पहले के गर्मी के दिनों की बात ही कुछ और होती थी. हमारे लिए खूबसूरत मौसम होता था गर्मियों का. गर्मी परेशान तो करती थी लेकिन गर्मियों की छुट्टी का हम बेसब्री से इंतजार करते थे. कहीं घुमने जाना हो या घर पर ही बैठ कर टेपरिकॉर्डर में गाने सुनना, कॉमिक्स पढ़ना या फिर दिन भर घर में धमाचौकड़ी मचाना. एक डेढ़ महीने के लिए स्कूल की छुट्टी और हमारी सिर्फ मस्ती होती थी.
बचपन में हम नानी के घर रहते थे. दोपहर में हमें बाहर निकलने की सख्त मनाही थी. बच्चे गर्मी के दोपहर बाहर लू में न खेले और घर के अन्दर ही रहे, इसके लिए घरवाले जाने कैसी कैसी कहानियाँ बनाकर हम बच्चों को डरा देते थे. सबसे मजेदार जो धमकी मिलती थी घरवालों से वो ये.. “जाओ न, बहार जाकर खेलो..तुमको लकड़सुंघा आकर उठा कर ले जाएगा…”. ये जाने कितने बच्चों ने सुना होगा, हमनें तो सुना ही था.. कि बदमाशी करोगे तो लकड़सुंघा आएगा और लकड़ी सुंघा कर तुम्हें बोरा में बंद कर के ले जाएगा. और हम बच्चे इस बात को सच मान ले इसके लिए कितने उदाहरण हमें दिए जाते थे… “जानते हो उस मोहल्ले से उस बच्चे को उठा कर परसों ले गया था लकड़सुंघा…”. हम सच में डर जाते थे. कभी दोपहर में कोई भी अनजान व्यक्ति मोहल्ले में घूमते दिखाई देता और उसके हाथ में अगर कोई बोरा या थैला होता तो हम उसे शक की निगाहों से देखने लगते…जाकर घर में बोलते… “देखो बाहर लक्कड़सुंघा आया है..”. इस तरह की जाने कितनी बातें उन दिनों हम बच्चे लोग सुनते थे.
बाहर तो जाने की इजाज़त नहीं थी, तो हम गर्मियों की दोपहर घर में ही बंद रहते…सभी खिड़की दरवाज़े बंद कर, परदे वगैरह गिरा देते और कमरे में बिलकुल अँधेरा कर देते.. और जितने भी काम होते सब निपटाते एक के बाद एक. फिर चाहे वो स्कूल से मिला गर्मियों का होमवर्क हो या फिर भाई बहनों के साथ मिलकर कोई खेल खेलना, या कॉमिक्स, नंदन, चम्पक और नन्हें सम्राट पढ़ना, तो कभी ड्राइंग करना तो कभी अपने स्टाम्प कलेक्सन की तरफ ध्यान देना…और कुछ न समझ में आये अगर तो घोड़े बेच कर सो जाना..
मेरे लिए लेकिन गर्मियों की छुट्टियों की ज्यादा यादें अपने सरकारी कवार्टर की हैं, जहाँ हम 1994 में रहने आये थे. कवार्टर में गर्मी की दोपहर हमारे लिए बड़ी अच्छी और राहत वाली रहती थी. जाने क्या ख़ास बात थी हमारे कवार्टर की, कि बहार कितनी भी गर्मी हो, चाहे कितना भी लू चल रहा हो लेकिन हमें गर्मी का एहसास तक नहीं होता था. शायद उसकी दो प्रमुख वजहें थीं.. पहला तो हमारा कवार्टर ग्राउंड फ्लोर पर था और आसपास खूब पेड़ थे. घर के आगे अमलतास का विशालकाय पेड़ तो घर के पीछे आम का विशाल पेड़. हमारा कवार्टर राजवंशी नगर इलाके में था, जो कि गवर्नर हाउस और सचिवालय जैसे प्रमुख इलाकों से बिलकुल पास था, जिसकी वजह से बिजली की कटौती शायद ही कभी होती थी. गर्मी के दिनों में पूरे पटना में बिजली की चाहे जितनी भी लोड शेडिंग होते रहे, हमारे इलाके में कभी कभार ही बिजली जाया करती थी. इन सब वजहों से हमारा कवार्टर गर्मियों के दिन हमें राहत देता था. मेरा कमरा जहाँ बाबा आदम के ज़माने का लोहे का पंखा लगा था, वो खासकर बड़ा ठंडा रहता. उसकी वजह वही पंखा था, जिसके सामने बाकी के दो कमरे में लगे नए पंखे एकदम फीके थे. एकदम ठंडी हवा आती थी उससे. कवार्टर छोड़ते वक़्त मैंने तो बड़ी जिद की थी माँ से, कि ये पंखा साथ लेते चलते हैं. लेकिन माँ ये कहकर नकार दी, सरकारी सामान है..नहीं ले जा सकते.
कवार्टर में गर्मियों की छुट्टी में मेरा सबसे प्रिय काम में से एक था, अपने पुराने बिगड़े हुए मर्फी के टू-इन-वन को रिपेयर करने की कोशिश करना…जहाँ तक मुझे याद है मैंने ये काम 1995 की गर्मियों में शुरू किया था. घर में मैं, मेरी छोटी बहन मोना और सीमा दीदी, लगे रहते थे टू-इन-वन के पीछे. तरह तरह से इसे ठीक करते..कभी चलता तो कभी रुक जाता..लेकिन हम हार नहीं मानते थे. आखिर पूरे दिन का समय रहता था हमारे पास. माँ और पापा के ऑफिस जाते ही हम अपने काम में लग जाते, और फिर जब हमारी मेहनत की वजह से टेपरिकॉर्डर ठीक हो जाता तो एक अलग ही ख़ुशी होती थी.
अगले साल यानी 1996 में घर में दो शादियाँ थीं..एक तो मेरी मौसी की, और एक सीमा दीदी की, जिनके साथ मिलकर मैं टेपरिकॉर्डर ठीक करता था. दोनों शादियाँ मई के महीने में ही थी, दस पंद्रह दिनों के अंतराल पर, और पूरे महीने शादी में ही बीत गया था. शायद शादियों में डेक पर गाने सुनने की आदत लग गयी हो मुझे या जाने क्या सुरूर चढ़ा था, वापस आकर मैंने सबसे पहला काम किया था कि अपने टू-इन-वन को अच्छे से चेक करवाया और दुसरे बड़े दुकान में रिपेयरिंग के लिए दे दिया. उस दुकान वाले ने जाने क्या जादू किया था, टेपरिकॉर्डर बिलकुल अच्छा बजने लगा था. मेरी तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं था. उसी दिन मैंने उसी दुकान से एक नयी कैसेट खरीदी थी, जो मुझे आज भी याद है… ‘खिलाड़ियों का खिलाड़ी’ और ‘मासूम’ फिल्म का डुएट कैसेट था वो.
कुछ महीनों तक टू-इन-वन ठीक ठाक चला लेकिन फिर इसमें दिक्कतें आने लगी. लेकिन फिर भी खींच तीर कर अपने उस पुराने टू-इन-वन को मैंने तीन साल और चलाया. कभी कभी टेपरिकॉर्डर चलते चलते बंद हो जाता तो मैं खुद ही उसे ठीक करने बैठ जाता. 1999 तक मैंने गाने अपने मर्फी वाले टू-इन-वन में ही सुने, बाद में उसी साल हमारे पास बीपीएल का छोटा टेपरिकॉर्डर आ गया था.
शायद ये बीपीएल का ही टेपरिकॉर्डर था जिसके वजह से मेरी गाने सुनने की आदत लगी. इस टेपरिकॉर्डर के आने से पहले मुझे गाने सुनने में ख़ास दिलचस्पी नहीं रहती थी. साधन भी ख़ास नहीं था मेरे पास कि गाने सुनूँ. मर्फी का टेपरिकॉर्डर अपने मर्जी का मालिक था, कभी चलता तो कभी नहीं चलता. लेकिन नए टेपरिकॉर्डर के आने के बाद मेरी गानों में दिलचस्पी एकाएक से काफी बढ़ गयी.
हमारे कवार्टर का बरामदा, जहाँ हम गर्मियों
की दोपहर खेलते थे. तस्वीर में मेरी बहन निमिषा है
कवार्टर में गर्मियों की दोपहर हम अपने बरामदे में भी खेलते थे. हमारा बरामदा ज्यादा बड़ा तो नहीं था, लेकिन फिर भी हम दोपहर को वहाँ कई सारे खेल खेलते, जिसमें सबसे ज्यादा प्रमुख थे कितकित, और क्रिकेट. उन्हीं दिनों मैंने नया बैट और नया डूज़ बॉल खरीदा था. हम दिन में बरामदे में ही क्रिकेट खेलते. बरामदा का फर्श जो पहले से ही जर्जर स्थिति में था, जहाँ-तहाँ फर्श टूटी हुई थी जिसके ऊपर सीमेंट और बालू का पैच लगा दिया गया था…और हमारे क्रिकेट खेलने की वजह से जाने कितने बार सीमेंट के पैच टूटते, और फिर अगले इतवार पापा फिर से फर्श बनवाते..लेकिन हम फिर भी बाज़ नहीं आते, और फिर से क्रिकेट खेलते, फर्श फिर से टूटता.
शायद गर्मी की दिनों में मेरा बरामदा और मेरा टेपरिकॉर्डर, मेरे लिए सबसे बड़ा सुकून था..शायद मुझे और कोई बात इतना नॉस्टैल्जिक नहीं करती जितना ये दोनों…नॉस्टैल्जिक करने की वैसी तो और भी बहुत सी वजहें हैं, कुछ तो यहाँ लिख चुका हूँ और कुछ शायद कभी अगले पोस्ट में शेयर करूँगा.
इनके अलावा, मुझे गुलज़ार साहब की ये नज़्म भी बड़ा नॉस्टैल्जिक सा फील देती है. लगता है जिस गर्मियों को हम जानते थे वो इसी नज़्म में है, अब कहाँ वैसी गर्मियों की दोपहर रही.
सन्नाटों में लिपटी वो दोपहर कहाँ अब
धुप में आधी रात का सन्नाटा रहता था
लू से झुलसी दिल्ली की दोपहर में अक्सर
‘चार पाई’ बुनने वाला जब,
घंटा घर वाले नुक्कड़ से,कान पे रख के हाथ,इक हांक लगाता था
“चार..पाई…बनवा लो…”
खस-खस की टटीयों में सोए लोग अंदाजा कर लेते थे…डेढ़ बजा है!
दो बजते बजते जामुनवाला गुजरेगा
“जामुन…ठन्डे..काले…जामुन”
टोकरी में बड के पत्तों पर पानी छिड़क के रखता था
बंद कमरों में….
बच्चे कानी आँख से लेटे लेटे माँ को देखते थे,
वो करवट लेकर सो जाती थी.
तीन बजे तक लू का सन्नाटा रहता था
चार बजे तक “लंगरी सोटा” पीसने लगता था ठंडाई
चार बजे के आसपास ही हापड के पापड़ आते थे
“लो..हापड़..के…पापड़…”
लू की कन्नी टूटने पर छिड़काव होता था
आँगन और दुकानों पर!
बर्फ की सील पर सजने लगती थी गंडेरियाँ
केवड़ा छिड़का जाता था
और छतों पर बिस्तर लग जाते थे जब
ठन्डे ठन्डे आसमान पर
तारे छिटकने लगते थे!
तुम्हारा बचपन पटना में,हमारा नहिहाल टीकमगढ़…..फिर भी सब कुछ एक सा….
तुम्हारी यादों से इतर मेरी गर्मियों में शुमार है मामाजी के लाये चूसने वाले खट्टे मीठे आम……और चूल्हे पर भुनी प्याज़ और आलू…..नानी आख़री रोटी सिकने के बाद आंच पर पटक देती थी….
उफ़्फ़…..ये गर्मियां…वो बचपन…याद और तुम्हारी पोस्ट……
loved it !! 🙂
अनु
लकड़सुंघा के अलावा हम लोग को बोरी वाले बाबा से डराया जाता था…। बेचारा गली से गुज़रता हर कूड़ा बीनने वाले पर बच्चों का शक़ गहरा जाता था। गर्मी के दोपहर में कमरे के मोटे परदे गिरा कर उनको पानी से तर करके उसके करीब बैठ के उससे गुज़र कर आती ठंडी हवा के आगे आज के ए सी, कूलर सब बेकार लगते हैं।
तुमने तो जाने कितनी यादें ताज़ा करा दी…। अब लगता है हमको भी अपनी यादों का पिटारा खोलना ही पड़ेगा 🙂 😛
Loved d post…और ये निम्मो वाली तस्वीर…:*
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अभि , ये मीठी यादें सभी की अनमोल निधि होतीं हैं . मुझे तो बचपन से ही दिल ढूँढ़ता है फिर वही ..गाना बहुत पसन्द था ( है ) .
बचपन की यादों की तो बात ही कुछ और है|
आपकी यह पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा…