हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज ए बयां और
-गुलज़ार
कभी कभी कोई रात फिल्म देखकर गुज़रती है…तो कभी किताबों में…और कोई कोई रात ऐसी भी होती है जो गुलज़ार साहब के नज्मों के नाम रहती है.कल की मेरी रात वैसी ही थी..शाम के बोझिल मूड को हल्का किया मेरे दो नालायक दोस्तों(प्रशांत–स्तुति)ने, और रात में दिल खुश हुआ गुलज़ार साहब की नज्मों से…
आँख में तैरती हैं तसवीरें
तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए
आईना देखता है जब मुझको
एक मासूम सा सवाल लिए
कुछ महीने पहले किसी ने कहा था, क्या बात है! आजकल “गुलज़ार” नामक नशा तो नहीं शुरू कर दिया!! बड़ी खराब लत है.. छुटती नहीं है काफिर मुँह को लगी हुई” —-मेरे लिए तो गुलज़ार-नामक नशा के तो कई दिन हो जाते हैं और कई कई दिनों तक ये हैंगओवर टिका ही रहता है..जैसे कल रात का हैंगओवर अभी तक उतरा नहीं, तो सोचा की इस नशे में थोडा आपको भी डुबो दिया जाए…
क्रिसमस और न्यू इअर का अभी माहौल है…तो ऐसे में एक खास नज़्म सुनिए जो एकदम इसी मौके पे फिट बैठता है…
रात क्रिसमस की थी..
न तेरे बस की थी..
न मेरे बस की थी..
चाँद पेड़ों पे था
और मैं गिरजे में थी
तुने लब छू लिए
जब मैं सजदे में थी
कैसे भूलूंगी मैं
वो घडी गश की थी
न तेरे बस की थी..
ना मेरे बस की थी..
तुम अकेले न थे
मैं भी तनहा ना थी
मुझमें सब खौफ थे
तुमको परवाह न थी.
तुम तो कमसिन न थे
मैं भी उन्नीस की थी
न तेरे बस की थी
न मेरे बस की थी
खूबसूरत थी वो
उम्र-ए-ज़ज्बात की
जिंदगी दे गयी
रात खैरात की
क्या गलत क्या सही
मर्जी जीसस की थी
गुलज़ार साहब के नज्मों के ही हैंगओवर में था ही की सुबह किसी के स्टेट्स से याद आया आज चचा ग़ालिब का भी जन्मदिन है…गुलज़ार साहब ने ग़ालिब चचा के ऊपर एक ‘मिर्ज़ा ग़ालिब’ सिरिअल भी बनाया था, जिसे दूरदर्शन पर प्रसारित किया जाता था.गुलज़ार साहब मिर्ज़ा ग़ालिब के बारे में कहते थे की–
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”ग़ालिब फारसी के दबदबे के दौर में सहज उर्दू में शायरी करते थे.मिर्जा गालिब के अंदर अहम बहुत था और यह नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक था, क्योंकि उनके अंदर आत्माभिमान था.वह फारसी के दबदबे के दौर में सहज उर्दू में शायरी करने वाले व्यक्ति थे और वह धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे.गालिब की शायरी और बर्ताव में धर्मनिरपेक्ष भावना थी,उसी के चलते मैंने उन पर साढ़े छह घंटे लंबा टेलीविजन सीरियल बनाया ताकि लोग गालिब जैसे महान शायर से रूबरू हो सकें.उनकी हाजिर जवाबी के लोग कायल थे.आज हमें युवाओं को अपनी विशाल संस्कृति से परिचित कराना चाहिए. हमें शेक्सपीयर को पढ़ने से कोई फायदा नहीं हैं, लेकिन इसके साथ हमें हमारे शायरों और लेखकों से मिला दीजिए.कुछ ऐसा करिये कि शेक्सपीयर के साथ कालिदास, टैगोर और अन्य भाषाओं के लेखकों की कृतियां भी पाठयक्रम में आ जाएं.मेरा मानना है कि किसी भी मातृभाषा वाले व्यक्ति के लिए गालिब को जानना बेहद जरूरी है, क्योंकि वह भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा है. नवजवान पीढ़ी केवल टेलीविजन और इंटरनेट तक सिमट गई है. अपनी संस्कृति को जानने के लिए यहां की गलियों में घूमें तो सब कुछ समझ में आ जाएगा.”
एक मजेदार किस्सा भी गुलज़ार साहब सुनाते हैं ग़ालिब चचा के बारे में —
“एक बार किसी दुकानदार ने उधार की गयी शराब के दाम वसूल न होने पर मुकदमा चला दिया.मुक़दमे की सुनवाई मुफ्ती सदरुद्दीन की अदालत में हुई.आरोप सुनाया गया.इनको उज्रदारी में क्या कहना था, शराब तो उधर मंगवाई ही थी सो कहते हैं क्या?आरोप सुनकर शेर पढ़ दिया –
कर्ज की पीते थे लेकिन समझते थे की
हाँ रंग लाएंगी हमारी फाकामस्ती इक दिन
मुफ्ती साहब ने अपने पास से वादी को पैसे दे दिए और मिर्जा को छोड़ दिया.”
गुलज़ार साहब ने तो ग़ालिब का परिचय भी कुछ इस तरह ही दिया था —
बल्ली मारां की वो पेचीदा दलीलों की-सी गलियाँ
सामने टाल के नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे
गुङगुङाते हुई पान की वो दाद-वो, वाह-वा
दरवाज़ों पे लटके हुए बोसीदा-से कुछ टाट के परदे
एक बकरी के मिमयाने की आवाज़ !
और धुंधलाई हुई शाम के बेनूर अँधेरे
ऐसे दीवारों से मुँह जोड़ के चलते हैं यहाँ
चूड़ीवालान के कटड़े की बड़ी बी जैसे
अपनी बुझती हुई आँखों से दरवाज़े टटोले
इसी बेनूर अँधेरी-सी गली क़ासिम से
एक तरतीब चिराग़ों की शुरू होती है
एक क़ुरआने सुख़न का सफ़्हाखुलता है
असद उल्लाह ख़ाँ `ग़ालिब’ का पता मिलता है
मिर्जा ग़ालिब से जुड़े किस्से भी बड़े दिलचस्प मुझे लगते हैं..शायद इसलिए भी मिर्ज़ा ग़ालिब धारावाहिक मुझे बहुत पसंद है, और पुरे एपिसोड मेरे पास मौजूद हैं, जिसे मैं कई दफे देख चूका हूँ..मिर्ज़ा ग़ालिब से जुड़ा एक मजेदार किस्सा है –
“जाड़े का मौसम था.तोते का पिंजरा सामने रखा था और सर्द हवा चल रही थी.तोता सर्दी के कारण परों में मुँह छिपाए बैठा हुआ था.मिर्ज़ा ने देखा और उनकी अन्दर की जलन बाहर निकली…बोले- “मियाँ मिट्ठू! न तुम्हारे जोरू, न बच्चे…तुम किस फ़िक्र में यों सर झुकाए बैठे हो?”
एक और किस्सा है ग़ालिब का.ग़दर के दिनों में अँगरेज़ सभी मुसलमानों को शक की निगाह से देखते थे.दिल्ली मुसलामानों से खाली हो गयी थी, पर ग़ालिब और कुछ दूसरे लोग चुपचाप अपने घरों में पड़े रहे.एक दिन कुछ गगोरे इन्हें भी पकड़कर कर्नल के पास ले गए.उस वक्त कुलाह(ऊँची टोपी) इनके सर पर थी.अजीब वेशभूषा थी.कर्नल ने मिर्जा की ऐसी वेशभूषा देखि तो पूछा -टूम मुसमान है?मिर्जा ने कहा- ‘आधा’.कर्नल ने पूछा -इसका क्या मटलब है? तो इसपर मिर्जा बोलें – शराब पीता हूँ, सूअर नहीं खाता. कर्नल सुनकर हसने लगे और इन्हें घर जाने की इजाजत दे दी.
सुशिल भैया ने भी अपने एक पोस्ट में मिर्जा ग़ालिब का ही जिक्र किया था..उन्होंने एक किताब के बारे में बतलाया था जिसे श्री चरणदास सिंधु जी ने लिखा है.वो मिर्जा ग़ालिब से जुडी कुछ कहानी और सुनाते हैं –
यूं तो मिर्जा गालिब और बदकिस्मती दोनों साथ-साथ चलते हैं, किंतु इस नाटक में गालिब के उस एक रुप को जब जाना तो मैं उनके हौंसले का कायल हुए बगैर नहीं रह सका, जब पूरी पेंशन न मिलने के कारण उन्हें मुफलिसी में गुजर-बसर करना पड़ी। जिंदगी के सुनहरे दिनों में वो सिर तक कर्ज में डूबे रहे। रोज-ब-रोज दरवाजे पर कर्जख्वाहों के तकाजे मिर्जा गालिब की बेगम उमराओं जान को परेशान करते रहे। एक वक्त ऐसा भी आया जब मिर्जा गालिब के खिलाफ डिक्रियां निकलने लगी। जिसकी वजह से मिर्जा गालिब का गृहस्थ जीवन तनावों से घिरता रहा। मगर क्या मजाल कि इस फनकार को अपने फन से कोई तकलीफ जुदा कर पाती। यहां तक कि तनावो के बीच मिर्जा गालिब अपने नन्हें-नन्हें बच्चों को फौत होते देखता रहा और अंदर ही अंदर रोता रहा। शायद तभी उनकी कलम से यह शेर निकला :
मेरी किसमत में गम अगर इतना था
दिल भी, या रब्ब , कई दिये होते
मानसिक उलझनों, शारीरिक कष्टों और आर्थिक चिंताओं के कारण जीवन के अन्तिम वर्षों में ग़ालिब प्रायः मृत्यु की आकांक्षा किया करते थे.हर साल अपनी मृत्यु तिथि निकालते.पर विनोद वृत्ति अंत तक बनी रही.एक बार जब मृत्यु तिथि का ज़िक्र एक शिष्य से किया तो उसने कहा “इंशा अल्लाह, यह तारीख भी ग़लत साबित होगी..” इस पर मिर्ज़ा बोले, “देखो साहब!तुम ऐसी फ़ाल मुँह से न निकालो..अगर यह तारीख ग़लत साबित हुई तो मैं सिर फोड़कर मर जाउँगा”
एक बार दिल्ली में महामारी फैली..मीर मेहदीहसन ‘मजरुह’ ने अपने ख़त में ज़िक्र किया तो उसके जवाब में लिखते हैं, “भई, कैसी वबा?जब एक सत्तर बरस के बुड्ढे और सत्तर बरस की बुढ़िया को न मार सकी”
अन्तिम दिनों में ग़ालिब अक्सर अपना यह मिसरा पढ़ा करते थे :
ऐ मर्गे-नागहाँ ! तुझे क्या इंतज़ार है ?
और बार बार दोहराते :
दमे-वापसी बर सरे-राह है,
अज़ीज़ो!अब अल्ला ही अल्लाह है.
(मिर्ज़ा ग़ालिब से जुड़ी कहानियां कुछ मैंने बहुत पहले कहीं से अपने ब्लॉग के ड्राफ्ट में सेव किया था,फ़िलहाल याद नहीं वो लिंक्स, तो बता नहीं सकता कहाँ से वो कहानियां मैंने ली थी)
चलते चलते, गुलज़ार साहब की वो दो नज्में, जिसके हैंगओवर में कल रात था —
behtaareen!!
Gulzar saab ka jawab nhi
आज अगर तुम्हारी इस पोस्ट पर कमेन्ट करूँ तो गुलज़ार साहब के शब्दों में कहना होगा "beuatiful! wonderful!!"
(फिल्म: आंधी, सुचित्रा सेन to संजीव कुमार)
मूड फ्रेश हो गया ..
" रोज कहता हूँ न जाऊँगा कभी घर उसके
रोज उस कूचे में इक काम निकल आता है । "
ऐसे ही सोचते तो है जालिम तेरी पोस्ट को नहीं पढेंगे … पर फिर भी आ ही जाते है किसी जादू से बंधे हुए … कभी चाचा ग़ालिब के नाम का … कभी गुलज़ार साब के नाम का … मंतर तुम मार ही देते हो … और आज तो दोनों को मिला दिए … असर तो होना ही था … 😉
आह.. बहुत सुन्दर..
आह.. बहुत सुन्दर..
It is always wonderful reading your experiences…:)
बहुत सुन्दर..!!!
कितनी सारी बातें रिफ्रेश हो गयीं….इन किस्सों को बार बार सुनना अच्छा लगता है..और अगर सुनाने का ढंग इतना रोचक हो..तो फिर क्या बात है..
एक बार पहले भी पढ लिया, फिर से पढना (और सुनना) भी अच्छा लगा। शुक्रिया!
Very impressive stuff. Thanks for sharing
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waah bahut khoob !
ye poori series mujhe bhej do dost… shukrguzar rahunga…
mail karoge to address bhej dunga.