क्या इससे बड़ी ट्रेजडी होगी… हम बड़े हुए और अब आइसक्रीम में वो स्वाद नहीं रहा…. वैसे गुलजार की इस कविता में सिर्फ दिल्ली की दोपहरें ही नहीं लिपटी हैं.,.ये शायद उस वक़्त के हर शहर की दोपहरें हैं…हर गाँव की…. क्योंकि यही तो मेरे गाँव में भी होता था… आइक्रिम वाला.. सब्जी वाला..ऐसे ही..मदारी वाला….
सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहाँ अब
धुप में आधी रात का सन्नाटा रहता था
(वैसे एक रिक्वेस्ट है गर आपके बचपन में मदारी वाले याद हों तो उन पर भी एक पोस्ट..plzzzzzzzzzzzz)
का का याद दिला दिए.. पता नहीं तुमरे टाइम तक ज़िंदा था कि नहीं.. गोल्डन आइसक्रीम बेचने वाला.. आवाज़ लगाता था,"आ गया! आ गया!! वही बुढवा!" और जब हम लोग पूछते कि बुढिया कहा गयी.. तब बोलता था कि राजेस खन्ना के साथ भाग गयी!!
एगो और आइसक्रीम वाला था गोल्डन का.. भगत सिंह.. एकदम भगत सिंह जैसा हैट लगाता था और मूंछ भी रखता था.. साइंस कॉलेज से लेकर सेंट जेवियर तक दिखाई देता था..
ले-आउट अच्छा लग रहा है.. मगर उसमें गुलज़ार साहब के गीत में गडबड है!!
बढ़िया यादें!!
बहुत कुछ याद आ गाया आज फिर एक बार आपकी यह पोस्ट पढ़कर हमरे यहाँ भी गर्मियों के डीनो में एक कुल्फी वाला आता था जो फिक्स था वो कुल्फी को भी रबड़ी में डुबो कर देता था उस से कुल्फी लेकर खाने के लिए हमे कभी रेकुएस्ट नहीं करनी पड़ती थी क्यूंकि रबड़ी के लालच में घर वाले भी हमेशा तैयार रहा करते थे वो कुल्फी खाने के लिए। जिसका स्वाद आज भी ज़ुबान पर कायम है …मगर आज जब बिना रेकुएस्ट के बेधड़क आइसक्रीम खा सकते हैं तो दिवाए क्वालिटी के और कोई मिलती ही नहीं यहाँ खाने को :)बहुत ही बढ़िया पोस्ट उस पर गुलजार साहब की दिल्ली की दौपहर जैसे सोने पर सुहागा….
क्या क्या याद दिला दिया…कब से तारों भरा आकाश नहीं देखा…..हम तो सबसे ज्यादा वही मिस करते हैं.
बहुत प्यारी पोस्ट है…। न जाने कितनी बातें याद दिला दी…। गर्मियाँ मुझे आज भी अपने बचपन की गर्मी की छुट्टियाँ याद दिला जाती है जब छुट्टियों से पहले इम्तहान खत्म हो जाते थे और आखिरी पेपर के होते ही मैं कई महीनों से जमा कर रखी हुई कहानी की किताबें निकाल देर रात तक जाग-जाग कर उन्हें ख़त्म किया करती थी…और दूसरे दिन सुबह दस-ग्यारह बजे तक लम्बी तान कर सोती…। दोपहर को आसपास के संगी-साथियों से कॉमिक्स की अदला-बदली होती । वो एक कॉमिक्स के अठन्नी के किराए में कई-कई कॉमिक्स पढ़ कर हम सब कितना आह्लादित होते थे, उसका मज़ा अब शायद हजारों रुपए खर्च कर के किसी चीज़ को पाकर भी नहीं आता…।
तुम्हारी सहज भाषा में लिखी गई पोस्ट पढ़ना हमेशा मेरे लिए एक सुखद अहसास होता है…। मेरी बहुत शुभकामनाएँ व बधाई…।
प्रियंका
तुम जो भी विषय उठाते हो उसमें एक अलग ही जान डाल देते हो..मानो…भावनाओं का प्यारा सा सैलाब उड़ेल रहे हो..हम पढ़ते-पढ़ते होले-हौले हिचकोले ले रहे हैं..अति सुन्दर ..हार्दिक बधाई..
@सलिल चाचा..
वो बुढवा तो नहीं लेकिन हम लोग का भी फेवरिट 'गोल्डन आईसक्रीम' वाला ही था…उसी का इंतज़ार करते रहते थे..उसका ऑरेंज कैंडी उस टाईम दो रुपया में देता था…मुझे तो वो बहुत पसंद था.. 🙂
@अन्जुले भाई,
कोशिश करूँगा लिखने की 🙂
@प्रियंका दीदी,
हम भी कहानियों की किताब खास कर के नंदन और चम्पक जैसी किताबें जमा किया करते थे की परीक्षाओं के बाद पढेंगे उसे…और तो और मैं कैसेट भी खरीद के जमा कर लेता था की इम्तिहान के बाद आराम से गाने सुने जायेंगे 🙂
Aapke post ne sach main bachpan ki aad dila di…! Vo icecream ka wait karna, dopahar ko school se aakar soo jana, vo nimbu pani… wow!
loved this post of yours
सुनहरी यादें। पढकर बहुत अच्छा लगा।