मेरी कहानी मेरे साथ खत्म हो जाएगी – कलाम साहब की कहानी गुलज़ार की ज़ुबानी

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हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है 
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावार पैदा… 
सच ही तो है न…जब तक कोई दीदावार न हो…नरगिस के नूर का मोल ही क्या…? अक्सर ये दुनिया अपने अन्धेरों से घबरा कर किसी दिये को तलाशती है, पर अगर किस्मत अच्छी हो तो खुद सूरज आपके हाथ आ जाता है…आग सिर्फ़ जलाती ही नहीं न…उजाला भी तो देती है…सर्द रातों में बर्फ़-से जम रहे जिस्म को आग ही ज़िन्दगी की गर्माहट मुहैया कराती है… ऐसी ही एक गुनगुनाहट लेकर बरसों पहले एक गरीब नाविक के घर एक बच्चा जन्मा था… दिया बन कर आया वो बच्चा जब सूरज बन कर इस दुनिया के फ़लक पर जगमगाया, तब हमने उसका नाम जाना-एपीजे अब्दुल कलाम…कहने को देश के राष्ट्रपति…पर दिल से अपनी अन्तिम साँसों तक सिर्फ़ एक आम इंसान…वो बरगद जिसकी जड़ें बड़ी गहराई से अपनी मिट्टी…अपनी हक़ीकत से जुड़ी रही.वो सूरज था, पर चाँद-सरीखा शीतल. आग से भरपूर…पर जलाना तो जैसे सीखा ही नहीं था. बच्चों और बहुत हद तक बड़ों के लिए भी ‘कलाम चाचा’ वो सूरज थे जिससे ग्रहों के निर्माण होते हैं.जो ज़िन्दगी देता है.डूबता है तो दुनिया ही नहीं, कई बार मन तक अन्धेरे पहुँच जाते हैं…
कलाम साहब…एक बार फिर आना. इस बार भी सूरज ही बन कर…क्यों कि ज़िन्दा रहने के धूप बहुत ज़रूरी है न..
 
कलाम साहब जैसे शख्सियत के लिए मेरी ये बातें तो आपने सुन ली…पर  हम सबके बहुत अपने से गुलज़ार साहब ने बहुत पहले कलाम साहब की जीवन कथा अपने शब्दों में अपनी आवाज में हम तक पहुँचाई थी. बहुत पहले सुना था उसे   मैंने, तब से ही मन में था इसे अपने ब्लॉग में भी साझा करूँगा, अभी कुछ दिन पहले जब कलाम साहब हम सब को छोड़ कर बहुत  दूर चले गए, तब फिर से इसे सुना, सोचा साझा करूँ ब्लॉग पर लेकिन व्यस्तता इतनी रही इधर कि  ये बात टलती गयी. आज गुलज़ार साहब का जन्मदिन भी है, और आज के दिन सुनिए वो  किस्सा . और इस किस्से  का ट्रांसक्रिप्ट आप नीचे पढ़ भी सकते हैं.
कलाम साहब के निधन पर गुलज़ार साहब उस वाकये को याद कर के कहने लगे “मेरे लिए बहुत बड़ा कम्प्लिमेंट था मेरा ये प्रयास जब उन्हें पसंद आया. जब ये सीडी सुनाई उन्हें, नारायण हमारे साथ बैठा था, सीडी सुनकर उन्होंने नारायण से तमिल में कुछ कहा. मैंने जब पूछा बाद में कि क्या कहा था उन्होंने, नारायण ने कहा  – “इस आदमी ने मुझे बहुत रुलाया है. कल माँ बहुत याद आई ये सुन कर.” कलाम साहब के बारे में आगे बात करते हुए गुलज़ार साहब जिक्र करते हैं कलाम साहब की एक प्रेरणादायक बात की – हम सब के अन्दर एक मुकद्दस  लौ है और उस लौ को पंख दो और उसको परवाज़ दो. गुलज़ार साहब कहते हैं वो आवाम के राष्ट्रपति  थे . इस तरह से राष्ट्रपति के साथ कम हुआ ऐसा कि  इस तरह से  ताल्लुक लोगों का बना. सही मायनों में पीपल प्रेसिडेंट वो थे. बहुत बड़ा हिन्दुस्तानी हमारे दौर से गुज़र के गया. कलाम साहब के साथ अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में याद कर कहते हैं गुलज़ार साहब “उस समय वो प्रेसिडेंट नहीं थे जब पहली बार मिला था उनसे. हम दोनों पदमा अवार्ड्स की कमेटी  पर थे. किसी भी टाइम चार्ज्ड रहते थे वो हमेशा. उनकी चाल देख कर भी लगता था. जिस तरह गांधी जी तेज़ चलते थे कलाम साहब भी तेज़ चलते थे. तब की मुलाकात थी उसके बाद बच्चों के साथ मिला हूँ . बच्चों के लिए हमेशा तैयार रहते थे. कोई भी बच्चा स्टूडेंट कहीं से फोन करे, उनका रहता था कि चौबीस घंटे के अन्दर उनको अपॉइन्ट्मन्ट दे दो. जिस तरह बच्चों का फ्यूचर उन्होंने देखा है मेरा ख्याल है किसी ने भी नहीं देखा. एक पंडित नेहरु थे जिन्हें चाचा नेहरु कहते थे उन्हें बच्चों के साथ लगाव था लेकिन उनके बाद जिसमें नज़र आया है मेरी उम्र में बड़े होते होते तो वो कलाम साहब के अन्दर नज़र आया. कलाम साहब उनमें से हैं जिन्हें आप भूल नहीं सकते, उन्हें हमेशा याद करेंगे.
शाम से आँख में नमी सी है / आज फिर आपकी कमी सी है 

मैं एक गहरा कुआं हूं इस जमीन पर, बेशुमार लड़के-लड़कियों के लिए, जो उनकी प्यास बुझाता रहूं। उसकी बेपनाह रहमत उसी तरह ज़र्रे-ज़र्रे पर बरसती है, जैसे कुआं सबकी प्यास बुझाता है। इतनी सी कहानी है मेरी। आशिअम्मा के बेटे की कहानी। उस लड़के की कहानी जो अखबार बेचकर भाई की मदद करता था। उस शागिर्द की कहानी, जिसकी परवरिश शिवसुब्रह्मण्यम अय्यर और अय्या दोराइ सोलोमन ने की। उस विद्यार्थी की कहानी, जिसे शिवा अय्यर ने तालीम दी, जिसे एमजीके मेनन और प्रोफेसर साराभाई ने इंजीनियर की पहचान दी। जो नाकामियों और मुश्किलों में पलकर साइंसदान बना। मेरी कहानी मेरे साथ खत्म हो जाएगी क्योंकि मेरे पास कोई पूंजी नहीं है। मैंने कुछ हासिल नहीं किया…जमा नहीं किया। मेरे पास कुछ नहीं…और कोई नहीं, न बेटा, न बेटी, न परिवार। मैं दूसरों के लिए मिसाल नहीं बनना चाहता। लेकिन शायद कुछ पढ़ने वालों को प्रेरणा मिले कि अंतिम सुख रूह और आत्मा की तस्कीन  है, खुदा की रहमत, उनकी विरासत है। मेरे परदादा अवुल, मेरे दादा पकीर, मेरे वालिद जैनुलआब्दीन का खानदानी सिलसिला अब्दुल कलाम पर खत्म हो जाएगा। लेकिन खुदा की रहमत कभी खत्म नहीं होगी।

मैं शहर रामेश्वरम के एक मिडिल क्लास तमिल ख़ानदान में पैदा हुआ। मेरे अब्बा जैनुल आब्दीन के पास न तालीम थी, न दौलत। लेकिन इन मजबूरियों के बावजूद एक दानाई थी उनके पास, और हौसला था। और मेरी मां जैसी मददगार थी, आशिअम्मा। उनकी कई औलादों में एक मैं भी था।
.एक छोटे से कद वाला मामूली शक्लो-सूरत का लड़का। अपने पुश्तैनी मकान में रहते थे हम, जो कभी 19वीं सदी में बना था। काफी वशी व पक्का मकान था, रामेश्वरम की मस्जिद स्ट्रीट में। मेरे अब्बा हर तरह के ऐशो आराम से दूर रहते थे, मगर जरूरियात की तमाम चीजें मयस्सर  थीं। सच तो ये है कि मेरा बचपन बड़ा महफूज था, माद्दी तौर पर भी और जज़्बाती तौर पर भी, मटेरियली एंड इमोशनली।

रामेश्वरम का मशहूर शिव मंदिर हमारे घर से सिर्फ 10 मिनट की दूरी पर था। हमारे इलाके में ज्यादा आबादी मुसलमानों की थी फिर भी काफी हिंदू घराने थे, जो बड़े इत्तफाक से पड़ोस में रहते थे। हमारे इलाके में एक बड़ी पुरानी मस्जिद थी, जहां मेरे अब्बा मुझे हर शाम नमाज पढ़ने के लिए ले जाया करते थे। रामेश्वरम मंदिर के बड़े पुरोहित पंडित  लक्ष्मण शास्त्री मेरे अब्बा के पक्के दोस्त थे। मेरे बचपन की यादों में आंकी हुई एक याद यह भी थी कि अपने-अपने रवायती लिबास में बैठे हुए वो दोनों कैसे रुहानी मसलों पर देर-देर तक बातें करते रहते थे। मेरे अब्बा मुश्किल से मुश्किल रूहानी मामलों को तमिल की आम जुबान में बयान कर दिया करते थे। एक बार मुझसे कहा था-जब आफत आए तो आफत की वजह समझने की कोशिश करो, मुश्किलें हमेशा खुद को परखने का मौका देती हैं।

मैंने हमेशा अपनी साइंस और टेक्नोलॉजी में अब्बा के उसूलों पर चलने की कोशिश की है। मैं इस बात पर यकीन रखता हूं कि हमसे ऊपर भी एक आला ताकत है, एक महान शक्ति है, जो हमें मुसीबत, मायूसी और नाकामी से निकालकर सच्चाई के मुकाम तक पहुंचाती है। मैं करीब छह बरस का था, जब अब्बा ने एक लकड़ी की कश्ती बनाने का फैसला किया, जिसमें वे यात्रियों को रामेश्वरम से धनुषकोड़ी का दौरा करा सकें, ले जाएं और वापस ले आएं। वो समुंदर के साहिल पर लकड़ियां बिछाकर कश्ती का काम किया करते थे, एक और हमारे रिश्तेदार के साथ, अहमद जलालुद्दीन। बाद में उनका निकाह मेरी आपा ज़ोहरा के साथ हुआ। अहमद जलालुद्दीन हालांकि मुझसे 15 साल बड़े थे, फिर भी हमारी दोस्ती आपस में जम गई थी। हम दोनों हर शाम लंबी सैर को निकल जाया करते थे। मस्जिद गली से निकलकर हमारा पहला पड़ाव शिव मंदिर हुआ करता था, जिसके गिर्द हम उतनी ही श्रद्धा से परिक्रमा करते थे, जिस श्रद्धा से बाहर से आए हुए यात्री। जलालुद्दीन ज्यादा पढ़-लिख नहीं सके। उनके घर के हालात की वजह से। लेकिन मैं जिस जमाने की बात कर रहा हूं, उन दिनों हमारे इलाके सिर्फ वही एक शख्स था, जो अंग्रेजी लिखना जानता था। जलालुद्दीन हमेशा तालीमयाफ्ता, पढ़े-लिखे लोगों के बारे में बातें करते थे। साइंस की इजाद, मेडिसन और उस वक्त के लिटरेचर का जिक्र किया करते थे। एक और शख्स, जिसने बचपन में मुझे बहुत मुतास्सिर किया, वह मेरा कजिन था, मेरा चचेरा भाई शमशुद्दीन। उसके पास रामेश्वरम में अखबारों का ठेका था और सब काम अकेले ही किया करता था। हर सुबह अखबार रामेश्वरम रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से पहुंचता था। सन् 1939 में दूसरी आलमगीर जंग शुरू हुई, सेकंड वर्ल्ड वॉर। उस वक्त मैं आठ साल का था। हिंदुस्तान को इत्तहादी फौजों के साथ शामिल होना पड़ा। और एक इमरजेंसी के से हालात पैदा हो गए थे। सबसे पहले दुर्घटना ये हुई कि रामेश्वरम स्टेशन पर आने वाली ट्रेन का रुकना कैंसल कर दिया गया। और अखबारों का गट्‌ठा अब रामेश्वरम और धनुषकोडी के बीच से गुजरने वाली सड़क पर चलती ट्रेन से फेंक दिया जाता था। शमशुद्दीन को मजबूरन एक मददगार रखना पड़ा, जो अखबारों के गट्ठे सड़क से जमा कर सके। वो मौका मुझे मिला और शमशुद्दीन मेरी पहली आमदनी की वजह बना।

हर बच्चा, जो पैदा होता है, वो कुछ समाजी और आर्थिक हालात से जरूर असरअंदाज होता है। और कुछ अपने जज़्बाती माहौल से भी। उसी तरह उसकी तरबियत होती है। मुझे दयानतदारी और सेल्फडिसीप्लिन अपने अब्बा से विरासत में मिला था और मां से अच्छाई पर यकीन करना और रहमदिली। लेकिन जलालुद्दीन और शमशुद्दीन की सोहबत से जो असर मुझ पर पड़ा उससे सिर्फ मेरा बचपन ही महज अलग नहीं हुआ बल्कि आइंदा जिंदगी पर भी उसका बहुत बड़ा असर पड़ा।

अग्नि की परवाज 20 अप्रैल 1999 तय पाई थी। लॉन्च की तमाम तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। और हिफाजत के लिए ये फैसला किया गया था कि लॉन्च के वक्त आसपास के तमाम गांव खाली करा लिए जाएं। अखबारात और दूसरे मीडिया  ने इस बात को बहुत उछाला। 20 अप्रैल पहुंचते-पहुंचते तमाम मुल्क की नजरें हम पर टिकी हुई थीं। दूसरे मुल्कों का दबाव बढ़ रहा था हम इस तजुर्बे को मुल्तवी कर दें या खारिज कर दें लेकिन सरकार मजबूत दीवार की तरह हमारे पीछे खड़ी थी। और किसी तरह हमें पीछे नहीं हटने दिया। परवाज से सिर्फ 14 सेकंड पहले हमें कंप्यूटर ने रुकने का इशारा किया। किसी एक पुर्जे में कोई खामी थी। वो फौरन ठीक कर दी गई। लेकिन उसी वक्त डाउन रेंज स्टेशन ने रुकने का हुक्म दिया। चंद सेकंड्स में कई रुकावटें सामने आ गईं और परवाज मुल्तवी कर दी गई। अखबारात ने आस्तीनें चढ़ा लीं। हर बयान में अपनी-अपनी तरह की वजूहात निकाल लीं।

एक कार्टून में दिखाया गया कि साइंसदान कह रहा है, ‘सब ठीक था, स्विच बटन नहीं चला।’ एक कार्टून में एक नेता रिपोर्टर को समझा रहा है, ‘डरने की कोई बात नहीं। यह बड़ी अमन पसंद अहिंसावाद की मिसाइल है, इससे कोई मरेगा नहीं।’ फिर भी करीब 10 रोज दिन-रात काम चला, मिसाइल की दुरुस्ती में और आखिरकार साइंसदानों ने नई तारीख तय की अग्नि की परवाज के लिए। मगर फिर वही हुआ। 10 सेकंड पहले कंप्यूटर ने रुकावट का इशारा किया। पता चला एक पुर्जा काम नहीं कर रहा है। परवाज फिर मुल्तवी कर दी गई।

ऐसी बात किसी भी साइंसी तजुर्बे में हो जाना आम बात है। गैरमुल्कों में भी बहुत बार होता है लेकिन उम्मीद से भरी हुई कौम हमारी मुश्किलें समझने काे तैयार नहीं थी। एक कार्टून छपा, जिसमें एक देहाती नोट गिनते हुए कह रहा था, ‘मिसाइल के वक्त गांव से हट जाने का मुआवजा मिला है। दो-चार बार और ये तजुर्बा मुल्तवी हुआ तो मैं पक्का घर बनवा लू्ंगा।’ अमूल बटर वालों ने अपने होर्डिंग पर लिखा, ‘अग्नि को ईंधन के लिए हमारे बटर की जरूरत है।’ अग्नि की मरम्मत का काम जारी रहा। आखिरकार फिर 22 मई की तारीख अग्नि की परवाज के लिए तय पाई गई।
अगले दिन सुबह सात बजकर 10 मिनट पर अग्नि लॉन्च हुई। कदम-कदम सही निकला। मिसाइल ने जैसे टेक्स्ट बुक याद कर ली हो। जैसे सबक याद कर लिया हो। हर सवाल का सही जवाब मिल रहा था। लगता था, एक लंबे खौफनाक ख्वाब के बाद एक खूबसूरत सुबह ने आंख खोली है। पांच साल की मुशक्कत के बाद हम इस लॉन्च पैड पर पहुंचे थे। इसके पीछे पांच लंबे सालों की नाकामयाबी, कोशिशें और इम्तेहान खड़े थे। इस कोशिश को रोक देने के लिए हिंदुस्तान ने हर तरह के दबाव बर्दाश्त किए थे। लेकिन हमने कर दिखाया, जो करना था। वो मेरी जिंदगी का सबसे कीमती लम्हा था, वो मुट्‌ठी भर सेकंड, छह सौ सेकंड की वो परवाज, जिसने हमारी बरसों की थकान दूर कर दी, बरसों की मेहनत को कामयाबी का तिलक लगाया।

उस रात मैंने अपनी डायरी में लिखा, ‘अग्नि को इस नजर से मत देखो, यह सिर्फ ऊपर उठने का साधन नहीं है न शक्ति की नुमाइश है, अग्नि एक लौ है, जो हर हिंदुस्तानी के दिल में जल रही है। इसे मिसाइल मत समझो, यह कौम के माथे पर चमकता हुआ आग का सुनहरी तिलक है।’
1990 के रिपब्लिक डे पर देश ने मिसाइल प्रोग्राम की कामयाबी का जश्न मनाया। मुझे पद्म विभूषण से नवाजा गया। दस साल पहले पद्म भूषण की यादें एक बार फिर हरी हो गईं। रहन-सहन मेरा अब भी वैसा ही था, जैसा तब था। दस बाई बारह का एक कमरा किताबों से भरा हुआ, और कुछ जरूरत का फर्नीचर, जो किराए पर लिया था। फर्क इतना ही था कि तब ये कमरा त्रिवेंद्रम में, अब हैदराबाद में।

.मैं जानता हूं कि बहुत से साइंसदान और इंजीनियर मौका मिलते ही वतन छोड़ जाते हैं, दूसरे मुल्कों में चले जाते हैं ज्यादा रुपया कमाने के लिए, ज्यादा आमदनी के लिए लेकिन ये आदर, मोहब्बत और इज्जत क्या कमा सकते हैं, जो उन्हें अपने वतन से मिलती है?

15 अक्टूबर 1991 में मैं 60 साल का हो गया। मुझे अपने रिटायरमेंट का इंतजार था। चाहता था कि गरीब बच्चों के लिए स्कूल खोलूं। ये वो दिन थे जब मैंने सोचा कि अपनी जिंदगी के तजुर्बे और वो तमाम बातें कलमबंद करूं, जाे दूसरों के काम आ सकें। एक तरह से अपनी जीवनी लिखूं। मेरे ख्याल में मेरे वतन के नौजवानों को एक साफ नजरिए और दिशा की जरूरत है। तभी ये इरादा किया कि मैं उन तमाम लोगों का जिक्र करूं जिनकी बदौलत मैं ये बन सका, जो मैं हूं। मकसद ये नहीं था कि मैं बड़े-बड़े लोगों का नाम लूं। बल्कि ये बताना था कि कोई शख्स कितना भी छोटा क्यों न हो, उसे हौसला नहीं छोड़ना चाहिए। मसले, मुश्किलें जिंदगी का हिस्सा हैं और तकलीफें कामयाबी की सच्चाईयां हैं।

काश! हर हिंदुस्तानी के दिल में जलती हुई लौ को पर लग जाएं। और उस लौ की परवाज से सारा आसमान रौशन हो जाए।

जिस तरह गुलज़ार साहब की नज्में पढ़ते हुए दिल नहीं भरता वैसे ही कलाम साहब की बातें भी बहुत गहराई तक असर करती हैं…आज एक तरफ गुलज़ार  साहब को ८१ वर्ष का होने पर  दिल से सैकड़ों दुआयें निकलती हैं और ईश्वर से उनकी लम्बी उम्र की कामना होती है, वहीं दूसरी ओर कलाम साहब की यादें एक बार फिर आँखों में नमी ले आती है…
कितना अच्छा होता जब एक तरफ ये  कलम का  जादूगर दिल को चाँद सी शीतलता पहुँचाता और दूसरी तरफ एक सूर्य सा तेजस्वी व्यक्तित्व अभी भी हमें अपनी गुनगुनाहट में समेटने के लिए हमारे बीच मौजूद होता…पर ज़िंदगी फिर भी इसे ही कहते हैं…जहाँ कुछ मुस्कराहटें गीली भी होती है…

(गुलज़ार साहब के साथ कुछ लम्हें  के बाकी के पोस्ट )

Meri Baatein
Meri Baateinhttps://meribaatein.in
Meribatein is a personal blog. Read nostalgic stories and memoir of 90's decade. Articles, stories, Book Review and Cinema Reviews and Cinema Facts.
  1. दिन बना दिया अभि, कलाम साहब की किताब यहाँ खोज रही हूँ मिली नहीं अभी. कुछ राहत आ गई यहाँ पढ़कर.

  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आज की हकीकत – ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !

  3. कलाम साहब की कहानी गुलजार की जबानी..अद्भुत..जब दो महान व्यक्तित्व मिलते हैं तो कुछ शानदार ही निकल कर आता है..बहुत प्रेरणादायक पोस्ट !

  4. ऐसी महान हस्ती के बारे में लिखना ही अपने आप में एक काव्य है फिर गुलजार साहब की कलम से ..वाह . बहुत ही प्यारी और प्रेरक पोस्ट अभिषेक

  5. सुन्दर व सार्थक रचना ..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है…

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